स्तनपान के बारे में वैज्ञानिक शोध चाहे कितनी सकारात्मक
बातें कहें पूरी दुनिया में युवा शहरी और कामकाजी स्त्रियों में इसको लेकर नकार
का भाव बढ़ता जा रहा है – घर से बाहर की दुनिया में पुरुष बहुमत के मद्देनज़र चाहे पुरुष निगाहों की लोलुपता से बचाने वाली लज्जा हो या स्तनों का
आकार बिगड़ जाने का भय , तमाम प्रयासों के बाद भी स्तनपान
स्त्रियों के दैनिक जीवन का स्थायी भाव नहीं बन पा रहा है।
हाल के दिनों में दुनिया के पश्चिमी देशों में समाज के ऊँचे
पायदानों पर आसीन कुछ जानी मानी हस्तियों ने लगभग मिलिटैंट तेवर में स्तनपान को अन्य
क्रियाकलापों की तरह सामान्य व्यवहार मानने का आग्रह किया है और दुनियाभर में उनकी
इस पहल का आम तौर पर स्वागत किया गया है।इनमें अग्रणी
नाम है अर्जेंटीना की युवा ऐक्टिविस्ट सांसद विक्टोरिया
दोंडा पेरेज़ का जिनकी संसद की कार्यवाही में भाग लेते हुए बेटी को स्तनपान
कराते रहने वाली तस्वीर मीडिया में चर्चा का विषय बनी। इस फ़ोटो पर जहाँ भरपूर शाबाशी मिली वहीँ यह भी आरोप लगा कि यह सरासर नॉनसेंस और अश्लील है ,संसद किसी का निजी बेडरूम नहीं बनाया जा सकता।
ऑस्ट्रेलिया की राजनेता गिउलिआ जोन्स ने भी कैनबरा
स्थित एसीटी विधान सभा के
अंदर विधायी कामकाज के बीच बच्चे को दूध पिला कर इतिहास बनाया।पूरी दुनिया में यह
चलन है कि सुरक्षा और गोपनीयता की आड़ लेकर संसद या विधान
सभाओं के अंदर किसी बाहरी व्यक्ति को प्रवेश करने की
मनाही होती है ,और कानूनन बच्चे बाहरी व्यक्ति माने जाते हैं। कुछ साल पहले एसीटी विधान सभा ने नियमों में बदलाव करते हुए नवजात शिशुओं
की परवरिश करती महिला सदस्यों को सदन में उपस्थित रहने
की छूट प्रदान की थी। हाँलाकि पूर्व मुख्य मंत्री केटी गेलंघर कैबिनेट मीटिंगों के
बीच अपने बच्चों को कैबिनेट मीटिंग के दौरान स्तनपान
कराने के लिए मशहूर थीं। श्रीमती जोन्स का साफ़ कहना है :”यदि मेरे बेटे को
भूख लगी है और मैं सदन के कामकाज में व्यस्त हूँ तो उसे दूध ज़रूर पिलाऊँगी –
उसके प्रति यह मेरी ज़िम्मेदारी है। यदि वह भूखा है तो उसको दूध पिलाना ही
होगा ,इसमें उसकी ,मेरी और पूरे समाज
की भलाई है। “
आज से पंद्रह साल ब्रिटिश हाउस ऑफ़ कॉमन्स की सदस्य जूलिया ड्रोन के प्रश्न
के लिखित जवाब में अध्यक्ष ने बताया था कि सदस्यों और बुलाये
गए अफसरों सिवा किसी अन्य का संसद में प्रवेश वर्जित है। कोई दस साल बाद कुछ विशेष कमरे इस काम के लिए चिह्नित कर दिए गए।
इटालियन संसद सदस्य लीसिया रोंजुली की सितम्बर
2010 में सदन में डेढ़ महीने
के बच्चे को सीने से चिपकाये मतदान करती हुई फ़ोटो पूरी
दुनिया और सराही गयी थी। उन्होंने कहा :”जब हम यूरोपियन संसद में महिलाओं के रोज़गार के अवसर बढ़ाने के लिए काम करते हैं तो प्रेस पर जूँ नहीं रेंगती – जब मैं अपने बच्चे को गॉड में लेकर
संसद में आयी तो अब सबको मुझसे इंटरव्यू करने का समय चाहिए। “
पश्चिमी जगत में सार्वजनिक स्तनपान की वकालत करने वालों ने
सोशल मीडिया पर स्वास्थ्य
और निजी स्वतंत्रता का हवाला दिया तो विरोध में दूसरा मज़बूत स्वर डिब्बा बंद दूध
के चुनाव की आज़ादी के पक्ष में उठ खड़ा हुआ।
भारतीय संसद के अंदर ऐसी किसी सम्भावना के बारे में क्या
स्थिति है मालूम नहीं चल पाया – पर निश्चय ही यहाँ लिखित
नियम कानून की तुलना में संस्कृति पोषित लज्जा का पलड़ा भारी होगा इसका अनुमान सहज
लगाया जा सकता है।
समसामयिक विषयों पर मुखर प्रतिक्रिया देने वाली ब्रिटेन की अत्यंत लोकप्रिय युवा “स्पोकन वर्ड” कवि हॉली मैक्निश ने स्तनपान से जुड़े लज्जाभाव और परेशानी को व्यक्त करने वाली कविता “इम्बैरेस्ड” ( अनुवाद करते हुए मैंने
उसको शर्मिंदा शीर्षक दिया) लिखी जो यू ट्यूब पर लाखों
लोगों द्वारा दुनिया भर में देखी और सराही गयी। कैम्ब्रिज में रहने वाली मैक्निश के कविता संकलन और एल्बम
बाज़ार में हैं और स्लैम पोइट्री के अनेक ख़िताब वे जीत चुकी हैं। वास्तविक घटनाओं से उपजी इस कविता को लिखने के बारे
में वे बताती हैं :
“यह कविता मैंने अपने छः महीने की बच्ची के सो जाने पर पब्लिक टॉयलेट में लिखी। मैं दिनभर बेटी के साथ शहर में
यहाँ वहाँ घूमती रही और जब उसको दूध पिलाने लगी तो सामने से किसी ने कॉमेंट किया
कि इतने छोटे बच्चे को लेकर मुझे घर में रहना चाहिये ,बाहर निकलने
की क्या दरकार है। छोटे बच्चों को हर दो तीन घंटे बाद भूख लगती है और उन्हें दूध
पिलाना पड़ता है,और हर दो तीन घंटे बाद काम धाम छोड़ कर घर भागना
मुमकिन नहीं है – वैसे भी यह तर्क निहायत मूर्खतापूर्ण
है। पर यह कॉमेंट सुनकर मैं शर्म से भर उठी और अगले छः महीने बच्ची के साथ अकेली
होती तो दूध पिलाने के समय भाग कर टॉयलेट में घुस जाती
– साथ में ब्वॉय फ्रेंड ,दोस्त मित्र या माँ हुई तो अलग बात
है। मुझे ऐसा करते हुए हमेशा अपने आपसे घृणा हुई पर करती क्या – डर ,घबराहट और झेंप घेर लेती। अब जब टीवी या मीडिया
के बारे में सोचती हूँ तो अजीब लगता है कि न किसी सोप में न किसी कार्टून
में या और न कहीं और ही किसी स्त्री को बच्चे को दूध
पिलाते हुए दिखाते हों – भूल कर भी नहीं। अंग्रेज़ और अमेरिकी इस बात से डर कर बहुत दूर भागते हैं – मुझे यह बहुत अजीब सा लगता है। मुझे अपने देश की संस्कृति
बेहद अजीब लगती है जहाँ लोगबाग पैसों से हर सूरत में चिपके रहते हैं। मुझे बड़ी
शिद्द्त से महसूस होता है कि कुदरत ने जो नियामत हमें बिना कोई मूल्य चुकाये बख्शी है – अपने शरीर को लेकर मैं उन खुश नसीबों में शुमार हूँ – उसके लिए
भारी भरकम राशि खा म खा चुकाते रहने वाले माँ पिता की
तादाद हमारे समाज में कम नहीं है।खुद मेरी अनेक सहेलियाँ हैं जिनका बच्चों के लिए फॉर्मूला खरीदते खरीदते
दिवाला निकल जाता है पर उन्हें अपना दूध पिलाने में शर्म
आती है। आखिर हम खरबपति कंपनियों को वैसी चीज़ से मुनाफ़ा क्यों कमाने दें जो हमारे
शरीर में बगैर कानी कौड़ी चुकाये भरपूर मात्र में उपलब्ध
है। मार्केटिंग की यह कितनी कुशल रण नीति है कि हम ऐसा
कुछ करना अनुचित समझने लगते हैं- यह सोच सोच कर मैं हर
आते दिन ज्यादा उदास हो जाती हूँ। अब वह दिन दूर नहीं
जब हम टेस्कोज़ मॉल में पसीने की बोतल खरीदने
जाया करेंगे और रात में पढ़ने के लिए इलेक्ट्रॉनिक
किताबें — पढ़ें और साथ साथ खरीदे हुए पसीने की बूँदें
अपने बदन पर मलते रहें। आप इन्तजार कीजिये …
मेरा ऐसा कोई आग्रह नहीं है कि दूसरों के विचार बदल डालूँ ,बस यह चाहती हूँ कि मेरी बात लोगों तक सीधे
सीधे पहुँच जाये – जब यह बात लोगों की समझ में आकर प्रतिध्वनित
होने लगती है तो बहुत ख़ुशी होती है। स्तनपान पर लिखी इस कविता के बारे में ढेर सारे लोगों ने मुझे ई
मेल किये ,उसको बार बार पढ़ा सुना और आश्वस्त हुए ,और घर से बाहर निकल कर स्तनपान कराते हुए ज्यादा सहज महसूस किया।”
शर्मिंदा
मैं अक्सर सोचती हूँ पब्लिक टॉयलेट्स में दूध पीना
कहीं उसको क्रुद्ध तो नहीं करते
फैसले लेने की मनमानी से
और खा म खा की विनम्रता ओढ़े ओढ़े
अब मैं खीझने लगी हूँ
कि मेरी बच्ची की शुरू शुरू की घूँटें
सराबोर हैं मल की दुर्गन्ध से
हर वक्त घबरायी और असहज रहती
जन्म के बाद के महीनों में जब जब उसको दूध
पिलाती
जबकि चाहा सबकुछ अच्छा हो उसके सुंदर जीवन में ….
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मुझे आठ हफ़्ते लगे जब हिम्मत जुटा पायी
कि निकलूँ सबके सामने शहर में
और अब लोगों की फब्तियाँ हैं
नश्तर की तरह आर पार काटने को आतुर ….
भाग कर घुस जाती हूँ टॉयलेट के अंदर
इसमें भला क्या है जो अच्छा लगे …….
मुझे शर्म आती है कि
मेरे बदन की पल भर की कौंध कैसे लोगों को ठेस मार देती है
जिसकी मैंने कोई नुमाइश नहीं लगाई
न ही उघाड़ कर दिखलाती ही हूँ
पर लोग हैं कि मुझे घर के अंदर बंद रहने की हिदायत देते हैं
एक सहेली को धक्के मार मार कर
लगभग फेंक दिया लोगों ने बस से नीचे
और दूसरी औरत को खदेड़ दिया
बच्चे सहित पब से बाहर …
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जीसस ने इस दूध को पिया
ऐसा ही सिद्धार्थ ने किया
मुहम्मद ने किया
और मोज़ेज ने किया
दोनों के पिताओं ने भी ऐसा ही किया
गणेश शिव ब्रिजिट और बुद्ध
सब के सब ऐसा ही करते रहे
और मैं पक्के भरोसे के साथ कह सकती हूँ
कि बच्चों ने भूख से पेशाब के भभकों को
बिलकुल गले नहीं लगाया
उनकी माँओं को मुँह छुपाने के लिए सर्द टॉयलेट की सीटों पर
मज़बूरी में घुस कर बैठना पड़ा लज्जापूर्वक …
वह भी ऐसे देश में जो अटा पड़ा है
वैसे विशालकाय इश्तहारों से
जिनमें यहाँ से वहाँ तक चमकते दमकते हैं
स्तन ही स्तन …….
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प्रदूषण और कचरे से बजबजाते शहरों में
उनको खूब अच्छी तरह मालूम है
कि बोतल दूध पीने वाले ढेरों बच्चे मर जाते हैं
शहरों में तो पैसों की लूट पड़ी है जैसे हों मिठाई
और हम चुका रहे हैं भारी कीमत उसकी
जो कुदरत ने हमें नियामत बख्शी है बे पैसा
शहरों के अस्पताल में पटापट मर रहे हैं बच्चे
उलटी दस्त से पलक झपकते
माँओं का दूध पलट सकता है पल भर में यह चलन
इसलिए अब नहीं बैठूँगी सर्द टॉयलेट की सीटों पर
चाहे कितना भी असहज लगे बेटी को सबके बीच दूध
पिलाते
यह देश अटा पड़ा है
वैसे विशालकाय इश्तहारों से
जिनमें यहाँ से वहाँ तक चमकते दमकते हैं
स्तन ही स्तन …….
अब हमें यहाँ वहाँ बच्चों की दूध पिलाती माँओं को
देखते रहने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
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एक जरूरी और अच्छी कविता। कई बार अच्छी कविता होने से ज्यादा अच्छा होता है, उसका जरूरी होना।
आपने बिलकुल सही कहा।
यादवेन्द्र
और हम समझते थे हमारा ही समाज इतना दोगला है,वार करती धारदार कविता।
सहज सुन्दर कविता ।