अनुनाद

तुम्‍हारे अंदर कौन खामोश बैठा कविता लिखता है/राकेश रोहित 


                        

    मॉं की स्‍मृति में    


(1)
दुख की लंबी उड़ान के बाद
कहाँ लौटती है आत्माएँ
कहाँ रीत जाता है
इच्छा के अक्षय पात्र में सिमटा आत्मा का जल!

हजारों ईश्वर से भरी आकाशगंगा में मिलने को आतुर
ऊर्जा  की एक लहर       
गंध बनकर डोलती रहती है दिशा- दिशांतर में
एक बहुत बड़े ब्लैक होल के अंदर रची दुनिया में
छीज जाता है मेरे अंतर का एक अस्तित्व 
मैं लौटता हूँ,
मैं माँ के पास माँ के साथ लौटता हूँ।     

जब मैं एक नदी से मिलता  हूँ
मैं एक नदी लेकर लौटता हूँ,  
एक शब्द की गूंज सारी सृष्टि में समायी है
उसी एक शब्द से संसार की सारी नदियाँ निकलती हैं।

(2)

ऐसा भी होता है
कि दुख सालता है अनश्वर आत्मा को
और एक दिन दुख इतना बड़ा हो जाता है
कि आत्मा देह छोड़कर
रहने लगती है दुख के घर में।

विद्वत लोग जो आत्मा को जानते हैं
दुख को नहीं जानते हैं।

(3)
हम सब जान नहीं पाते
एक दिन
दुख ही तुम्हारे अंदर आत्मा बनकर रहने लगता है।
आत्मा छोड़ जाती है देह
या दुख ही तुम्हें मुक्त करता है!

मैं “माँ” कहकर बुलाता हूँ तुम्हें
मैं देखता हूँ मेरे सामने बस एक नदी है।

(4)
बूंद- बूंद टपकता है जल पीपल की जड़ों में
सोने के पंख वाली चिड़िया चुगती है दाने वहीं पास
हजार पत्तों में डोलता है एक चंचल मन
माँ, क्या तुम सुनती हो एक खामोश करबद्ध
प्रार्थना
?

(5)

मैं लौटता हूँ
मैं लौटता हूँ अंधेरे में!          
कौन चलता है मेरे साथ                      
कौन रोता है पकड़ कर मेरा हाथ
कौन बोलता है अब लौटना नहीं होगा!

इस धरती को अंधेरे ने ढंक लिया है  
सुबह की स्याही दिन पर फैल गयी   है
जिसकी लोरी सुनकर सो जाते थे बच्चे
वो सो गयी है और बच्चे जाग रहे हैं।

कितनी भी जोर से पुकारूं
तुम तक नहीं पहुंचते तुम्हारे सिखाये शब्द!    
रोने की कोई वर्णमाला नहीं होती
इसलिए जब मृत्यु की छाया छूती है
अकेले मन को      
आवाज से पहले छूटती है रूलाई         
पर सर को नहीं छूता तुम्हारा हाथ!

अपने अंदर भी एक वीरान आकाश होता है
किसी ने नहीं बताया
या वह धीरे-धीरे उतरता है
तुम्हारी आत्मा से मिलने!
यह आत्मा देह धारण किये रहती है
या दुख ही देह में आत्मा बन रहता है?

ये जो छाया सा छूता है मेरे मन को  
यह अनश्वर आत्मा है
या इस गेह में सिमटा दुख
माँ अज्ञान के नीरव क्षण में पूछता हूँ यह जान    
कि अब जानना नहीं होगा!

तुमने ही सिखाया वो शब्द
जिससे तुम्हें पुकारता रहा
वो शब्द आज भी हैं पर तुम नहीं हो।   

सारे शब्दों में व्यक्त नहीं हो पायेगी मेरी तनहाई
माँ बहुत अकेला हूँ मैं!
ये किस धुन में गाती है निर्गुण हवा
मैं जितना भी जोर पुकारूं
शून्य के पार नहीं जाती मेरी आवाज
बस शून्य थोड़ा और करीब आ जाता है
इच्छाओं  के निर्वात में तैरता है
मेरा मन

जैसे नदियों के जल से आप्लावित है धरती
दुख से भींज  गया है आत्मा का कोर।               

हजारों देह का दुख धारण किये है यह धरती
हजारों तन की तपन है आग की इन लपटों में
अनगिन आँखों के आँसू से आलोड़ित है ये लहरें
बेचैन हवाएं छूती हैं हड्डियों को कहीं बहुत भीतर
मन के अंदर की शून्यता से ही भरा है यह
विश्व पर फैला आकाश।

वहीं छोड़ आया हूँ माँ को
जिसने कभी अकेला नहीं छोड़ा मुझे,
इस धरती पर चलता हूँ जिसके सिखाये
नदी से करता हूँ प्रार्थना जिसके बताये।
नदी तुम्हें दुलारेगी
ये मन जब तुम्हें पुकारेगा
मैं मन को समझा नहीं पाता हूँ
माँ अब मिलना नहीं होगा!

(6)

और तुम जब नहीं थी
नदी के पास जाकर मैंने पुकारा- माँ
और फिर
नदी ने मुझको बहते हुए देखा!

(7)
(एक दुख जिसे मैं लिखना नहीं चाहता था,
एक दुख जो मुझे लिखता है!)

यह कौन हर पल मेरे साथ
छायाओं की तरह चलता है?
कौन छू कर मुझे निकल जाता है
जब पलट कर बुलाती है कोई पुरानी आवाज?

हम सब अपने अंदर के शून्य में रहते हैं
जैसे ब्रह्मांड के निष्ठुर एकांत में रहती है
पृथ्वी पर कांपती एक अकेली हरी पत्ती,
मेरी आँखों में उदासियां पढ़ने वालों
इससे पहले मैं कहूँ कि
मेरी माँ नहीं रही
मैं चाहता हूँ थम जाए सृष्टि
इस तरह कि एकांत का नीला रंग फैल जाए धरती पर
और शब्दों को कुछ कहने की जरूरत न रह जाए!

जब तुम प्रार्थनाओं के आकाश से
बाहर चली गयी हो
मैं आँखें बंद कर अपने अंदर के रेगिस्तान में
उड़ती चिड़िया की आवाज सुनता हूँ।
रात जब कोई नहीं बोलता
तब डोलती है पृथ्वी
और मैं तुम्हारी बेचैनियां सुनता हूँ
क्या तुम तक पहँचती है मेरी आवाज?

वो दुख जिसे हर दिन मैं जज्ब कर लेता हूँ
आँखों में छलकने से पहले
क्यों फैल जाता है रिस कर मेरे अस्तित्व से बाहर
क्यों हर दिन एक फूल खिलने से रह जाता है?
क्यों हर दिन एक बात कहने से रह जाती है?
जब कोई दिखाई नहीं देता इस अंधेरे में
कौन देखता है अंधेरे में मुझे
जब कुछ कहता नहीं हूँ मैं
इस नीरव रात्रि में
कौन सुनता है मुझे!

एक दिन जब सहने को था इतना दुख
और कहने को कुछ नहीं था
मैंने अपने मन से पूछा,
जब शब्दों से घुलती नहीं दुखों की स्याही
तुम्हारे अंदर कौन खामोश बैठा कविता लिखता है?

(8)
इतना हरा होगा दुख
नहीं जानता था
कि जैसे रिस रही हो आत्मा
आती- जाती सांस संग
और उड़ रही हो हवा में
यह देह निरुद्देश्य!

आधी रात जब आसमान में खो जाता है चाँद
तारे झरते हैं रात भर
जैसे झरती है ओस
और खामोश भींगती है पृथ्वी।

इतना काला होता है मृत्यु का रंग
कि अनंत की तरह दिखता है अंधेरा
और टूट जाता है भरोसा उस शब्द पर
जिसे पुकारता मैं धरती पर आया था!

(9)

मैंने करवट बदली
पैर मोड़े
और कुहनी पर सो गया।
माँ नहीं थी

और मैं याद करना चाहता
था

मैं इस धरती पर किसकी सुरक्षा में आया था!

(10)


मैंने पुकारा- माँ
और हवा जोर से मुझसे लिपट गयी
उसने नहीं पूछा
मैं उदास क्यों हूँ
उसने मेरे आँसू पोंछे
और बहने लगी!

***

 

 

2 thoughts on “तुम्‍हारे अंदर कौन खामोश बैठा कविता लिखता है/राकेश रोहित ”

  1. बेहतरीन!
    कविताऐं नहीं है, यह एहसास हैं केवल और केवल माँ की दुनीया के जिन्होनें माँ का रूप ले लिया।

  2. Shiv Deep Singh

    दु:ख को शब्दों में बांधना बहुत कठिन है।
    बहुत बेहतरीन है।

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