अनुनाद

आशीष बिहानी की कविताएं


आशीष बिहानी की कविताएं अनुनाद पर कुछ दिन पहले ही लगनी थीं पर नेट की रफ़्तार ने साथ नहीं दिया। इस संभावनाशील युवा कवि का पहला संग्रह जल्द आ रहा है, जिसका ब्लर्ब कवि लाल्टू ने लिखा है। यह ब्लर्ब और आशीष की कुछ कविताएं अनुनाद के पाठकों के लिए। 

 
युवा कवि आशीष बिहानी की कविताएँ समकालीन हिंदी काव्य-परिदृश्य में नए-नवेले अहसासों से भरपूर होकर आती हैं। ये कविताएँ छटपटाते ब्रह्मांडकी धूल-धूसरित पनीले स्वप्नभरी कविताएँ हैं। अहसासों की विविधता और विशुद्ध कविता के प्रति कवि का समर्पण हमें आश्वस्त करता है कि यह शुरूआत दूर तक ले जाएगी। ये कविताएँ हमें निजी दायरों से लेकर व्यापक सामाजिक और अखिल सवालों तक की यात्राओं पर ले जाती हैं। कविताओं को पढ़ते हुए हम एकबारगी इस खयाल में खोने लगते हैं कि जीवन के अलग-अलग रंगों में रंगे इतने अर्थ भी हो सकते हैं। उनका ब्रह्मांड सूक्ष्म से विशाल तक फैला है। कवि की परिपक्वता को हम दिन के अलग वक्तों के लिए कविता के चयन में देख सकते हैं। जैसे संगीत में राग का चयन होता है, आशीष ने संग्रह में कविताओं को इसी तरह सँजोया है। ये केवल वही वक्त नहीं, जब हम पूरी तरह सचेत होते हैं, इनमें स्वप्नकाल और ब्रह्ममुहूर्त भी शामिल हैं।

उनकी हर कविता में अनोखा राग सुनाई पड़ता है, चाहे वह जाड़े की क्रूर रातहो या कि कोई उल्लास-पर्व हो। यहाँ शोषित, पीड़ित देवताओंकी रवानी है, और चाँदनी की फुहारों के नीचे… वाष्पित बादलभी हैं। वहाँ जीवन है और मृत्यु का शून्य अनुभवभी है। हर ओर संवेदना की अनोखी तड़प है। समकालीन समाज की विसंगतियों को अपने निजी और व्यापक संदर्भों में बयां करते हुए हर कहीं आशीष संवेदना के धरातल पर खड़े दिखते हैं और इस तरह कविता की शर्तों पर वे खरे उतरते हैं। कविता को चुनौती की तरह लेते हुए नई परंपराओं की खोज में जुटे इस कवि को पढ़ना सुकून देता है। हिंदी कविता का पाठक-वर्ग संभावनाओं भरे इस विलक्षण कवि का निश्चित ही खुले मन से स्वागत करेगा। इसमें कोई शक नहीं है कि जल्दी ही आशीष हिंदी के युवा कवियों की पहली श्रेणी में गिने जाएँगे।

-लाल्टू

हौज

कृशकाय, जर्जर, थके-प्यासे घुटनों ने
रेत में धंसे धंसे ही
देखा एक दानवाकार,
मानवाकार वाले हौज को
दुर्भिक्ष से फटे धरती के दामन
की तरह ही
फटे हाल पैरों वाला
और चिंतनमग्न

अपने व्यक्तित्व की बिवाईयों से
पानी में घुलकर रिसते
जहर से अनभिज्ञ
तन्मय होकर देखता
इस विषाक्त नखलिस्तान को
सिमटती दरारों को
वाष्प को
संतुष्टि की सौंधी महक चढ़ गयी है
उसके नथुनों में गहरे तक

प्यासे, अकुलाये यात्री लपके उसके पैरों की ओर
चूमने लगे, चाटने लगे
उस पनीले विष को
और वो रेगिस्तान का भूत
वो नरपिशाच
पालता रहा अपने ह्रदय में संचित
द्वेष को
हिक़ारत से देखता रहा
अपनी शांति के भंग के परिणाम को
अपने पैरों
पर बंधे
मृतप्राय मानवों के गुच्छों को
कोसता रहा उनके लालच को

पुनः परिभाषा करने की आवश्यकता है
क्या है लालच
और क्या है एकांत 

फूट रहें है अँधेरे के अंडे, पृथ्वी की
दरारों में
पश्चाताप के आंसू बह चलने वाले हैं
उसके पथरीले गालों पर
*** 

महाखड्ड

तम से लबालबवातावरण में
आभास हुआ
रोशनी की उपस्थिति का
कारागार के अदृश्य कोनों में
चमक उठी आशा

उसने इकठ्ठा किया
धैर्य और हिम्मत
जमीन पर बिखरे
पतले बरसाती कीचड की भांति
अपनी कठोर हथेलियों में,
और डगमगाता हुआ
भागा
अँधेरी मृगमरीचिका की ओर
गिर पड़ा
नन्ही विषाक्त अडचनों पर से।

यों दुर्गन्ध के सिंहासन पर
कीचड से अभिषिक्त,
ठठाकर हँसा
टुकड़ों में बिखरी चमक को
समय की चौखट में जमाकर
और बड़ी जिज्ञासा से ढूंढने लगा
अर्थ, सिद्धांत, प्यार, ख़ुशी

उधेड़ दिए समय ने
विक्षिप्तता से रंजित जल-चित्र
तीखी नोकों वाले
त्रिभुजों और चतुर्भुजों में,
दब गया सत्य
कमर पर हाथ रखकर
उछाली चुनौती उसकी ओर,
उधेड़ दी है तूने
अपने पैरों तले की जमीन
सत्य की तलाश में
अब बुन इसे पुनः
या गिर जा
विक्षिप्तता के महाखड्ड में।
*** 

मौन

अनंत से प्रतीत होने वाले
लावा के एक विशाल सागर
के ऊपर, मैं भाग रहा हूँ
बदहवास
किसी जिन्न की दाढ़ी के बाल
पर, बड़ी रफ़्तार से
किसी गुत्थी की ओर
सीधे, नपे-तुले रास्तों पर होते हुए
घुस गया असंख्य विमाओं वाले
देश-काल के बवंडर में
जहाँ बहुत सारी चीज़ें घटित होतीं है
बहुत धीमी गति से
एक साथ

भागते बेदम स्थूलकाय परिप्रेक्ष्य (मैं)
समय से पिछड़ने लगे हैं
घिस रहे हैं समाप्ति को
क्षितिज से जिन्न की विशाल लाल ऑंखें
विकृत हो
फिसल आती हैं
अग्नि के क़ालीन पर

एक विकराल अंतःस्फोट
चबा जाता है मेरे अस्तित्व को
वाष्पित हो जाती हैं
स्मृतियाँ
दामन से
दहाड़ती दिशाओं के
जबड़े आ टकराते हैं
शून्य पर

रिक्तता, अनुपस्थिति, मौन।

तह करके रख दिए हैं
ब्रह्माण्ड ने अपने कपडे
इन्द्रियों की पहुँच से परे

विस्मय के बैठने को भी
ठौर नहीं बची है

*** 

यज्ञ

सड़क किनारे एक बहरूपिया
इत्मीनान से सिगरेट सुलगाये
झाँक रहा है
अपनी कठौती में

चन्द्रमा की पीली पड़ी हुई परछाई
जल की लपटों के यज्ञ
में धू-धू कर जल रही है
रात के बादल धुंध के साथ मिलकर
छुपा लेते हैं तारों को
और नुकीले कोनो वाली इमारतों
से छलनी हो गया है
आसमान का मैला दामन
ठंडी हवा और भी भारी हो गयी है
निर्माण के हाहाकार से

उखाड़ दिया गया है
ईश्वरों को मानवता के केंद्र से
और अभिषेक किया जा रहा है
मर्त्यों का
विशाल भुजाओं वाले यन्त्र
विश्व का नक्शा बदल रहे हैं

उसके किले पर
तैमूर लंग ने धावा बोल दिया है
उस “इत्मीनान” के नीचे
लोहा पीटने की मशीनों की भाँति
संभावनाएं उछल कूद कर रहीं हैं
उत्पन्न कर रहीं हैं
मष्तिष्क को मथ देने वाला शोर

उसकी खोपड़ी से
चिंता और प्रलाप का मिश्रण बह चला है
और हिल रही हैं
आस्था की जड़ें

एक रंगविहीन परत के
दोनों और उबल रहा है
अथाह लावा
*** 

नरसिंह

गुरुत्वाकर्षण को धता बताकर
विषधरों की तरह उठती हैं
उसकी अयाल से लटें
हवा में
उसके मस्तक के चारों ओर

उद्दंडता से विस्फारित आँखें
भस्मीभूत किये देतीं है
उसके विरोधियों को,
सही या गलत।

वो रहता है ज्वलंत
अज्ञान की पपड़ियों के ऊपर या नीचे
आवश्यकता की भित्ति के दोनों ओर
रोशनी के पटल पर
और अँधेरे की गहराइयों में
थार के रेगिस्तान में
और
मुल्तान की अमराइयों में
करता है विद्रोह
विपत्ति से
प्रकृति से

वो मार सकता है
हिरण्यकश्यप को
अंदर, बाहर,
दिन में, रात में,
मर्त्य बन, अमर्त्य बन,
जल, थल और नभ में —
अपनी गोदी में,
देहलीज पर रखकर भी

ब्रह्मा देखते ही रह जाते हैं
अपने चारों मुख टेढ़े किये-किये
अपनी मूर्खताओं का विकराल रक्तरंजित भंजन
*** 
मूल निवास बीकानेर, राजस्थान। पिता की नौकरी के कारण भीलवाड़ा, राजस्थान के कई कस्बों में उम्र गुज़री।
शिक्षा – M.Sc. biological science + B.Tech. Civil Engineering (integrated)। वर्तमान में CDFD, हैदराबाद में गणनात्मक जैव-भौतिकी और जैव रसायन के प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे हैं।
कविताओं का एक संकलन हिन्द-युग्म प्रकाशन कुछ अनुदान पर प्रकाशित कर रहा है। पुस्तक का ISBN आ गया है, उम्मीद है जल्द ही उपलब्ध होगी।

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