बाबा
का संस्मरण
मेरे
जीवन में-मन में वह एक-अकेला औघड़ बाबा
प्रगतिशील
हिंदी कविता का वह परम औघड़-ज़िद्दी यात्री, जिसे
नागार्जुन या बाबा कहते हैं, मेरे जीवन
में पहली बार आया तब मैं आठवीं में पढ़ता था। 1986
की बात रही होगी जब सुनाई पड़ा कि ये महाकवि हर बरस अपनी गर्मियाँ जहरीखाल में
वाचस्पति जी के घर गुज़ारते हैं जो राजकीय महाविद्यालय में मेरे पिता की ही तरह
हिंदी के प्राध्यापक हैं। हम उसी इलाक़े में नौगाँवखाल नामक गाँव में रहते थे। दो
साल बाद हाईस्कूल की पाठ्यपुस्तक में नागार्जुन की एक कविता ‘बादल
को घिरते देखा है’ सामने आयी। हालाँकि बरसात के दिनों
में मित्रों के साथ शराब पी लेने के बाद पिता को अकसर इस कविता कुछ हिस्से सुनाते
हुए पाया था,
ख़ासकर
वो जिसमें किन्नरों की मृदुल मनोरम अँगुलियाँ वंशी पर फिरती हैं,
जाहिर
है कविता के उस हिस्से में मदिरा का भी ज़िक़्र था, जो
तब तक पिता के उदर और मस्तिष्क के कुछ
अंशों पर हावी हो चुकी होती थी। बताना होगा कि पिता 70
के ज़माने में नागपुर में शोध करते हुए नागार्जुन के सम्पर्क रह चुके थे लेकिन
उनके ऐसे अद्भुत प्रशंसक थे, जिनमें 60-70
किलोमीटर दूर जहरीखाल में मौजूद अपने प्रिय कवि से मिलने जाने की कोई इच्छा मैंने
कभी जागते नहीं देखी। कुछ सबन्ध शायद ऐसे ही होते होंगे, जिनमें
सम्पर्क करना/रखना अनिवार्य न होता हो।
बहरहाल,
वक़्त
बहुत जल्दी गुज़रा और 1990 की बरसात
में हमारा परिवार पिता के स्थानान्तरण के फलस्वरूप नैनीताल जि़ले के रामनगर क़स्बे
में जा पहुंचा। यहाँ पहुंचते ही सुनाई दिया कि अब फिर बाबा जहरीखाल से काशीपुर आ
चुके वाचस्पति जी के घर पाए जाते हैं। काशीपुर की दूरी रामनगर से 27
किलोमीटर थी। मैं भी अब बी.एस-सी. का छात्र हो चुका था और कुछ इच्छाएँ साहित्य
प्रेम के चलते मेरी भी जागने लगी थीं। अगले बरस यानी 1991
में वाचस्पति जी का संदेश आया कि बाबा पधार चुके हैं और हम अगर मिलना चाहें तो
हमारा स्वागत है। यूं पिता और मैं उनसे मिलने काशीपुर गए। अब तक मैं नागार्जुन को
काफ़ी कुछ पढ़ चुका था और उनके धारदार चुटीले व्यंग्य का कायल था। बस में वक़्त
गुज़ारते हुए कई बार दिल की धड़कन बढ़ी कि मेरा भी अत्यन्त प्रिय हो चुका यह
बुज़ुर्ग कवि कैसा होगा और हमसे कैसे मिलेगा। पतली गली में आकर थोड़ी खुली जगह पर
एक उजड़ रही चूना भट्टी के सामने वाचस्पति जी का घर मिला, जिसके
मुख्य द्वार पर कालबेल की छोटी गोल काली बटन तो थी ही, एक
मोटी लोहे की साँकल भी थी, जिसे बिजली
न होने की स्थिति में दरवाज़े पर भरपूर शोर के साथ बजाया जा सकता था। मैंने अपने
उस किशोर उत्साह में दोनों का प्रयोग किया तो ऊपर मंजि़ल से एक कड़क आवाज़ आयी –
अरे बेटू देखो तो कौन है? कहो आ रहे
हैं भाई,
आ
रहे हैं! इतनी भी जल्दी क्या है! फिर तुरत
ही ऊपर से मूंछों वाला एक चेहरा नीचे देखता हुआ बोला – कहिये ! किस से मिलना
है! अब पिता ने अपनी वाणी को अवसर देते
हुए कहा – मैं हरि मौर्य हूं…. ऊपर वाला चेहरा एकाएक अपनी मूंछों में जैसे खिल
उठा – अरे भाई साब आप है! आता हूं। आता हूं!
हम सीढि़यों से ऊपर पहुंचे तो एक गोल बरामदे में हमें बैठा दिया गया। पता
चला जिस बेटू को आवाज़ दी जा रही थी, वह
वाचस्पति जी का बड़ा बेटा है और घर में मौजूद ही नहीं है। वे मूंछें ख़ुद वाचस्पति
जी के चेहरे की शान हैं, जिन्हें
शायद उन्होंने अपनी स्वाभाविक मानवीय स्निग्धता और स्नेह को छुपाने के लिए उगाया
है,
ताकि
रौब ग़ालिब करने में कोई कसर न रहे। उन्होंने बताया बाबा अभी खाना खाकर सोए हैं,
एकाध
घंटे का इंतज़ार करना होगा। तब तक एक स्त्री निकल कर आईं, जिनके
समूचे व्यक्तित्व में एक अनोखी आभा थी और उतना ही अनोखा अपनापा भी। वे घर की
मालकिन शकुंतला आंटी थीं। परिचय के तुरत बाद ही वे मुझे अपने साथ बरामदे के दूसरे
कोने पर मौजूद एक कमरे की ओर ले गईं जो उनका कार्यक्षेत्र था- उनकी रसोई। बिना कुछ
बोले एक पीढ़े पर बिठाया और आलू-टमाटर की सब्ज़ी और गर्म पूडि़यों की एक विराट
प्लेट मेरे सामने धर दी। मैं हिचकिचाया तो बोलीं-
अरे बस से आए हो। बच्चे हो भाई, भूख लग आई
होगी। शर्माओ मत, खाओ। अभी खीर भी गर्म करती
हूं। मैंने सोचा क्या मैं यहाँ तक सिर्फ़
खाना खाने आया हूं? तब पता नहीं था कि यही खाना एक दिन
मुझे जीवन की उन राहों तक ले जाएगा, जिन पर
मुझे कविता से लेकर प्रेम तक वे तमाम चीज़ें मिलेंगी, जिनके
बिना अब जीवन सम्भव नहीं।
कुछ
देर बाद अंदर के कमरे से अचानक काफ़ी खाँसने-खँखारने और बलगम निकालने की आवाज़ों
का एक विकट सिलसिला शुरू हो गया और वाचस्पति जी ने कहा -लगता है बाबा जाग गए! यह साधारण-सा लगनेवाला वाक्य मेरे लिए बेहद
असाधारण था और मैं तुरत कुर्सी से उठकर अंदर जाने को तत्पर हुआ। वाचस्पति जी ने
रोका,
कहा
– ज़रा रुकिए,
पहले
देख लें कहीं और तो नहीं सोएंगे। वे अंदर
गए और सूचना लाए कि अब नहीं सोएंगे, आप लोगों
को बुला रहे हैं। ख़ुदा-ख़ुदा करके सहर हुई थी। हम लोग अंदर गए। मैं पलंग पर बैठे
व्यक्ति को देखकर भौंचक्का रह गया। चेहरा तो फोटो में देखा था और उस चेहरेवाले
व्यक्ति की कल्पना एक पतले-दुबले बुर्ज़ग की ही थी पर इतने अशक्त की नहीं। बहुत
छोटा-सा क़द जो बैठे होने पर और भी छोटा लग रहा था। इस क़द के बड़प्पन के बारे में
अभी मुझे बहुत कुछ जानना था।
हमारी
पहली मुलाक़ात के तुरत बाद बाबा दस-पन्द्रह दिनों के लिए हमारे घर रामनगर आए और
आनेवाले तीन साल तक इसी तरह आते रहे। कुल मिलाकर अपने जीवन के कोई साठ दिन उन्होंने
हमारे साथ गुज़ारे होंगे और इन साठ दिनों की स्मृतियाँ अब मेरे जीवन भर का धन हैं।
इस धन में बाबा के पत्रों का कुछ चक्रवृद्धि ब्याज भी है, जिन्हें
कभी सबके पढ़ने के लिए उपलब्ध कराऊँगा। अभी की बात सिर्फ़ स्मृतियों की…..बाबा
के बारे में जो कुछ मैं लिख रहा हूं शायद सैकड़ों बार कई लोगों ने यही कुछ लिखा
होगा …और ऐसा इसलिए कि बाबा का दिया हुआ स्मृतिधन मेरे अकेले की बपौती
नहीं….मुझ जैसे सैकड़ों लोगों के पास वह है और कईयों के पास तो मुझसे कई गुना
ज़्यादा। ऐसे लोगों में सर्वोपरि वाचस्पति जी हैं पर इस स्मृतिधन को ख़र्च करने
में उनके जैसा कंजूस भी मैंने दूसरा नहीं देखा।
बाबा
घर आए तो उनके आने की सूचना मुहल्ले की कुछ धर्मपारायण स्त्रियों को मिली। ऐसी
स्त्रियों को जिनके पति सुनार, इंजीनियर,
व्यापारी
आदि थे और उनके गिर्द घूसखोरी, टैक्सचोरी,
गबन
आदि का बड़ा मज़बूत घेरा था, जिसके भीतर
वे स्त्रियाँ पुण्य की लालसा में मंदिरों, सत्संगों,
बाबाओं
आदि के चक्कर काटा करती थीं। पुण्य और सत्संग की यही इच्छा उन्हें हमारे घर लायी।
वे आयीं तो साथ में पुष्प, अक्षत,
धूप,
मिठाई
वगैरह से भरी भारी-भारी थालियाँ भी लायीं, जिन्हें
उन्होंने बाबा के चरणों में रखा। बाबा अद्भुत रूप से प्रसन्न हुए। अपनी मूंछों पर
कुछ अंश गिराते हुए मिठाई में से कुछ उन्होंने ग्रहण भी किया। फूल आदि उन औरतों के
सिर पर रखे तो वे धन्य हो गयीं। उन्होंने बाबा से सत्संग की प्रार्थना की तो
उन्होंने कहा कि सुंदर गृहणियों का साथ तो हमेशा ही सत्संग है….वे और भी प्रसन्न
हुईं। बाबा ने सासों से बहुओं के हाल पूछे और बहुओं से सासों के। पतियों का भी
नंबर आया…कुछ नवविवाहिताएँ लजा गईं। उनके मुखड़े की लाली बाबा को भायी। मैं
परेशान हुआ कि यह सब हो क्या रहा है! मुझे बाबा ने कालेज जाने का आदेश दिया। उस
सत्संग में आगे क्या हुआ मैं नहीं जानता पर बाबा के प्रवास के दौरान उन स्त्रियों
का आना हर साल अबाध रूप से जारी रहा।
मेरी
माँ का नाम कला है और वे काफ़़ी साफ़ रंग की हैं पर बाबा ने पहले दिन से ही उन्हें
कल्लू कहा। बताया कि उम्र, शक्ल-सूरत
और आदतों में वे ठीक बाबा की उड़ीसावाली बेटी की तरह हैं अतः वे उनकी बेटी ही हैं
और मेरे पिता उनके दामाद जिन्हें ठीक किए जाने की सख़्त ज़रूरत है। माँ इन बातों
से ख़ुश हुई और बाबा की ख़ातिरदारी में लगी रही। सामन्ती कूड़े के बीच ज़िन्दगी
गुज़ारते रहने के कारण पिता को ठीक किए जाने वाली बात उन्हें विशेष अच्छी लगी थी।
बाबा के साथ उनका सम्बन्ध स्थिर हो गया और स्थायी भी। बाबा ने पिता को तंग करने का
कार्यक्रम आंदोलन के स्तर पर शुरू कर दिया। पिता से भयभीत रहनेवाला मैं उनकी
विद्रोही गतिविधियों में शामिल रहने लगा।
कविता
और साहित्य की कोई बात कई दिनों तक नहीं हुई। फिर एक दिन अचानक कुमाऊँनी के
प्रसिद्ध कवि श्री मथुरादत्त मठपाल तशरीफ़ लाए। मठपाल जी का बड़ा बेटा नवेन्दु
मुझसे पाँच साल बड़ा था और मेरे भीतर की ज़मीन तोड़ रहा था ताकि आइसा,
आई.पी.एफ.
और जसम के बीज वहाँ बोए जा सकें। मैं अपनी शिक्षा और संस्कारों से मार्क्सवादी ही
था सो उसे अपने काम में दिक्कत नहीं हुई। मठपाल जी ने साहित्य का ज़िक़्र बड़े
ज़ोरों से छेड़ा…बाबा उनके परिवार में दिलचस्पी ले रहे थे पर मठपाल जी थे कि बात
को काटकर कुमाऊँनी कविता पर आ जाते थे। उन्होंने ‘आँग-आँग
चिचैल है गो’
शीर्षक
अपनी लोकप्रिय कविता का ज़ोरदार पाठ किया और बाबा को उसका भावानुवाद बताते हुए
प्रतिक्रिया की अनिवार्य माँग रखी। बाबा ने थोड़ा पानी माँगा और कुछ देर ख़ामोश
रहने के बाद टूटे-फूटे शब्दों में कहा कि जैसे बछड़े को दाग कर साँड बनने और लोगों
के बीच आतंक फैलाने के लिए शंकर जी के नाम पर छोड़ दिया जाता है वैसे ही तुम्हें
भी कुमाऊँनी के नाम पर किसी ने छोड़ दिया है। यह भीषण प्रतिक्रिया थी और मठपाल जी
के कान शायद बाबा की अस्पष्ट आवाज़ को सुनने के लिए ठीक से अभ्यस्त नहीं थे,
तब
भी इसका भावार्थ उनकी समझ में तुरत आ गया। वे लाल हो गए और चुप भी। अपने आक्रमण के
बाद छाए इस युद्धविराम के बीच अब बाबा ने उनकी पत्नी की ओर रुख़ किया। उनसे
घर-गृहस्थी की बातें कीं और यह भी पूछा कि एक हठी और इतने ज़बरदस्त कवि के साथ
निभाने में उन्हें किन मुश्किलों का सामना आम तौर पर करना पड़ता है। कुछ बातें
अपनी पत्नी अपराजिता देवी के बारे में बताई और उनके बलिदानों को सलाम भी पेश किया।
मेरे लिए इस सत्संग में शामिल रहना कमाल की बात थी। मुझे अब लगने लगा कि यही बाबा
नागार्जुन हैं और यही वह बात है जिसके कारण समूची प्रगतिशील कविता में वे अलग हैं।
बाबा से मिलने आनेवालों में लालबहादुर वर्मा, उनके
दामाद,
स्थानीय
रंगकर्मी अजीत साहनी और बहुत से वामपंथी कार्यकर्ता शामिल थे।
बाबा
हर बार आते और कहने-सुनने को बहुत कुछ छोड़ जाते। मैं उनके व्यक्तित्व को अब जानने
लगा। उनकी कविताओं में जो आग, अटपटापन,
अपनी
तरह की अनोखी कलात्मकता, सपाटबयानी,
छंद,
बहक,
तोड़-फोड,
भटकाव,
विचार,
प्रतिहिंसा,
शास्त्रीयता,
लोकराग
आदि एक साथ था,
वह
सबकुछ ज्यों का त्यों ख़ुद उनमें भी उसी स्तर पर मौजूद था। वे अपनी कविताओं की तरह
थे और कविताएँ उनकी तरह थीं।
दिनचर्या
के बारे में निजी हो कर कहूं तो वे नहाना तो दूर कभी दाँत भी साफ़ नहीं करते थे।
कपड़े कभी महीने में मुहूर्त निकालकर बदलते थे। उनके धुले कपड़े भी मनमाने
इस्तेमाल के चलते ख़ासे गंदे ही दिखाई देते थे। मेरी माँ उन्हें एक-एक घंटा उबलते
पानी में रखती थी। खाने के शौकीन पर कम खाते थे। दिन में एकाध बार बिफरने की हद तक
नाराज़ हो जाते थे। भद्रलोक की ऐसी-तैसी करने का कोई मौक़ा नहीं गँवाते थे। भाषा
का बोलचाल में कभी-कभी कवितानुमा इस्तेमाल करते थे और कविता में बोलचालनुमा का।
मेरे हिस्से के दिनों में मैंने उन्हें कभी कविता लिखते नहीं देखा – हाँ,
पत्र
लिखा करते थे…. पोस्टकार्ड्स पर कुछ पंक्तियाँ, जो
अकसर श्रीकांत,
विजयबहादुर
सिंह,
हरिपाल
त्यागी,
रामकुमार
कृषक आदि के नाम होते थे और उनमें बाबा की निकटसम्भावी दिल्ली वापसी का ज़िक़्र होता
था।
मेरे
पिता पान खाया करते थे… दिनभर में चालीस-पचास……निरन्तर….जबड़ा चलता रहता
था….बोलते बहुत कम थे। बाबा को यह बात अच्छी लगी। एक दिन कहा भी कि हरि तुम पान
खाते हो और हम लोगों की जान खाते हैं….पान की वजह से बोलते नहीं हो…अच्छा करते
हो….कई लोगों को सुख मिलता होगा। औरों का तो पता नहीं पर शायद ख़ुद बाबा को
ज़रूर कोई सुख मिलता होगा। बाबा से पिता के रिश्ते पुराने थे…गुरु रामेश्वर
शर्मा के ज़माने के, जिन्होंने हमारे चारों प्रगतिशील
कवियों पर पहले आलोचनात्मक लेख लिखे। कुछ हँसी-मज़ाक का सम्बन्ध भी था,
यूं
हँसी-मज़ाक तो बाबा पहली बार मिले आदमी से भी करते थे। मैं भोजन में माँस पसन्द
करता हूं और बाबा के लिए मेरा प्रतिदिन का माँसभक्षण उत्सुकता का कारण बनता गया।
घर में माँस सप्ताह में एक बार ही बनता था पर मुझे चौराहे पर ठेले पर मिलनेवाला भुटवा बहुत प्रिय था,
जिसे
बकरे की आँतों और दूसरे बेकार समझकर अलगाए गए हिस्सों से बनाया जाता था – यह
मेहनतकश मजदूर वर्ग का व्यंजन है, उनके लिए
प्रोटीन का एक बड़ा स्त्रोत जो कम दामों पर मिल जाता है। हमारे घर रहते हुए बाबा
अकसर मुर्गे का सीनेवाला एक टुकड़ा बड़े स्वाद से खाया करते थे। रात के खाने पर
अकसर इस बात पर बाबा का पिटारा खुला रहता था कि उन्होंने ख़ुद कितनी तरह का माँस
अब तक खाया है। इस विषय में उनके पास तिब्बत से लेकर सिंहलद्वीप तक के अनुभव थे।
बिहार और बंगाल का मत्स्यप्रेम इसमें शामिल था। भुटवा के बारे में पता लगने पर
उन्होंने बताया कि मुसहरों के साथ भुना हुआ चूहा तक वे खा चुके थे। मछलियों की
किस्मों पर बाबा अबाध और आधिकारिक किस्म का व्याख्यान प्रस्तुत करते थे। शाम को
अकसर रसोई में पहुंच जाते थे। माँ की पाककला में निखार का बीड़ा उन्होंने उठाया और
एक हद तक निखारकर भी दिखाया। आम उन्हें पसन्द थे पर शायद दमे के कारण वे आम खाते
नहीं थे। बाबा के रामनगर आगमन का मौसम आसपास के बग़ीचों से ख़ुश्बूदार आम की आमद
का मौसम भी होता था। बाबा साबुत आम लेकर उसे बहुत देर तक सूंघा करते। उन्हें
मिथिला की अमराईयाँ याद आतीं। कभी कटे हुए टुकड़े पर हल्के-से जीभ की नोक फिराकर
वापस रख देते। आम के साथ उनकी ये कार्रवाईयाँ प्रणय के स्तर तक जा पहुंचतीं। बाद
में छूट लेते हुए मैंने इस दिशा में प्रकाश डाला तो वे खुलकर हँसे और कहा कि बच्चू
इस कच्ची उम्र में प्रणय के बारे में कहाँ से जाना। मेरा जवाब था अज्ञेय के
उपन्यास ‘नदी
के द्वीप’
से।
वे हँसे और कहा अगर अज्ञेय से प्रणय के बारे में जानोगे तो उम्र भर खोज पूरी नहीं
होगी…वो तो शहरों की तरह स्त्रियाँ बदलता रहा…फिर बाबा ने शमशेर और एक स्त्री
और अज्ञेय के किसी त्रिकोण का अस्पष्ट-सा ज़िक़्र भी किया। मैं 19-20
साल का था और मेरे जीवन में प्रेम तो नहीं पर एक बेहद आत्मीय मित्रता का रिश्ता
पनप चुका था…जो बाद में पक कर प्रेम बना।
बाबा आम के सन्दर्भ में कही गई मेरी बात को लेकर लगातार संज़ीदा होते गए।
वे बार-बार पूछते कि कितनी लड़कियों से तुम्हारी दोस्ती है….नहीं है तो क्यों
नहीं है….और है तो किस हद तक है। एक अजीब से संकोच में मैं उन्हें कभी सीमा से
नहीं मिला पाया,
जो
मेरी पत्नी बनी।
मैं
भाऊ समर्थ की किताब ‘चित्रकला और समाज’
से
बेहद प्रभावित था और उसके असर में रेखाचित्र बनाने लगा था जो कुछ पत्रिकाओं में
छपने लगे थे। कविताएँ भी कुछ लिखीं थीं पर उन्हें किसी को दिखाया तक नहीं था…पता
नहीं क्यों कविता करना मुझे प्रेम करने जैसा लगता था। वह संकोच और आइसा के कुछ
कार्यकर्ताओं के बीच गोपन सम्भाषण का विषय था। मैंने बाबा को कविताएँ तो नहीं,
रेखांकन
ज़रूर दिखाए। उन्हें पसन्द आए और उन्होंने मुझसे कलाओं की सामाजिक भूमिकाओं पर कई
बार बातचीत की। भाऊ समर्थ उनके मित्र रहे थे और मेरे पिता के भी….उन दोनों के
बीच भाऊ की बातें अकसर हुआ करती थीं।
रामनगर
रहते हुए बाबा से मिलने और उन्हें अपने घर न्योतने कई लोग आते थे। एम.ए. की कुछ
लड़कियाँ थीं जिनमें कविता की समझ तो बिलकुल नदारद थी पर नागार्जुन का नाम और
हैसियत उन्हें हमारे घर खींच लाती थी। एक सुंदर-सी लड़की ने बाबा के साथ फोटो
खिंचाने की ख़्वाहिश जाहिर की तो बाबा ने कहा पहले कच्ची-पक्की कैसी भी एक कविता
लिखकर लाओ हम फोटो खिंचा लेंगे। लड़की ने कहा उसे लिखना नहीं आता। बाबा ने जाँच
बिठाई कि कुछ तो लिखती होगी…कुछ नहीं तो सहेलियों और रिश्तेदारों को
पत्र…..वैसा ही कुछ ले आओ। इस संवाद के बाद उस लड़की ने हमारे घर का रुख़ कभी
नहीं किया। फोटो के मामले में बाबा बहुत चौकन्ने थे। वाचस्पति जी ने भी बता रखा था
कि वे फोटो खिंचाना पसन्द नहीं करते। मैं इस मामले में सावधान रहता था पर उन्होंने
कई फोटो खींचने का मौका मुझे दिया।
बाबा
की साप्ताहिक साफ़-सफ़ाई करने का जिम्मा मेरा था। हालाँकि वे इसके लिए आसानी से
तैयार नहीं होते थे। कभी दमे का हवाला देते तो कभी हाइड्रोसिल का,
जिसका
वज़न बक़ौल बाबा साढ़े-तीन पाव था। मैंने अपनी नौजवानी के कुछ बेहद ऊर्जावान दिन
उस औघड़ के साथ गुज़ारे और वह मेरे भीतर कहीं हमेशा के लिए बस गया। वे मुंहफट थे,
जि़द्दी
थे,
अटपटे
थे लेकिन जीवन और अपार प्रेम से भरे। मेरे साथ रहते हुए उन्होंने कविता की बातचीत
कम की…ख़ुद की कविता की तो बिलकुल नहीं। वाचस्पति जी ने दो-तीन बार उनके सम्मान
में जो काव्यगोष्ठियाँ आयोजित कीं, उनका आनन्द
बाबा ने अपने हिसाब से लिया। इन गोष्ठियों में स्थानीय तुक्कड़ और हास्य के नाम हद
दर्जे़ की फूहड़ता परोसने वाले लोग होते थे जिन्हें किसी हाल में कवि नहीं कहा जा
सकता। कवि वहाँ दो होते थे- बल्लीसिंह चीमा और हरि मौर्य… एक बार मुरादाबाद से
नवगीतकार श्री माहेश्वर तिवारी आए, जिन्हें
सुनना अच्छा लगा। बाबा मौज में होते थे और अपनी बेतरतीब खिचड़ी मूंछों में मुस्कान
बिखरते। एक बार ऐसी ही गोष्ठी से कुछ पहले बाबा ने अपने झोले से सीताकान्त
महापात्र की कविताओं का हिंदी संकलन निकाला और मुझे कहा जल्दी से पढ़ जाओ। यह 92
या 93
की बात है। मैंने उसे उलटाया-पलटाया और भगवान को धिक्कारती एक कविता पर रुक गया…बाबा को वह पेज
दिखाया….बोले – बिलकुल सही जगह पकड़े हो कविता को …किताब अपने पास रखो और पेज
नंबर भी याद रखो। गोष्ठी शुरू हुई और किसी फार्म हाउस की मालकिन एक महिला ने
सरस्वती वंदना प्रस्तुत की। कुछ और लोगों की वाणी गूंजी फिर अचानक बीच राह में
बाबा कड़के – यह कविता है? कविता की
ऐसी तैसी हो रही है! फिर बोले ये जो कोने में लड़का बैठा है न हरि जी का सुपुत्र
यह आपको बताएगा कि कविता क्या होती है। मैं अचकचाया। सारे लोगों की कुपित दृष्टि
मुझ पर मानो मैंने बाबा को भड़का दिया हो। एक-दो बार थूक गटक कर मैंने बाबा को
देखा,
उनका
चेहरा ख़ुराफ़ात करने के बाद किसी शैतान बच्चे-सा खिला हुआ….वैसी ही मुस्कान।
मैं समझ गया। मैंने काँपते हाथों से वह किताब खोली और उस कविता का पाठ करना शुरू
किया। शुरूआती भर्राहट के बाद स्वर भी स्थिर हो गया। यह मेरे जीवन का पहला
कवितापाठ था और आश्चर्यजनक रूप से कामयाब भी…पीछे बाबा की मुस्कान टूटे-अधटूटे
गँदले दाँतों वाली….कहती हुई ….अजी घिन तो नहीं आती? अजी
बुरा तो नहीं लगता?
मैंने
कविताएँ लिखीं…95 में कथ्यरूप से पहला संकलन एक
पुस्तिका के रूप में आया…तब तक बाबा का काशीपुर-रामनगर आना छूट गया था। पता लगा
कि बाबा के बड़े पुत्र को उनकी ऐसी यात्राएँ नहीं भातीं थीं। मैं दिल्ली गया पर
अपनी पुस्तिका उन्हें नहीं दी। वे कभी ठीक से नहीं जान पाए कि शिरीष कविता लिखता
है। मैंने अपनी पुस्तिका त्रिलोचन जी, कृषक जी,
सलिल
जी सहित कई कवियों को दी पर बाबा को देने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। बाबा कहते थे
नए कवि अपनी कविताएँ लेकर प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया और अन्यथा प्रोत्साहन की
आकांक्षा में पुराने कवियों की तरफ भागते हैं जबकि कविताओं को जनता के बीच जाना
चाहिए। जनता ही किसी को कवि बना सकती है, कोई
पुराना कवि या आलोचक नहीं। मेरी कभी हिम्मत नहीं हुई कि मैं बाबा को अपनी कविताएँ
दिखाऊँ। मेरी यह कायरता दरअसल उस छोटे-से कमज़ोर शरीर के भीतर मौजूद हिंदी की
महाकाय और महान कविता के प्रति मेरा प्रेम और आदर था और हमेशा रहेगा। मुझे ख़ुशी
है कि बाबा ने मुझे एक राजनैतिक कार्यकर्ता और उत्साही नौजवान के रूप जाना और अपना
प्यार दिया। वह बीहड़ व्यक्ति और कवि मेरी साहित्यिक ही नहीं,
व्यक्तिगत
और निजी स्मृतियों का भी वासी है, यह बात
मुझे उपलब्धि की तरह लगती है और सुक़ून देती है। यह संस्मरणनुमा थोड़ा-सा लेखाजोखा
भी उसी का एक छोटा-सा अंश है, बहुत कुछ
बताना-कहना अभी शेष रह गया है, ठीक मेरी
ऊटपटांग कविताओं की तरह!
पुरखों
की ये कोहराम मचाती यादें इसी तरह धीरे-धीरे व्यक्त होंगी।
***
यात्री
की कविता
यह
क्षार-अम्ल, दाहक विगलनकारी
मैं
अपनी शुरूआती पढ़त में जिन कविताओं को नागार्जुन की समझता रहा,
बाद की पढ़त में वे यात्री की निकलीं। इस नाते मैंने तय किया है कि बाबा के इस
चिरसंगी कवि की उन्हीं प्रिय कविताओं में से पांच को नाभिक बनाकर अपनी इस लिखत के
दूसरे खंड को पूरा करूंगा।
***
1
मिथिला
बाबा का अपना अंचल है पर यात्री की ये कविताएं आंचलिक नहीं हैं। इनमें बोली-बानी
की भाषिक सुन्दरता और शक्ति है, जो मैथिली
से हिन्दी रूपान्तरण में कहीं नष्ट नहीं होती। बाबा कई भाषाओं के आधिकारिक
विद्वान थे पर त्रिलोचन की तरह इस मामले में उन्होंने किन्हीं किंवदंतियों जन्म
नहीं दिया – यही नहीं, जिन चंद भाषाओं से अधिक आत्मीयता
अनुभव की उनमें कविता भी लिखी। मैथिली तो उनकी मां-बोली ही है। बाबा ने संस्कृत
में पारम्परिक और आधुनिक कई कविताएं लिखी पर उनमें से अधिकांश उपलब्ध नहीं हैं,
जो बच गईं वे रचनावली में संकलित हैं। बांग्ला से बाबा का गहरा लगाव रहा और अपनी
इस प्रिय भाषा में उन्होंने महत्वपूर्ण कविताएं लिखीं। इन सभी कविताओं में
मैथिली की कविताएं हिन्दी कविताओं में बहुत हद तक घुल-मिल गईं और अधिकांश आरम्भिक
पाठक उनमें फ़र्क़ अनुभव नहीं कर पाते। बहरहाल मैं उस पहली कविता पर आता हूं,
जिसने मुझे कविता के विज्ञान और तर्क संसार की समझ दी। यह भी सोचें कि यह समझ किसी
विज्ञान स्नातक भारी-भरकम भारोपीय अज्ञेय कवि से नहीं,
एक फक्कड़ यायावर और कई लोगों द्वारा बहुत समय तक लगभग अराजक गंवार समझे गए कवि
की ओर से आयी –
क्षार
अम्ल
विगलनकारी,
दाहक
रेचक,
उर्वरक…
रिक्शावाले
की पीठ पर तार-तार बनियाइन
पसीने
के अधिकांश गुण-धर्म को
कर
रही है प्रमाणित
मेरा
मन करता है
विज्ञान
के किसी छात्र से जाकर पूछूं
अधिक-अधिक
से क्या सब होता है
पसीने
का गुण-धर्म ?
रिक्शावाले
की पीठ की चमड़ी
और
कितनी शुष्क-श्याम होगी ?
स्नायुतंत्र
की ऊर्जा और कितनी पिघलेगी ?
इस
नरवाहन की प्राणशक्ति और कितनी पकेगी ?
और
कितना ….
क्षार-अम्ल,
दाहक विगलनकारी
(पसेनाक
गुण-धर्म/पसीने का गुण-धर्म, पत्रहीन
नग्न गाछ)
संयोग
ही था कि जब बाबा से मेरी संगत बढ़ी मैं विज्ञान स्नातक का ही छात्र था और बाबा
ने यह कविता सुनाकर मुझे बेदर्दी से घेरा। रसायन विज्ञान के अनुसार पसीना क्षार है
लेकिन यह भी तय है कि जितना क्षार शरीर से निकलेगा,
शरीर में अम्लीयता बढ़ेगी। तो इस तरह वाकई क्षार-अम्ल दोनों पसीने के गुर्ण-धर्म
में शामिल हुए लेकिन कविता पसीने के बारे में नहीं है –वह इस बारे में है कि यह
पसीना किसका है और क्यों है। इस पसीने के गुण-धर्म की असल परीक्षा रिक्शावाले की
पीठ पर है। कवि चेहरे की बात नहीं करता, कविता में
विवरण की बारीक़ी का यह आलम कि दरअसल यह पीठ ही है जो रिक्शा की सवारी को दिखती
है,
चेहरा नहीं। पीठ की चमड़ी का शुष्क-श्याम होते जाना वर्षों की मेहनत और संताप का
सख़्त निशान है, जिसके गहराते जाने के बारे में कवि
के सवाल का उत्तर मैं नहीं जानता, शायद कोई
नहीं जानता और सबसे ख़ास बात यह कि सवाल ख़ुद कोई उत्तर नहीं चाहता – इसका यही
आदर्श उत्तर हो सकता है कि हालात ऐसे हो जाएं कि यह सवाल ही न बने। उस नरवाहन के
स्नायुतंत्र की लगातार पिघलती ऊर्जा और पकती प्राणशक्ति के बौखला देने वाले बिम्ब
बनाता वह क्षार-अम्ल, दाहक विगलनकारी कब तक बहता रहेगा
का प्रश्न बिना कोई नारा लगाए, न अधिक
शोर मचाए साम्यवादी वैचारिकी में उतर जाता है। पसीने के गुण-धर्म की बात संसार
में वर्गभेद और अन्याय के मूल प्रश्नों में बदल जाती है और यही कविता की वह कला
है,
जिसमें बाबा का जोड़ नहीं। दुनिया का महान लेखन किस तरह आपस में जुड़ता है ,यह
मैंने बाद में निकोलाई ओस्त्रोवस्की के विख्यात उपन्यास व्हेन दि
स्टील वाज़ टेम्पर्ड पढ़ते हुए जाना,
जहां इस कविता के दाहक विगलनकारी प्रसंग की याद भी लगातार मेरे साथ बनी रही।
***
2
शिशु
कंकाल
तरुण
कंकाल
वृद्ध
कंकाल
कंकाल
वृद्धाओं के
कंकाल
तरुणियों के
कंकाल
नन्हीं बच्चियों के
साफ़
चमड़ीवाले कंकाल
काली
चमड़ीवाले कंकाल
पांडुश्याम
चमड़ीवाले कंकाल
घूमते-टहलते
कंकाल
चलते-फिरते
कंकाल
लेटे
कंकाल
खड़े
कंकाल
सोए
कंकाल
जगे
कंकाल
सूखे
स्तन वाले कंकाल
छंटुआ
गर्भ वाले कंकाल
मालगाड़ी
वाली साइडिंग की ओर
लाइन
के दोनों किनारे
अंजुरी-अंजुरी
भर,
मुट्ठी-मुट्ठी भर
दाना
मिश्रित धूल उठाते कंकाल
सप्लाई
विभाग के चपरासी की नज़र थाहते कंकाल
दो-दो प्लेटफार्म आमने-सामने फंलागते
पांचेक
कुलियों का
तनिक-सा
मात्सर्य, रत्तीभर सहानुभूति
अनायास
हासिल करते कंकाल
ज्येष्ठ
की दुपहरी में जलते कंकाल
गया
की तरफ़ का कोई ब्राडगेज स्टेशन
क्या
रहा होगा नाम ?
अनुग्रह
नारायण रोड !
या
फिर गुरारू ! या फिर तो क्या
लेकिन
अभी तो शेष बच रहा है
वहां
की स्मृति के खाते में
कंकाल
ही कंकाल
कंकाल
ही कंकाल
(कंकाले-कंकाल/कंकाल
ही कंकाल,
पत्रहीन नग्न गाछ)
हिन्दी
में अल्पज्ञात यह एक महान कविता है यात्री की। कंकालों की हूक को चांपकर खड़ी हो
जाने वाली शासन की बंदूक वाला दोहा हम हिन्दी वालों को याद है। अकाल और उसके
बाद के दो सधे हुए चित्र प्रस्तुत करने वाली कविता तो ख़ासी प्रसिद्ध है।
कंकालों की इस कविता में कोई उत्तरकाल नहीं है। कंकालों की स्मृति को अपने भीतर
गुंजाते हुए दोहराने वाली इस कविता का बेसम्भाल शिल्प किसी उत्तरकाल की अपेक्षा
भी नहीं रखता। मैं उत्सुक हूं यह जानने के लिए क्या दुनिया की किसी भाषा में इस
तरह की कोई कविता उपलब्ध है? शायद
इथोपिया-सोमालिया जैसे अफ्रीकी देशों में किसी जनकवि ने कुछ लिखा हो। वामिक
जौनपुरी ने बंगाल के अकाल पर नज़्म लिखी थी पर वह छंद में और हावी होते नारे में
व्यर्थ-सी हो गई। ये कंकाल तो किसी और ही अकाल के बनाए कंकाल हैं। यह भूगोल गया
के पास का छोटा-सा भूभाग भर है और वहां मनुष्यों की इस दुर्दशा को देखकर लगता है
कि बाक़ी देश-समाज शायद मर चुका है। जाहिर है कि इन कंकालों का समकाल सर्वव्यापी
कंकालों का समय नहीं है – यह तो इनका अपना कंकाल-समय है। इस कंकाल-समय को किसने
बनाया यह प्रश्न कविता में न पूछा जाकर भी इस कविता सबसे बड़ा प्रश्न है,
जो इन कंकालों की हूक को साध कर बार-बार हमारे आगे खड़ा हो जाता है। कुलियों में
तनिक-सा मात्सर्य और रत्तीभर सहानुभूति वर्गबोध की थोड़ी-सी आंच का पता देती है
लेकिन वह पर्याप्त नहीं। देश में बड़े-बड़े किसान-आंदोलन वर्गबोध की पूरी आंच न मिल
पाने के कारण स्खलित हो गए, यह तो रत्तीभर
का मामला है। यात्री ने अपनी इस छोटी-सी (कविता)यात्रा में इस बड़ी सच्चाई से
पर्दा उठाया है,
जिसे अब तक दूसरे तो छोड़ दीजिए, हमारे
साम्यवादी दल तक ठीक से पकड़ नहीं पाए।
इस कंकाल-समय की जिम्मेदारी वर्गशत्रुओं तक सीमित नहीं,
वर्गमित्र भी इसके दायरे में आते हैं। नागार्जुन ने अपने जीवन काल में कविता से
इतर कई बार इन प्रश्नों को उठाया लेकिन अब वे निरुत्तरित ही संसार से जा चुके
हैं।
***
3
तीसरी
कविता भी हिन्दी के लिए अल्पज्ञात है लेकिन 2013 वर्ष इस के समापन काल में इसकी
प्रासंगिकता अनुभव करने की बात है और इसका महत्व तो हमारे देश की राजनीतिक
आपाधापी में हमेशा प्रमाणित रहेगा। नाम है – देशदशाष्टक। हाल ही में
गुजरात में सरदार पटेल की मूर्ति-स्थापना को लेकर राजनीति में एक नई कुकुरहाव
शुरू हुई है। यह कविता उस समय का दस्तावेज़ है,
जब नेहरू और पटेल दोनों जीवित थे। आज का मसला रा.एस.एस. और मोदी द्वारा पटेल को
हाईजैक करने का है। आधुनिक इतिहास भारत के इतिहास से परिचित जन जानते हैं
कि नेहरू समाजवादी विचार के हामी थे और पटेल उसके विरुद्ध। नेहरू मंत्रीमंडल में
पटेल को चुनौती देने की स्थिति में नेहरू अकसर नहीं रहते थे। इसका यह अर्थ नहीं कि
पटेल आर.एस.एस. के निकट थे। स्थिति इससे उलट ही थी,
वे गांधी जी की हत्या के बाद आर.एस.एस. की राजनीति पर पूरी सख़्ती के साथ अंकुश
लगाकर उसे सांस्कृतिक संगठन की भूमिका तक सीमित कर चुके थे। यह एक निकट का
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है, जिसके तथ्य
प्रमाणित हैं और दस्तावेज़ों में सुरक्षित भी हैं। यात्री की इस कविता पहला खंड
उस समय में इन दोनों राजनेताओं की स्थिति पर रोशनी डालता है –
फैल
गए हैं नेताओं के सूंड़
बूढ़े
जर्जर हो गए जवाहर
प्रभु
पटेल हैं सर्वशक्तिसम्पन्न
तब
भी कितना रुला रहे चीनी की ख़ातिर
(पत्रहीन
नग्न गाछ)
जवाहर
आयु में पटेल से कुछ पांच–छह बरस
छोटे थे फिर यह उलट स्थिति क्यों….जाहिर है कि बात शरीर की नहीं राजनैतिक क़द
और शक्ति की हो रही है। नेहरू का समाजवाद क्षीण हुआ और पटेल की वह राष्ट्रवादी
भावना बलवती हुई, जिसके परम कट्टर रूप की स्थापना
आर.एस.एस. में है। यह कविता दरअसल बढ़ती मंहगाई और उसकी मार से पस्त जनता के बारे
में है। गृहमंत्री पटेल के नियंत्रण में कितना कुछ था,
इस बारे में कविता का बयान साफ़ है। यात्री ने उस वक़्त में
कारपोरेट-राजनीति-नौकरशाही के कुटिल गठजोड़ को भी बख़ूबी पहचाना था –
बनिए-लीडर-अफ़सर
तीन त्रिमूर्ति
कर
रहे अपनी मनोरथ पूर्ति
अपने
हित में सब करते हैं औरों के लिए झांसा
रोते
फटे कलेजा जैसे देने हेतु दिलासा
(पत्रहीन नग्न गाछ)
मैथिली
का सधा हुआ छंद यहां हिन्दी रूपान्तर में गड़बड़ा गया है पर हमें ध्यान देना है
कही गई बात पर,
यों भी यह कविता काव्यकला की सिद्धि के निमित्त नहीं लिखी गई है। बहुत बड़े
कारपोरेट घराने तब दो ही थे – टाटा और बिड़ला,
ये दोनों ही हमेशा नागार्जुन की कविता की ज़द में रहे। स्यवं नेहरू को उनके साथ
गठजोड़ में भागीदार पाया गया शायद इसीलिए उनका समाजवादी स्वप्न उनकी मृत्यु से
बहुत पहले ही बिला गया।
***
4
पुराने
गाछ का एकमात्र यह पूरा कटहल
फला
सहज ही प्रकृति के प्रताप से
जुआया
सहज ही प्रकृति के प्रताप से
पका
सहज ही प्रकृति के प्रताप से
गिरा
उसी तरह
उसी
तरह उपलब्ध हुआ हम लोगों को
(पाकल
आछि ई कटहर/पका है यह कटहल, पत्रहीन
नग्न गाछ)
यह
कविता हिन्दी में बहुज्ञात है। कटहल जैसे खुरदुरे फल पर कविता लिखना उतना ही
खुरदुरा काम हो सकता था पर यात्री ने इसे भरपूर महक और लहक के साथ लिखा। प्रकृति
के प्रताप का बहुल्लेख देखकर कोई अनाड़ी सहयात्री हमारे पुरनिया यात्री को कोरा
प्रकृतिवादी न समझ बैठे इसलिए मैंने सबसे पहले यही अंश उद्धृत किया है। सहज पर
कबीर ने बल दिया और बाद में एक ही पीढ़ी के त्रिलोचन और नागार्जुन ने….नागार्जुन
ने किसी के लिए असहज लगते को भी अकसर सहज ही बना दिया है। कटहल को शहराती जन सब्ज़ी
के रूप में खाते हैं लेकिन ग्रामीण जन पके कटहल का फलरूपी स्वाद भी ख़ूब जानते
हैं। बाटनिक्ली भी कटहल फल ही है। पके कटहल की सुगंध लोकजीवन और लोकउपलब्धियों की
सुगंध है। उसके सहज गिरने और सहज ही लोगों को उपलब्ध होने में कवि की सहज-समाधि
भी भरपूर समझ आती है। कविता आगे रोचक होती जाती है –
महाकाली
का यह अपूर्व प्रसाद
शताब्दी
के बाद ही मिलता है लोगों को
आओ,
आओ,
अजी ओ फलां
शुचिभाव
से ग्रहण करो प्रसाद
कान
को होने दो पवित्र
प्रसाद-ग्रहण
करते ही सुनने में आएगा
एक
अद्भुत,
एक अश्रुतपूर्व मंत्र…
‘अकाली…
काली…
कंकाली…
महाकाली…
विकाली…
सकाली…
ला
रे अभागे
बढ़ा
अपनी गरदन
पड़ने
दे उस पर
मेरी
कता,
मेरी भुजाली
इधर
देख,
इधर देख,
करम-हीन
कहां
देखा होगा यह रूप मुंडमाली
क्लीं
क्लीं क्लूं क्लूं
ऐं
ह्वीं हूं आं हों
खच्
खच् खच् खचाक्
(वही)
प्रसंग
कटहल के बंटवारे का है और लगता है कि यहां यात्री का खिलंदड़ा मौजी स्वभाव उभर कर
आ रहा है। यह खेल तो है पर बेहद गम्भीर अभिप्रायों वाला खेल। यह पुराने गाछ का
एकमात्र पूरा कटहल है जो लोगों की क्षुधापूर्ति के निमित्त सहज ही गिरा और उपलब्ध
हुआ है। यह घटना जैसी नहीं लगने वाली एक बड़ी घटना है। जिस देशकाल में यह घटी है,
उसने इसे बड़ा बनाया है। असहज स्थितियों में पूर्ण सहजता सिद्ध कर लेने वाले
यात्री ने इस देशकाल को कविता के उत्तरार्द्ध में प्रकट किया है-
अजी
ओ फलां,
डर कर भाग नहीं जाना आप
आजकल
वह मंत्र काम कहां करता है
उलट
गया है अर्थ
आओ,
आओ,
लो माता का प्रसाद
अकाल
का प्रसाद
दुर्भिक्ष
का प्रसाद
इसी
तरह किया था प्राप्त
दादा
के दादा के दादा, नाना के
नाना के नाना ने
….
अमरीका
का दलिया, कनाडा का दुद्धी पाउडर
न
जाने,
कहां-कहां का स्वाद
समेटे
है अपने भीतर
(वही)
यहां
तक आते-आते यात्री आपको कटहल के गाछ के नीचे से लाकर अंतर्राष्ट्रीय कुचक्रों के
बीच कहीं खड़ा कर देते हैं, जहां पीढ़ियों
से अकाल और दुर्भिक्ष के दिन हैं। यात्री की कविता-कला,
एक पूर्णबिद्ध राजनैतिक कला है, इसे इसकी
सहजता के साथ पाना किसी भी कवि के लिए एक दुर्लभ सिद्धि होगी।
***
5
मैंने
चार कविताएं लीं जिनका स्वर राजनैतिक है। पांचवी और अंतिम कविता अलग है। यह हिन्दी
में ख़ूब पढ़ी और सराही गई है। लम्बी कविता है इसलिए कुछ अंश देते हुए उन पर बात
करनी होगी,
पूरी कविता देना सम्भव नहीं। प्रसंग यात्री के अपने गांव तरौनी का है –
कच्ची
सड़क पर
देखा
पास-पास छोटे-छोटे मंदिरों का एक जोड़ा
पूछा
एक घसियारिन से
अरी
ओ किसने बनवाया है
बीच
परती-पांतर में यह जोड़ा मंदिर
(जोड़ा
मंदिर,
पत्रहीन नग्न गाछ)
यह
गांव के राउत (पिछड़ी जाति) के बूढ़ा-बूढ़ी (भोकर राउत-मुंगिया माई) का मंदिर है,
जिसे उनके बेटे सरजुगी राउत ने बनवाया है। इस मंदिर जोड़े के होने में कुछ ख़ास
अभिप्राय हैं। एक तो साधारण (उस पर पिछड़े) मनुष्यों की स्मृति में मंदिर एक
अनहोना स्थापत्य है, जो वर्ण से लेकर ईश्वर तक के कई
परम्परागत स्थापत्यों को चुनौती देता है।
पहले
देखें कि यह जोड़ा मंदिर बना किन संसाधनों से –
पतली
मूंछोंवाला सांवला ग्रामीण युवक
सरजुग
राउत
बोला
निरभिमान स्वर में –
अपने ही हाथों बूढ़े ने पिछले वर्ष
लगाया था पांच कट्ठे में गन्ना
इसी में से पांच-एक सौ
लगा दिए उनके नाम पर
माह भर के भीतर ही दोनों जनों ने मूंद ली आंखें
(वही)
हमारे
आसपास जिस तरह धार्मिक मंदिर बनते हैं, सब जानते
हैं कि उनके लिए कितना चंदा, कितने
धत्कर्म होते हैं। यह उस श्रमसरूप बूढ़े का ही अर्जन था,
जिसे उसके बेटे ने इस तरह की विरासत में बदल लिया कि वह मंदिर रूप में साकार हो
पाया। पाठक मंदिर शब्द के भ्रम में आ जाएं,
इसकी कोई गुंजाइश यह कविता नहीं छोड़ती – यह लोकजगत के अपने विरल स्वर में श्रम
की स्थापना है और प्रेम की –
हमारे
बूढ़े-बूढ़ी में रहा करता था हद से ज़्यादा मेल
वैसा
नहीं देखा होगा किसी ने कहीं
सो
हम और आप भी गवाह
सभी
को है पता अच्छी तरह से
हमारे
बूढ़े-बूढ़ी के बीच कहां कभी हुआ झगड़ा-तकरार
हमारे
बूढ़े-बूढ़ी के बीच कहां कभी रहा मनमुटाव
कहावत
भी है कि एक प्राण, दो देह
बिलकुल
उसी का नमूना रहे हमारे बूढ़े-बूढ़ी
इसी
कारण सूझी यह बात
बना
दिया जोड़ा मंदिर
(वही)
इस
जोड़ा मंदिर के बनने में किसी भी पौराणिक-मिथकीय श्रद्धा का न हेतु है, न प्रयोजन। एक दीर्घ दाम्पत्य दो जनों ने
हाड़तोड़ मेहनत में खटते हुए जिया और क़दर जिया कि बेटे की स्मृति में यह प्रेम
और श्रम,
दोनों ही सदियों के जमे संस्कारों की परतें साफ़ करते हुए सर्वोच्च स्थान पर जा
बैठे। इस मंदिर जोड़े को देख यही कुछ यात्री के मन में भी हुआ।
बाबा
ने हमेशा लोक के उपकरणों को कविता में लिया लेकिन उन्हें अपनी धार देते हुए
जनसंघर्षों की अभिव्यक्ति के औज़ारों में बदल दिया। काश हमारे आज के कुछ सायास ‘लोकवादी’
बने कवि इसका कुछ अंश भी कर दिखाते तो वंश नहीं बूड़ता….हालांकि नागार्जुन
विरासत उनके पास नहीं, कविता में गद्य लिखने को आरोप की
तरह सहने वाले दूसरे युवा राजनैतिक कवियों के पास अधिक है – जहां उसे पूरा सम्मान
मिलता है।
अंत
में अपनी भी कहूं तो श्रम और प्रेम की यह सम्मिलित महत्ता ही मेरे लिए मेरी
राजनैतिक विचारधारा है। मैं बिना हिचक के कहूंगा कि विचार मैंने पहले साहित्य से
सीखा और फिर सैद्धान्तिक किताबों में उसे पढ़ा। ऐसे ही पूर्वजों की किताबों से
गुज़रते हुए मैं अपनी राजनैतिक और साहित्यिक समझ के बारे में कम से कम इतना तो कह
ही सकता हूं कि वह ग़लत किताबों की संतान नहीं है।
***