कभी-कभी कौंधती है एक चिंगारी/शैलेन्द्र चौहान
अहा एक था गाँव गाँव में थे लोग कुछ भले कुछ भोले अधिकांश गरीब और विपन्न लहलहाती थी
अहा एक था गाँव गाँव में थे लोग कुछ भले कुछ भोले अधिकांश गरीब और विपन्न लहलहाती थी
द्रुतगामी सड़क सड़क काली हो या भूरी जहां से भी निकलती है स्याह कर देती
शबरी चर्या -1 (१) राजा के महल में तेरा स्थान नहीं, शबरीवाली
सखी-संवाद एक सधन्यवाद पत्र सखी!जितना समझी हूँ अब तलकसंसार में सुख-दुःख की आदी परम्परा रही है,सुख अपने भीतर गिरकर उन्मादी होते
कहे पत्रकार भोले शहर के सेठ का निकलता है अख़बार उसका नाम कितना प्यारा – जनता का समाचार सेठ
मॉं की स्मृति में (1)दुख की लंबी उड़ान के बादकहाँ लौटती है आत्माएँकहाँ रीत जाता हैइच्छा के
इतने पर भी मेरी एक आँखसपने देख रही
लेसू रोटियां उनदिनों जब इजाके पास मडुवा था औरमेरे पास थी एक जि़द कि गेहूँकी ही रोटी खानी है तबपदार्पण
बिना व्याकरण के बोली जाने वाली भाषा हो तुम तुम इतनी दूर रहीं कि कुछ भी कहा नहीं जा सकता