कुंवर नारायण की
कविता ‘अबकी अगर लौटा तो‘ और उसका गढ़वाल़ी रूपांतरण :
अबकी बार लौटा तो
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से
अबकी बार लौटा तो
मनुष्यतर लौटूंगा
घर से निकलते
सड़को पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं
अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूंगा
अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा
अबै दा अगर बौड़ुलो त
अबै दा अगर बौड़ुलो त
अफु से माथ
सबका साथ ह्वेकि बौड़ुलो
नाक मूड़ लगैकि
चूंचदार मूच ना
कमर मा बांधिकि लोखर का पूच ना
दगड़ मा चल्दा बटोयूं तैं द्यूंलो काग भी
नि द्यखुलो वूं तैं—हिर्र, भूखो बाघ-सी
अबै दा अगर बौड़ुलो त
सचे, द्वी हाथ
मनिख से माथ ह्वेकि बौड़ुलो
घर से भैर निकल़्द
दा
सड़कु फर आंद-जांद दा
बसु मा चढ़द दा
ट्रेन पकड़द दा
जगा-कुजगा पत्त पत्यड़्यूं प्वड़्यूं
क्वी चखुलो मखुलो- सी ना
अगर बच्यूं रयो त
बड़ो ऐसान मुंड माथ ल्हेकि बौड़ुलो
अबै दा अगर बौड़ुलो त
म्वर्यूं-भज्यूं ना
सब्यूंको भलो-बुरो सोचदो
निगुरो निगुसैं को ना
पैलि चुले पूर्ण सनाथ ह्वेकि बौड़ुलो ।
***
वीरेन डंगवाल की कविता ‘इतने भले नहीं बन जाना
साथी‘ और उसका गढ़वाली रूपांतरण :
इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?
सम्भव ही रह जाये न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊँचे सन्नाटे में सर धुनते रह गये
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना
सुन-सुन कर हरकतें तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बगल दबी हो बोतल मुंह में जनता का अफसाना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना
बात नहीं हो मन की तो आता जिसको बस तनना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्ला-पन छोड़ो, उस पर भी तो तनिक विचारो
गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
अन्धकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी
अपणी समझ बदलणा साथी
इतगा भलो नि बणि जाणो साथी
जतगा भला चुचौं सरकस का हाथी ।
गधा बणणा मा ही लगै
दे
अपणी सर्या ताकत,अक्कल, खैंचाताणी
ना कै से कुछ ल्यायो
ना कै तैं कुछ द्यायो
इनो भी क्या जीवन लोल़ो
फगत उमर गंवाये, बुढे गयो भुजेलो ।
इनो भेल़-भंगार भी
नि बणि जाणो अबेड़ो
बुरै की मौ, जु कै तैं मौका हो
तुमु तक क्वी पैंडो पैटाणो/बाटु बणाणो
अपणा ऊंचा निलाट मा ही
कपाल़ रेचदो रै जाणो
पण जीवन को जरा भी मर्म नि जाणो ।
इतगा चंट चलाक भी नि
ह्वे जाणो
कि सूणिक/देखिक तुम्हरा रंग-ढंग
मुश्किल ह्वे जाउ
हमु तैं अपुणो मुक लुकाणो
काख मा बोतल़/मुख मा जनता को/
संस्कृति को गाणु बजाणो
छी, इतगा छंट्यूं भी नि ह्वे जाणो ।
इतगा फुंड्या /लकीर
को फकीर नि बणि जाणो
कि बात नि ह्वा जब अपणी गौं की
तब खड़बट नरनुरु ह्वे जाणो
देस-दुन्या देखिक ऐ रो, ठैरो
जरा एक नजर अफु जनैं भी हेरो
पोथी पतरा ज्ञान कपट से भौत बड़ो छ मनखी जीवन
नाड़पना छोडो
यां फर भी कुछ सोच विचारो ।
जमनु भौत खराब छ
साथी
घोर गिड़कणा घन घमंड का
आसमान की फुटणी छाती
चौछ्वडि़ अंधाघोर अंध्यर मा
चिलबिल चिलबिल मनखी जीवन
जै फर चाल चल्ल/घड़ी घड़ी
अपणी स्वटगी तैं चमकाणी
संस्कृति का ऐना मा
ई जो मुखड़ी छन मल़काणी
यूंकी असल शकल पछ्यणणा साथी
अपणी समझ बदलणा साथी ।
***
दुष्यंत कुमार की
दो ग़ज़लें और उनका गढ़वाली रूपांतरण :
हो गई है पीर
पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर
नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
– –
ह्वे गए परबत कनी, या पीड़ गल़णी चैंद
भै
ये हिमाला से कुई गंगा निकल़णी चैंद भै ।
आज मत्थे पाल़ परदौं
की तरौं हलणा लगे
शर्त लेकिन छै कि मूडे़ पौउ हलणी चैंद भै ।
हर सड़क फर, हर गल़ी मा हर नगर हर
गौंउ मा
हाथ झटगांदा झटग, हर लाश चलणी चैंद भै ।
सिर्फ हफरोल़ो लगाणो
ही मेरो मकसद नि छा
मेरी कोशिश छा कि या बघबौल़ मिटणी चैंद भै ।
मेरा जिकुड़ा मा नि
ह्वा त, तेरा
जिकुड़ा मा सही
ह्वा कखी भी आग लेकिन आग जगणी चैंद भै ।
– – –
लिये
कहाँ चराग़
मयस्सर नहीं शहर के लिये
यहाँ दरख़्तों
के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से
चले और उम्र भर के लिये
न हो क़मीज़
तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने
मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये
ख़ुदा नहीं न
सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन
नज़ारा तो है नज़र के लिये
वो मुतमइन
हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार
हूँ आवाज़ में असर के लिये
जियें तो
अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर
की गलियों में गुलमोहर के लिये.
– – –
कखा त बल़्णि छै
बग्वाल़ यख मवार खुणै
कखा स्यु हर्चिगे बतुलो भी गौं जवार खुणै ।
यखा त डाल़्यूं का
छैलु घाम लगद ब्वयो
चला जि फुंडु कखी हौर गौं गुठ्यार खुणै ।
नि ह्वा कमीज त
घुंजौंल पेट ढकि ल्याला
इ लोग कन लौबाणी का जाण पार खुणै ।
खुदा नि ह्वा न सही
आदमी को ख्वाब सही
दिखण दिखौण्य त छैं छ दिल दुख्यार खुणै ।
उ बौंहडा. पड्यां कि
ढुंगु गैल़ि नी सकदो
मैंकू उठाप्वड. आवाज मा अंगार खुणै ।
तेरो निजाम छ डामी
दे थुंथरि शायर की
उज्याड. बाड. जरूरी छ या, गितार खुणै ।
जियां त चांठ अपणा
डाल़ि गछ फुलार फुनैं
म्वरां त बोण बिरणा डाल़ि गछ फुलार खुणै ।
***
उर्दू शायर निदा
फ़ाज़ली की एक ग़ज़ल और उसका गढ़वाली रूपांतरण :
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यों नहीं जाता
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता
जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता
वो ख़्वाब जो बरसों
से न चेहरा, न बदन है
वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यों नहीं जाता
– – –
क्याप-सी यो दर्द ठहर
क्यो जि नि जांदो
जो बीत गए स्यां, स्यु गुजर क्यो जि नि जांदो।
सब कुछ त छ, झणि क्या खुजणी रंदन
आंखी
क्या बात छ, मी बगतल् घर क्यो जि नि जांदो।
वा एक ही मुखडी. त नी
छ सैरि दुन्या मा
जो दूर छ, वो दिल से उतर क्यो जि नि जांदो ।
मी अपणा ही बिरड्यां
बाटौं को तमाशो
जैं पैंड जँदन सब,मी भि सर क्यो जि निजांदो।
वो ख्वाब जो बर्षू
से न ‘मुखडी.‘
न ‘टुकडी.‘ छ
वो ख्वाब बथौं मा बिखर क्यो जि नि जांदो ।
***
शिरीष भुला यूं काम त भौत ही भलु ह्वे। अहा कनी भौण अईं च। जिकुड़ी मु छप छपी पौढ़ी ग्या
बहुत बढ़िया
🚩 आदरणीय असवाल जी हम्हर दुधबोलि क भौत बडा हस्ताक्षर छींई, वुंकु अपड भाषा क प्रचार प्रसार मा योगदान सराहनीय च, उम्मीद च ऐथर भि वो इनि अपड गढभाषा क सेवा कनां राला…👏👏.
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