दहशत : हरीशचन्द्र पाण्डे की एक कविता
दहशत पारे सी चमक रही है वह मुस्कुराते हुए होंठों के उस हलके दबे कोर को देखो जहाँ से रिस रही है दहशत एक दृश्य
दहशत पारे सी चमक रही है वह मुस्कुराते हुए होंठों के उस हलके दबे कोर को देखो जहाँ से रिस रही है दहशत एक दृश्य
१९६२ में अल्बानिया की राजधानी तिराना में जनमी रीता पेत्रो स्टालिन कालीन साम्यवादी पाबंदियों से मुक्त हुए अल्बानिया की नयी पीढ़ी की एक सशक्त कवियित्री
चम्बा की धूप ——– ठहरो भाई, धूप अभी आएगी इतने आतुर क्यों हो आखिर यह चम्बा की धूप है- एक पहाड़ी गाय- आराम से आएगी.
गर हुए खुशकिस्मत इस जहाँ में हमयुद्ध के मैदान में एक खिड़की आ खड़ी होगी दो सेनाओं के बीच और जब सैनिक झांकेंगे उस खिड़की
हमीं हम हमीं हम रहेंगे जहाँ में हमीं हम हमीं हम ज़मीं आसमाँ में हमीं हम हमीं हम नफीरी ये बाजे नगाड़े ये तासे कि
अग्रज कवि विजय कुमार का नाम समकालीन कविता और कवितालोचना में एक विशिष्ट, महत्वपूर्ण और ज़रूरी नाम है। विजय कुमार जी ने अपने सतत् अनुवादकर्म
मैंने सुना बेटी आठवीं में आ गई है उन्होंने कहा देखते–देखते दसवीं में चली जाएगी उन्होंने कहा एक दिन विदा हो जाएगी. यह कविता क्यों