विचित्र लेकिन बहुत सुन्दर है
आज की, अभी की हिंदी कविता का युवा
संसार। कितनी तरह की आवाज़ें हैं इसमें, कितने रंग-रूप, कितने चेहरे, अपार और विकट अनुभव, उतनी ही अपार-विकट अभिव्यक्तियां। इस संसार का सबसे बड़ा सौन्दर्य
यही है कि यह बनता हुआ संसार है, इसमें निर्मितियों की अकूत सम्भावनाएं हैं। यहां गति है, कुछ भी रुका-थमा नहीं है। यह
टूटे और छूटे हुए को जोड़ रही है। इसमें पीछे खड़े संसार के प्रभाव कम, अपने अनुभवों पर यक़ीन ज़्यादा
है। विपिन चौधरी की कविताएं इस दृश्य की लिखित प्रमाण हैं।
विपिन का नाम एक अरसे
पढ़ा-सुना जा रहा लेकिन इस नाम परिचित होने के क्रम में बहुत चमकदार पुरस्कार या
ऐसा कोई मान्यताप्रदायी प्रसंग नहीं है। उन्हें किसी बड़े नाम ने ऊंचा नहीं
उठाया है, विपिन ने अपना नाम ख़ुद की
मेहनत और अनिवार्य धैर्य के साथ स्थापित किया है। एक बहुत ख़ास कोण है विपिन की
कविता का कि वे प्रचलित, ऊबाऊ और अधकचरे स्त्री विमर्श की अभिव्यक्ति भूले से भी नहीं
करती – वे अपनी कविताओं में डिस्कोर्स करती नज़र नहीं आतीं, वे बहस छेड़ती हैं। सीधी टक्कर
में उतरती हैं। अभी के भारतीय समाज (उसमें हरियाणा जैसे समाज) में गहरे तक व्याप्त
सामंतवाद और खाप-परम्पराओं से लड़ती हैं। ये सजगता का निषेध और पीछे छोड़ दी गई
सहजता का स्वागत करती कविताएं हैं। डिस्कोर्स के छिछले और उथलेपन के बरअक्स
यहां गहरे ज़ख़्मों को कुरदने का साहस है। कविता में निजी लगने वाली पर दरअसल जनता के पक्ष में निरन्तर जारी रहनेवाली इस लड़ाई का अपना एक
अलग सौन्दर्यशास्त्र है।
***
1. पुलिया पर मोची
यह पुलिया जाने कब से है
यहाँ
और पीपल के नीचे बैठा यह मोची भी
न पेड की उम्र से
मोची की उम्र का पता चलता है
न मोची की उम्र से पेड का
और न पानी की गति का
बिना लाग लपेट पुल के नीचें बहता है
और पीपल के नीचे बैठा यह मोची भी
न पेड की उम्र से
मोची की उम्र का पता चलता है
न मोची की उम्र से पेड का
और न पानी की गति का
बिना लाग लपेट पुल के नीचें बहता है
जब बचपन में इस पुलिया के
ऊपर से गुजरते हुये
चलते-चलते थक जाने पर
माँ की गोदी के लिये मचलती थी
और इस पुलिया में अपनी परछाई
देख खुश होती थी
तब भी यह मोची
चलते-चलते थक जाने पर
माँ की गोदी के लिये मचलती थी
और इस पुलिया में अपनी परछाई
देख खुश होती थी
तब भी यह मोची
इसी पुल पर
जूते गाठंता दिखता था
तब पुलिया और मोची का
इतना आकर्षण नहीं था
बचपन तो कई दूसरी ही चीजों
के लिये बना है
इतना आकर्षण नहीं था
बचपन तो कई दूसरी ही चीजों
के लिये बना है
उसके कुछ वर्षो के बाद
कालेज जाने का एकमात्र रास्ता भी
इसी पुलिया से होकर गुजरा
तब जीवन की बारीकियों के बीच
मोची से मानवीयता के तार जुडे
कालेज जाने का एकमात्र रास्ता भी
इसी पुलिया से होकर गुजरा
तब जीवन की बारीकियों के बीच
मोची से मानवीयता के तार जुडे
तो सोचा
क्या यह मोची गरदन झुकाये
इसी तरह बैठे रहने के लिये जनमा है
क्या यह मोची गरदन झुकाये
इसी तरह बैठे रहने के लिये जनमा है
दुनिया की यात्राऐं कभी
खतम नहीं होती
पर यह मोची तो मानों कभी कदम भर भी
न चला हो जैसे
पर यह मोची तो मानों कभी कदम भर भी
न चला हो जैसे
अब जब
दुनियादारी में सेंध लगाने
की उम्र में आ चुकी हूँ
आज भी पुलिया और मोची दोनों वहीं मौजुद है
अपने पूरी तरह रुई हो चुके बालों के साथ
दुनियादारी में सेंध लगाने
की उम्र में आ चुकी हूँ
आज भी पुलिया और मोची दोनों वहीं मौजुद है
अपने पूरी तरह रुई हो चुके बालों के साथ
बचपन से अब तक
उम्र के साथ–साथ
आधुनिकता ने लम्बा सफर तय किया है
पर इस मोची के पास तो वही
बरसों पुरानी
काली, भूरी पालिश
चमडे के कुछ टुक्डे और
कई छोटे–बडे बुश और
सिर पर घनी छाया है
जो थोडी झड गयी है और
पुल का पानी जरुर कुछ कम हो गया है
पर जिदंगी का पानी
आज भी उस मोची के
भीतर से कम हुआ नहीं दिखता
उम्र के साथ–साथ
आधुनिकता ने लम्बा सफर तय किया है
पर इस मोची के पास तो वही
बरसों पुरानी
काली, भूरी पालिश
चमडे के कुछ टुक्डे और
कई छोटे–बडे बुश और
सिर पर घनी छाया है
जो थोडी झड गयी है और
पुल का पानी जरुर कुछ कम हो गया है
पर जिदंगी का पानी
आज भी उस मोची के
भीतर से कम हुआ नहीं दिखता
शहर का सबसे सिद्धहस्त मोची
होने का
अहसास तनिक भी नहीं है उसे
हजारों कारीगरों की तरह ही
उसके हुनर को कोई पदक
नहीं मिला
अहसास तनिक भी नहीं है उसे
हजारों कारीगरों की तरह ही
उसके हुनर को कोई पदक
नहीं मिला
कई लोग तो यह भी सोच
सकते हैं
फटे जूतों को सीने का
यह कैसा हुनर
यह कैसा हुनर
यही लोग भीतर ही भीतर
जानते है
फटे जुतों के साथ चलना
उनके बस में नहीं है
यह बात अलग है कि
वे अब डयूरेबल जूतें पहनने लगे हैं
फटे जुतों के साथ चलना
उनके बस में नहीं है
यह बात अलग है कि
वे अब डयूरेबल जूतें पहनने लगे हैं
यह मोची, पीपल, पुलिया और बहते हुये पानी के
तिलिस्म की कविता नहीं है
यह सच्चाई है
जो केवल और केवल
कविता की मिटटी में ही
मौजूद है
यह आज की नहीं
हमेशा की जरुरत है कि
पुल भी रहना चाहियें
मोची भी
पेड के नीचें बहता पानी भी
जिसमें अब कोई छवि पहले
की तरह साफ नजर नहीं आयेगी
***
2. सलामत भाई
जानवरों की जमात में सबसे
शरारती प्राणी को नचाना जानते हो तुम
कितना हुनर है तुम्हारे हाथों में
शरारती प्राणी को नचाना जानते हो तुम
कितना हुनर है तुम्हारे हाथों में
सलामत भाई
तुम्हारे कहने पर बंदर टोपी पहन लेता है
आँखे छपकाता
कलाबातियाँ खाता है
झट से आकर तुम्हारी गोद में बैठ जाता है
एक जानवर से तुम्हारा रिश्ता
अजीब सी ठंडक देता है
तुम्हारे कहने पर बंदर टोपी पहन लेता है
आँखे छपकाता
कलाबातियाँ खाता है
झट से आकर तुम्हारी गोद में बैठ जाता है
एक जानवर से तुम्हारा रिश्ता
अजीब सी ठंडक देता है
ज़रा, हमारी ओर देखो
और तुम ओर तुम्हारा बंदर दोनों
तरस खाओ
और तुम ओर तुम्हारा बंदर दोनों
तरस खाओ
हमारे अगल बगल जितने लोग
खङे हैं
उनमें से किसी से भी
हमारा मन नहीं जुङता
उनमें से किसी से भी
हमारा मन नहीं जुङता
गर्म देश के
बेहद ठंडे इंसान हैं हम
सलामत भाई
बेहद ठंडे इंसान हैं हम
सलामत भाई
तुम जानते नहीं
हमारे पास
शोक मनाने तक का वक्त भी नही है
तुम अपनी गढी हुई दुनिया से
नंगे पाँव चलकर
आते हो और तमाशा
समेट कर वापिस लौट जाते हो
हमें पहले से बनी हुई
रेडिमेड दुनिया में ही जीना मरना है
हमारी ईष्या लगातार
बढती ही जा रही है
तुम्हारे कलंदर का करतब देखते
हँसते–हँसते
हम अचानक तुम पर गुस्सा
हो उठेंगे और कहेंगे
हमनें नाहक ही वक्त बर्बाद किया
यह भी कोई खेल है
यह मदारी तो हमें
बेवकूफ बना कर पैसे एंठने जानता है बस
हमारे पास
शोक मनाने तक का वक्त भी नही है
तुम अपनी गढी हुई दुनिया से
नंगे पाँव चलकर
आते हो और तमाशा
समेट कर वापिस लौट जाते हो
हमें पहले से बनी हुई
रेडिमेड दुनिया में ही जीना मरना है
हमारी ईष्या लगातार
बढती ही जा रही है
तुम्हारे कलंदर का करतब देखते
हँसते–हँसते
हम अचानक तुम पर गुस्सा
हो उठेंगे और कहेंगे
हमनें नाहक ही वक्त बर्बाद किया
यह भी कोई खेल है
यह मदारी तो हमें
बेवकूफ बना कर पैसे एंठने जानता है बस
***
3. प्रेम के लिए माकूल तैयारी
प्रेम जितना मथ सकता था मुझे
उतना ही उसने मुझें मथा तब
उतना ही उसने मुझें मथा तब
सारी हलकी चीजें नीचे छूटती
गयी
मक्खन की तरह ऊपर इक्कठा
होती गयी मैं
तब सुख -दुःख ने मिलकर
इस तरह चौका आसन बिछाया
कि मेरी जीती जागती समाधी
खुद ब खुद तैयार
हो गयी
अब मैं
पेड़ के उस मोटे तने के भीतर भी
पेड़ के उस मोटे तने के भीतर भी
प्रेम के विस्तार को
निसंकोच देख सकती थी
जो हर साल यादों
का एक घेरा अपने भीतर लपेट लेता था
जितनी
पुरानी याद
उतना गाढ़ा
घेरा
इस तरह धीरे–धीरे ‘प्रेम का वनस्पति–विज्ञान‘ भी मेरी समझ में आने लगा
प्रेम से सामना होते ही
मैं ‘एलिस‘ और
ये समूचा संसार ‘वंडर लैंड‘ में तब्दील हो
गया
मैं ‘दुनियादारी’ का एक पत्ता खाती और बौनी
होती जाती
‘प्रेम’ का दूसरा पत्ता चबाती
तो बौनेपन से सीधे महानता
के ऊँचे आसन पर चढ जाती
मेरे हिस्से में
चार पहरों वाले वही दिन और
रात थे
पर हींग और लहसुन की खुशबू में
जो अंतर समझ
में आता था
वो सिरे से
ही काफूर हो गया
संसार की रेत में
लौटने का पुराना शऊर भूल गयी
मिट्टी के लोंदे की
अनगढता मेरा बाना बन गयी
दिशाओं और मौसमों की परिक्रमा का भान मेरे हाथों से छूटता गया
वो दिन भी
नून–रोटी खा कर निपट गए
जब
फिलिस्तीन सेना की
आवाजाही और
सुनामी की ऊँची
लहरे मेरी छाती पर आ चढती थी
भोपाल त्रासदी की मुआवजे करते लोगों मांगों ने
मेरे कानों पर अतिक्रमण करना छोड दिया
मेरे कानों पर अतिक्रमण करना छोड दिया
टॉम फीलिंग के कैरी
केचर
और अँधेरे की कालिमा अब मुझे शर्मिंदा नहीं करती थी
और अँधेरे की कालिमा अब मुझे शर्मिंदा नहीं करती थी
मुझसे मेरा
स्थायी सिरा ही छूट गया
प्रेम का
स्वभाव दुनिया की छाती पर पाँव रख कर सोचना था
उसकी एक आँख
देखने के लिए
और दूसरी
आंसुओं के
खारे पानी के लिए थी
फिर भी
प्रेम की हर अवस्था में
मैं
चालीस घर पार करने का साहस
कर लिया करती थी
प्रेम ने अपने स्वाभाव के चलते
दुनियादारी की आबो-हवा
से मुझे
बहुत दूर रखा
और अपना उल्लू सीदा करते हुए अपने काफी नजदीक
वायुमंडल के
व्यापत सभी तरह के प्रदूषणों से मुठभेड करता हुआ
प्रेम बिना इजाजत मेरे भीतर
सीधा प्रवेश कर गया
यकीन मानिये
तब तक मैने बिना
पाँव-पंख के,
अशरीरी इस नए
मेहमान के लिये कोई माकूल तैयारी भी नहीं की थी
***
4 . पंडवानी की लय पर
हमने सहर्ष इतिहास
को अपना गवाह
तो बनाया
पर इतिहास हमसे कुछ ज्यादा
ही छिपाता था
उससे अपनी सुविधानुसार
ही मुँह
खोलने की लत लगी थी
जब हमारी जिज्ञासा ने जोर मारा तो
तलाशने निकल पडे
हम
इतिहास की खाद
में जर्जर
मिनारों को खोजने
खोद डाले हमने
हडप्पा में
दबे अवशेष
हमारी राह में
आये भारी–भरकम जीवाश्म
विशाल डायनासोर, जंगली
पेड–पादप
चलते-चलते हम प्यासों ने कई सभ्यताओं का
पानी भी
पिया
कई आकार–प्रकार
के फ्रेम
बनाये
डार्क रूम में
जाकर वहाँ
कुछ तस्वीरे साफ
करने की
भरपूर कोशिशें
की
लेकिन मामला जड़ नहीं जमा सका
हम इतिहास और
वर्तमान के
बीच के
मर्म को
नजदीक
से देखना, समझना
और महसुस
करना चाहते
थे
इतिहास का निरक्षर
ब्यान बिना
किसी हेर
फेर के
सीधे वर्तमान में
उतर आया
जब हमनें
पंडवानी गाती तीजन
की ओर रुख किया
वहाँ हमें तीजन
के चेहरे
पर इतिहास
की तुडी–मुडी सिलवटें
और वर्तमान के
दुख की
तपिश साफ
दिखाई दी
जब एक कलाकार
महज तेरह के
आंकडे से
घूम घूम कर
दुशासन के
कृत्यों का
पाडवों की कायरता
का
द्रोपदी के चीरहरण
का बखान
कर रही
होता है
तो इतिहास हमें
अलग तरीके
से सोचने
पर
विवश करता है
किसी महान व्याख्या
से परे
तीजन की संगीतमयी
कथा सुनते
हुऐ
भीतर घटता है
जो वह
बेहद सीमित दायरे
का मामला
होता है
सुनने वालों के
भीतर एक
तंरग ऊठती
है और
उठकर
दुनियादारी में खो
जाती है
पर अपनी धुरी
पर चक्कर
काटती हुयी
धरती को कोई
फर्क नहीं
पडता
ना ही आज
के दुर्योधन
शर्मसार होते
हैं
तीजन, लंबे और र स्थिर कदमों
के साथ पंडवानी गाती
हैं तो
शर्तिया वह स्वयं भी
यह
समझने की भरपूर
कोशिश करती
है कि
चौसर के
आसपास
बिखरी हुयी पाँडवों
की इस
शौर्य गाथा
का वह स्तर
कैसा है
अपने तीन–तीन
सम्बंधों के
टुटनें का
दर्द
जब कहीं दूर
नहीं जा
सका तो
उसे तीज़न
ने
पंडवानी के सुर–ताल–लय
के आसपास
ही उसे जगह
दे दी
इतिहास और वर्तमान
दोनो तरफ
के दुखों
को आत्मसात
करके वे
अच्छी
तरह समझ गयी
है कि
दुखों से पार
जाने का
उपाय
महाभारत काल में
भी नहीं
था
आज के इस
विवाहित समय
में भी
नहीं है
यह अनायास नहीं
है की
अपने औरत होने
का दर्द
द्रौपती के साथ हुए
अपमान में
सिमट आता
है तब
तीजन की आवाज
और तेज
हो जाती
है
संगतकारों की हओ,
हओ और
तम्बूरा,हरमोनियम,तबल, डमरू
की मीठी आवाज
के साथ
एक महिला
जब घूम–घूम कर
पुरुषों की तथाकथित
परम्पराओं का
पाखँड तोडने
का साहस
करती है
तो इक चिंगारी
का जन्म
होता है
जिन्हें सदियों से पीड़ा सींचती औरत
कहीं से एक
दुसरे से
अलग दिखाई
नहीं पडती
थी
वे अब जान लेते
है कि
औरत की कई
गतियाँ हो
सकती हैं
तीजन का सीना
तान के
ठसक भरी
चाल से
चलना यह
भी जाता देता है कि
दुख का तंग
आँगन भी
हरे भरे बसंत
की सम्भावना
रखता है
इतना खोजनें के
बाद हमें
इतिहास का सच
हमें तीजन की
भाव भंगिमाओं
में मिलता
है
इस सफल पड़ताल
से सबक
ले कर
हम आगे
से
इतिहास की कारगुजारियाँ
वर्तमान के कलाकारों
में ही
ढूँढेगें।
***
5. प्रेम कविता की खोज में
प्रेम कविता लिखने के नाम पर
एक दैत्यनुमा भय मन में घर बना रखा था
“नहीं लिख सकोगी तुम कभी एक मुकम्मिल प्रेम कविता”
यह प्रेम का ही उलहना था या कुछ और ?
यूँ प्रेम
को कविता के सांचे में ढालना
एक आत्मा को
शरीर देने जैसा काम था
पर रचयिता बनने के इस अनोखी दिशा में कभी ध्यान भटका ही नहीं
प्रेम को
तलाशने, तराशने के लिए
कौन–सी वलय रेखा को पकडना है
किस कोण का उलंघन करना है
कौन–सी वलय रेखा को पकडना है
किस कोण का उलंघन करना है
मालूम कतई
नहीं था
फिर प्रेम
तो
स्याह रात में चमगादड़ की तरह
यादों की अनगिनत शाखाओं पर उल्टा लटका होता है
या अक्सर अँधेरे को ढूँढने निकले जुगनू की नक़ल करते हुए
अकेले में
खुद से साक्षात्कार करने दूर निकल जाया करता है
जब चाँद, अमावस्या
के आवरण में खो चुका होता है
नदियाँ ,समुन्द्र
में विलीन होने
को आतुर हो
अपने तट छोड़ने
लगती हैं
उस वक्त
प्रेम
अपने आलौकिक विज्ञान का वजनी सूत्र ले कर
किसी अनजानी खोह में गुम हो जाता है
अपने आलौकिक विज्ञान का वजनी सूत्र ले कर
किसी अनजानी खोह में गुम हो जाता है
इस तरह प्रेम
रूह तक का
अपना दुरूह सफ़र
ओट ही ओट में पूरा कर लेता है
ओट ही ओट में पूरा कर लेता है
इधर मेरी
लेखनी एक बिंदु पर ही ठहर जाती हैं
अंत में
थक हार कर
प्रेम कविता
की खोज में
मैं सभी दिशाओं में
तीर छोडती हूँ
सारे तीर एक एक
कर आ गिरते हैं
औंधे मुंह
औंधे मुंह
मेरे ही
पांवों के नजदीक
और समाप्त
हो जाती है
प्रेम कविता की खोज !
प्रेम कविता की खोज !
***
6. जिल्लेसुब्हानी
तर्क के साथ
जीने वाले
इक्कीसवीं सदी के
बच्चे को
एक तस्वीर दिखाई
जाती है
ओर कहा जाता है
देखो,
ये हैं
शहंशाह बहादुरशाह
ज़फर
तो बच्चा संदेह भरी आँखों
से
एक बार तस्वीर
को देखता
है एक
बार हमें
उसका यह संदेह
देर तक
परेशान करने
वाला होता
है
बच्चा यकीनन अच्छी तरह
से जानता
है
कि एक राजा
की तस्वीर
में कुछ
और नहीं
तो
सिर पर मुकुट
और राजसिंहासन
का सहारा तो
होगा ही
उसी बच्चे को
लाल किले
के संग्रहालय
में प्रदर्शित बहादुरशाह का चोगा
दिखाते हुये…
कुछ कहते–कहते
हम खुद
ही रूक
जाते हैं
उसकी आँखों के
संदेह से
दोबारा
गुजरने से
हमें डर
लगता है
मगर जब हम
दरियागंज जाने
के लिये
बहादुरशाह ज़फर
मार्ग से
गुज़रते हैं
तब वह बच्चा
अचानक से
कह उठता
है
बहादुशाह ज़फर, वही
तस्वीर वाले
बूढ़े
राजा
सच को यकीन
में बदलने
का काम
एक सड़क
करेगी
ऐसे उदाहरण विरले
ही होंगे
उस दिन पहली
बार सरकार
की पीठ
थपथपाने का
मन किया.
आगे चलकर जब
यही बच्चा
डार्विन का
सूत्र
“सरवाईवल
आफ दा
फिटेस्ट” पढ़ेगा
तब खुद ही
जान जायेगा
कि बीमार
इंसान और
कमज़ोर घोड़े
को
रेस से बाहर
खदेड़ दिया
जाता है
कैसे इतिहास का
पलड़ा
एक खास वर्ग
की तरफ
ही झुकने का आदि है
तब तक वह
बच्चा भी संसार की कई
दूसरी चीजों
के साथ
सामंजस्य बिठाने की
उम्र में
आ चुका होगा.
किसी आधे दिमाग
की सोच
भी यह
सहज ही
यह समझ लेती है
कि
एक राजा की
याद को
एक–दो
फ्रेम में
कैद कर
देने का
षडयंत्र
कोई छोटा नहीं होता.
जबकि एक शायर
राजा को
याद करते
हुये
आने वाली पीढ़ियों की आँखों के
सामने से
कई चित्र अनायास गुज़र
जाने चाहिये
थे
जिसमें बहादुरशाह जफ़र मोती मस्जिद के
पास की
चिमनी पर
कुछ सोचते
दिखायी देते,
छज्जे की सीढ़ी से उतरते या
प्रवेश द्वार
से गुज़रते,
मदहोश गुंबद के
पास खड़े
हो दूर
क्षितिज में
ताकते,
बालकनी के झरोखों
से झाँकते
जफ़र
या कभी वे
ज़ीनत महल
के किले
की छत
पर पतंग
उड़ाते नज़र
आते
कभी सोचते, लिखते
और फिर
घुमावदार पलों
में खो
जाते.
जब समय तंग
हाथों में
चला जाता
है
स्वस्थ चीज़ों पर
जंग लगनी
शुरू हो
जाती है
और जब रंगून
की कोठरी
में बीमार
लाल चोगे में
लालबाई का
बेटा और
एक धीरोचित
फकीर
अपना दर्द कागज़
के पन्नों
पर उतारता है
तो फरिश्ते के
पित्तर भी
शोक मनाने
लगते हैं.
उस वक़्त शायद
इतिहास को
अपने अंजाम तक
पहुँचाने वाले
नहीं जानते
होंगे
कि कल की कमान
उनके किसी
कारिंदे के
हाथों मे
नहीं होगी
उसी ज़ीनत महल
में आज
लौहारों के
हथौड़े बिना
थके आवाज़
करते हैं
फुलवालों की सैर
पर हज़ारों
जिंदगियाँ साँस
लेती हैं
नाहरवाली हवेली को
पाकिस्तान से
आकर बसे
हुये
दो हिन्दु परिवारों
का शोर
किले को
आबाद करता
है
चाँदनी चौक का
एक बाशिंदा
गर्व से
यह बताते
हुए
नहीं थकता कि
हमारे पूर्वज
जफ़र साहब को दीपावली
के अवसर
पर
पूजन सामग्री पहुंचा
कर धन्य
हो गये
राग पहाड़ी
में मेहंदी
हसन जब
गा उठते
हैं– “बात
करनी मुझे
मुश्किल कभी
ऐसी तो
न थी”
तो संवेदना की
सबसे महीन
नस हरकत
करने लगती
है
ठीक इसी वक्त
जिल्लेसुभानी
अपने लम्बे चोगे
में बिना
किसी आवाज़
के
हमारे करीब से
गुज़र जाते
हैं
हज़ारों शुभकामनाएं
देते हुए
एक दरवेश की
तरह.
***
7. रसूल रफ़ूग़र का पैबंदनामा
फटे कपड़े पर
जालीदार पुल बना कर
कपड़ों का खोया
हुए मधुमास को लौटा देता
है वह
जब रसूल के
इस हुनर
को खुली
आँखों से
देखा नहीं
था
तब सोचा भी
नहीं था
और तब तक
जाना भी
नहीं था
कि फटी चीजों
से इस
कदर प्रेम
भी किया
जा सकता
है
खूबसूरत जाल का
महीन ताना–बाना
उसकी खुरदरी उँगलियों
की छांव
तले
यूँ उकरता है
कि
देखने वालों की
जीभ दांतों तले
आ जाती है
और दांतों को
भरे पाले
में पसीना
आने लगता
है
घर के दुखों
की राम
कहानी को
एक मैले चीथड़े
में लपेट
कर रख
आता है
वह
अधरंग की शिकार
पत्नी
बेवा बहन
तलाकशुदा बेटी
अनपढ़ और बेकार
बेटे के
दुखों के
भार को
वैसे भी
हर वक्त अपने
साथ नहीं
रखा जा
सकता
दुखों के छींटों
का घनत्व
भी इतना
कि उसके पूरे उफान
से जलते
चूल्हे की
आंच भी
एकदम से ठंडी पड़
जाएँ.
माप का मैला
फीता
गले में डाल
स्वर्गीय पिता खुदाबक्श
की तस्वीर
तले
गर्दन झुकाए खुदा
का यह
नेक बन्दा
कई बन्दों से
अलग होने
के जोखिम
को पाले
रखता है.
बीबियों के बेल–बूटेदार हिजाबों.
सुन्दर दुपट्टे,
रंग–बिरंगे रेशमी
धागों,
पुरानी पतलूनों के
बीच घिरा
रसूल रफूगर
उम्मीद का कोई
भटका तारा
आज भी उसकी
आँखों में
टिमटिमाते हुए
संकोच नहीं
करता
“और
क्या रंगीनियाँ
चाहिए मेरे
जैसे आदमी
को”
इस वाक्य को
रसूल मियां
कभी–कभार
खुश
गीत की लहर
में दोहराया
करता है
अपने सामने की
टूटी सड़कों
किरमिचे आईनों
टपकते नलों
गंधाते शौचालय की
परम्परागत स्थानीयता
को
सिर तक ओढ़
कर जीता
रसूल
देशजता के हुक्के
में दिन–रात चिलम
भरता है
अभी–अभी उसने
अपनी अंटी से
पचास रुपया
निकाल रामदयाल
पंडित को
दिया है
और खुद फांके
की छाह
में सुस्ताने
चल पड़ा
है
सन १९३० में
बनी पक्की
दुकान को
बलवाईयों ने तोड़
दिया था
तब से एक
खड्डी के
कोने में
बैठ
कोने को खुदा
की सबसे
बड़ी नेमत
मानता हैं
ताउम्र खुद के
फटे कमीज़
को नज़रअंदाज़
कर
फटे कपड़ों को
रफू करता
रसूल
दो दूर के
छिटक आये
पाटों को
इतनी खूबसरती
से मिलाता
है
कि धर्मगुरुओं का मिलन–मैत्री
सन्देश फीका
हो जाता
है.
किसी दूसरे के
फटे में
हाथ डालना
रसूल को
बर्दाश्त नहीं
फटी हुए चीजें मानीखेज हैं उसके
लिए
इस चक्रव्यूह की
उम्र सदियों
पुरानी है
एक बनाये
दूसरा पहने
और तीसरा रफू
करे
दुनिया इसीलिए ऐसी
है
तीन भागों की
विभत्सता में
बंटी हुई
जिसमे हर तीसरे
को
पहले दो जन
का भार
ढोना है.
क्रांति की चिंगारी
थमानी हो
तो रसूल रफूगर
जैसे कारीगरों
को थमानी
चाहिए
जो स्थानीयता को
धो–बिछा
कर
फटे पर चार
चाँद टांक
देते हैं
***
8. लोकतंत्र
का मान रखते हुए
कंबल से एक
आँख बाहर
निकाल कर
हम बाशिंदों ने
इन सफेद पाजामाधारी
मदारियों के
जमघट का
तमाशा खूब
देखा
सावधानी से छोटे–छोटे कदमों से ये नट
उछल–कूद
का अद्भुद
तमाशा दिखाते
इनके मजेदार तमाशे
का लुत्फ
उठा कर
घर की
राह पकड़ते…
यह सिलसिला पूरे
पाँच साल
तक चलता.
इसी बीच कुछ
कमाल के
जादूगरों से
हमारा साक्षात्कार
हुआ
बचपन में पढ़े
मुहावरों को
सिद्ध होने
का गुर
हमने इन्हीं
से सिखा
इन जादूगरों को
टेढी ऊँगली
से घी
निकलना आता
था
पलक झपकते ही
मेज़ के
नीचे से
अदला–बदली
करना, इनके
बाएँ हाथ
का खेल
था
पल भर में
ये लोग
आँखे फेरना
जानते थे
इनकी झोली में
ढेरों रंग
थे
हर बार नऐ
रंग की
चमड़ी ओढे
हुऐ मिलते
ये जादूगर
भीतर से लीपा–पोती कर
पाक–साफ
हो बाहर
खुले आँगन
में निकल
आते
चेहरा आम– आदमी
का चस्पा
कर..
खास बनने की
फिराक में
लगे रहते.
आँखों के काम
कानों से करने
की कोशिश
करते
झुठ को सच
की चाशनी
में डूबो कर चहकते
आज़ादी को धोते,
बिछाते, निचोड़
कर उसके
चारों कोनों
को दाँतों
में दबा
ऊँची तान ले
सो जाते
हम उनके जगने
का इंतज़ार
करते भारी
आँखों से
ताकते
एक टाँग पर
खड़े रहते
धीरे–धीरे फिर
हम इनके
राजदार हो
चले
और न चाहते हूए भी
कसूरवार बन
गये
इस बीच हमारे
कई यार–
दोस्त इनकी
बनाई योज़नाओं
के तले
ढहे, दबे,
और कुचले
गये.
इधर हम अपने
हिडिम्बा प्रयासों
में ही
उलझे रहे
आखिरी सल्तनत की
कसम खाते
हुऐ हमने
यह स्वीकार
किया
कि हमें भी
लालच इसी
लाल कुर्सी
का था
पर यह सब
हमने लोकतंत्र
का मान
रखते हुए
किया
हमें गुनाहगार हरगिज़
न समझा जाए.
***
9. तुम्हारा चेहरा मदर
एक अदृश्य आकृति
के मस्तक
पर अपनी
कामनाओं, सपनों
और अरमानों
का सेहरा
बाँधा
बदले में उस आकृति ने
हमें एक
मूर्ति नवाजी
जिसका चेहरा
जीवन,
उम्मीद, ममता,
स्नेह, करूणा
से लबरेज़
था.
दूरी को बींधने
वाली उसकी
दो आँखे,
सीने पर
बंधे कोमल–स्नेहिल हाथों
और नीली किनारी
वाली सफेद
साड़ी पहिने
इस मूर्ति
को देख
हम अभिभूत
हो गए
एक प्रदर्शनी मे
जब रघु-राय
की श्वेत–श्याम तस्वीर
में वही
अक्स दुबारा
देखा तो,
काले–सफेद रंग
के खूबसुरत
तिलिस्म पर
हमें पक्का
यकीन हो
गया.
वह चेहरा उस
‘मदर टेरेसा‘
का था
जिसके बारे में
सुनते आये
थे कि,
बेजान चीज़े, उनके
करीब आकर
धड़कना सीख
जाती हैं.
बाद में मदर
की यह
करामात हमने
अपनी खुली
आँखों से
देखी
इक,
दो बार
नहीं
हज़ारों–हज़ार बार
मदर
अपने घर–परिवार
को ताउम्र
ना देख
पाने
का दुःख तुम्हे
कैसे साल पाता
तुम्हें तो चेहरों पर सिमटी दुखयारी
लकीरों को
खारिज कर
देने का
हुनर बखूबी
आता
था
कोसावों में जन्मी
थी तुम
जरूर मगर
तुम्हारे कदमों ने
समूची धरती
पर धमक
दी.
तुम्हारे होने की
आवाज़ हरेक
कानों ने
सुनी
तुम्हारी बाहें, पूरी
धरती को
समेटने के
लिये आगे
बढ़ीं
और समूचा संसार
बिना ना–नुकर, तुम्हारी
झोली में
सिमट गया.
यह केवल तुम्हारे
ही बस
का ही
मामला रहा
कि
दुनियाभर के किनारे
पर धकेले
हुये मरणासन,
कमजोर–
बीमार बच्चे,
कुष्ट रोगी
तुम्हारे निकट अपनी
शरण–स्थली बनाते
रहे
रात–दिन, रिश्ते–नातों, दूरी–नज़दीकियों के
इसी दुनियावीं
वर्णमाला के
बीच ही
तो था
‘वह
सब‘
जिसे खोजने हम
लोग दर–बदर भटकते
रहे
‘उसी
सब‘ को
अपनी ऊष्मा
के बूते
तुमने अपनी
हथेलियों में
कैद कर
लिया.
धरा की सखी–सहेली बन
जीवन की आद्र्ता
को सींच–सींच कर
तुमने लोगों
के मन
को तृप्त
किया
और धीरे से
कहा ‘शांति‘
तब सारी रुग्ण
व्यवस्थायें पल
भर में
शांत हो
गईँ.
पाणिग्रही समय ने
हमें अपने
बारे में
कुछ नहीं
बताया
पर तुम तो
सच–सच
बताना मदर
मानवियता के सबसे
ऊँचें पायदान
पर खड़े
होकर
जब कभी तुमने
सहसा नीचे
झाँका तो
क्या हम
अपने–अपने स्वार्थों
की धूरी
पर घुमते
बजरबट्टू से
ज्यादा कुछ
नज़र आये
?
सीने में जमी
हुई हमारी
दुआयें
भाप की तरह
उठती और
बिना छाप
छोड़े वायु
में विलीन
हो जाती
रही
तुम्हारी दुआओं ने
अपने विशाल
पँख खोले
और हर टहनी
पर कई
घोंसले बनाये.
मूर्तियो के नज़दीक
अपनी नाक
रगडने वाले
हम
किसी इंसान को
आसानी से
नहीं पूजते
थे
पर इस बार
हमने, तुंम्हें
जी भर
कर पूजा
और इसी कारण
हमारे फफूँदी
लगे विचार
,सफ़ेद रूई
मे तब्दील
होते चले
गये
महज अठारह साल
की उम्र
में तुम
मानवीयता के प्रेम
में गिरफतार
हो गयी
पर हम दुनियादारो
को प्रेम
की परिभाषा
खोजने में
जुगत लगानी
पडी
उसी धुंधलके में
एक बार
फिर याद
आया
केवल तुम्हारा ही
चेहरा मदर
.
***
10. दुःख क्या बाला है साहब
ठंडें गोश्त में
तबदील होने
से पहले
यह जान लेना
मुनासिब ही
लगा कि,
सामने की सफेद
दरो–दीवार
पर यह काला घेरा क्योंकर
बना
जब भी उस
पर नज़रें
टिकती
तब पाँव भी
वहाँ से
कहीं ओर
जाने से
इंन्कार कर
देते
परछाई भी बार–बार वहीं
उलझ कर
ठिठक जाती,
उनहीं दिनों भीतरी
किले की
एक दीवार,
नींव समेत मजबूत
होती चली
गई.
तब दिमाग़ की
नहीं
मन की एक
सज़ग तंत्रिका
ने सुझाया
कि इन कारगुज़ारियों
के पीछे
दुःख का
एकलौता हाथ
है
वह दुःख ही था
जो काले
एंकात में
एक बूंद
की तरह
टप से
टपका और
लगातार फैलता चला
गया.
तब ही उसे
पहचाना जा
सका
जाहिर है बुरी
चीज़ें इतनी
तेज़ी से
नहीं फैला
करती
सार्वजनिक तजुर्बे के
हलफनामे के
तहत,
बहुत बाद में
यह प्रमाणिक
भी होता
चला गया
तो दुःख भी
इसी आत्मा,
मन, अस्थियों
और मास–मज्जा के
बीच शरण
लेने में
कामयाब रहा
और फैलता और
फूलता भी
गया
खुदा गवाह है
किसी के वाज़िब
हक पर
कब्ज़ा जमाने
के नज़दीक
हम कभी
नहीं गये
दुःख का यह
मासूम हक
था कि
वह फैले,
फूले और
नेक आत्माओं के आशीर्वाद तले
सुख की छोटी–मोटी खरपतवारों
को नज़रअंदाज
करता हुआ
दिन के उजाले
और चाँद
की रहनुमाई
में
दुःख फैलता चला
गया
एक सुबह जब
वह मेरे
कंधे तक
पहुंचा
तो उसकी आँखों
में
मेरा ही
अक्स था
उस दिन से
हम दोनों
साथ–साथ
हैं,
भीतर सीने में
बुलबुले की
तरह और
बाहर आँखों के
पानी की तरह
दुःख के डैने
इतने मज़बुत
हैं
कि अक्सर मैं
उसके डैनों
पर सवार
हो
दुनिया का तमाशा
देखती फिर,
हम दोनों हँसते–हँसते लोटपोट
हो जाते
और कभी अचानक
से चुप्प
हो उठते.
कई चमकीली
चीज़ों से बहुत
दूर ले
जाने वाला
और उनकी पोल–पटटी से
वाकिफ करवाने
वाला
दुःख
ही
था
इस तरह दुःख लगातार माँजता रहा
और मैं
मँजती रही
नाई के उस्तरे
की तरह
तेज़ और
धारदार.
दुःख ने स्वस्थ दिनों
में भी
पोषण और
दवा दारू
की,
दुःख के सौजन्य से
मिलता रहा
आत्म–निरिक्षण का
एकान्तिक सुख,
दुःख से मेरी
खूब पटी.
दुनिया को उदास
करना खूब
आता था
और मुझे उदास
होना
तब दुःख
मेरे कंधे
पर हाथ
रख मुझसे
बातें करता
और हम दुनिया
से दूर
एक नयी
दुनिया के
पायदान पर
खड़े हो, पिछली
दुनिया की
धूल साफ
करते.
दुःख चुम्बक की तरह
उदास और
बिखरी वस्तुओं को
खींच लेता
फिर हम बैठ
कर उन्हें करीनें से सज़ाते
दुःख के लगातार
सेवन का
सबसे अज़ीज
फायदा यह
रहा
कि किसी बैसाखी
के सहारे
को मैने सिरे से इंकार
कर दिया.
फैज़ का यह
कथन
‘दुःख
और नाखुशी
दो अलहदा
चीज़ें है‘
जीवन के आँगन
मे बिलकुल
सही उतरा
दुःख ने खुशियाँ
अपने दोनों
मज़बुत हाथों
से बाँटी
हो न हो
कासिम जान की
तंग गलियों
से गुज़रते
हुए,
मिर्ज़ा ग़ालिब अपना
रूख जब
पुष्ट किले की दीवार पर उभरे
हुए काले
घेरे की
ओर करते
होगें
तो एकबारगी ठहर
कर इस
अशरीरी दुःख
से आत्मालाप
भी किया करते
होगें.
***
अच्छी कविताएँ…
सुन्दर अभिव्यक्ति…
नाखुशी में खुशी देखने वाला खुश ही रहता है!