ग़ालिब एक सांसारिक कवि हैं। मोह-लिप्त मगर माया-निर्लिप्त। दुनियाबी रंगीनियों को अगर होठों से पीने में हाथ साथ न दे रहे हों, तो उन्हें देख-देख कर आँखों से पीने वाला शायर। ‘गो हाथ में जुम्बिश नहीं, आँखों में तो दम है। रहने दो अभी सागर ओ-मीना मेरे आगे।’ अधूरी ख्वाहिशों का शायर! ‘मंज़िल नहीं, पथ का कवि, तृप्ति नहीं तृष्णा का शायर’ (सरदार ज़ाफ़री) एक मुसल्लस प्यास की नदी बहती रहती है, ग़ालिब के भीतर। दुनिया के बारे में अपनी अलग अवधारणाओं और कल्पनाओं का कवि। बेशक वह नज़ीर अक़बराबादी की तरह जन-कवि नहीं, किन्हीं अर्थों में अभिजन का कवि है परन्तु वह बहिश्त का भी कवि नहीं है। उसके लिए जो कुछ है, यही दुनिया है। ग़जब़ है कि संसार की रंगीनियों में सराया डूबा हुआ यह शायर अपनी शायरी में कल्पना-प्रवण और अर्थ-जटिल है। विराट दुर्बलताओं का कवि। या यूं कहें कि दुर्बलताओं की विराटता का कवि। ‘हम वहाँ हैं जहाँ से हमको ही/कुछ हमारी ख़बर नहीं आती।’ हिन्दी में ग़ालिब के जीवनीकार एवं अध्येता-समीक्षक, रामनाथ ‘सुमन’ ने अपनी पुस्तक ‘ग़ालिब’ में ठीक ही लिखा है कि अनुभूति की जितनी गहराई मीर मे है, उतनी ग़ालिब में नहीं है। परन्तु ग़ालिब के यहाँ जितना कथ्य-विस्तार है, उतना मीर के यहाँ नहीं है।
ग़ालिब सौन्दर्य के उपासक शायर थे। सौन्दर्य के संरक्षक शायर भी। वे हुस्न के रगो-रेशे में घुस कर उसके आत्मिक सौन्दर्य की रागनी सुनने का माद्दा रखते थे। हुस्न के जिस्म ही नहीं, उसकी रुह तक का सफ़र तय करने वाला शायर। सुबह की अँगड़ाई लेती हुइ्र हल्की और ठण्डी हवा ने भी अगर उनकी प्रिया के बालों को परेशान करने की हिमाक़त की तो उसकी ख़ैर नहीं।
हम निकालेंगे सुन ए मौजे सेबा बल तेरा
उसकी जुल्फ़ों के अगर बाल परीशां होंगे।
ग़ालिब चुनौती भरे समय को चुनौती देने वाले शायर हैं। ग़ालिब थे नहीं, ग़ालिब हैं। ग़ालिब जैसा शायर मरता नहीं। ‘हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है।’ ग़ालिब की शायरी जन-मानस में घर कर लेने वाली शायरी है। जब बौद्धिकों की भाषा में लिखता है ग़ालिब तो उसका मेयार यह होता है कि कविता, सभ्यता और संस्कृति की समीक्षा उसके शेरों को समझे और उद्धृत किए बग़ैर हो ही नहीं सकती। कारण यह कि ग़ालिब का रचनाकाल सभ्यता का संधिकाल है। पिछले एक दशक की छन्द-दुराग्रही हिन्दी काव्यालोचना के लिए ग़ालिब एक अपरिहार्य कवि हो चुके हैं। उन्हें उद्धृत किए बिना हिन्दी आलोचना का काम ही नहीं चलता। क्योंकि वह एक धर्मनिरपेक्ष कवि हैं। दूसरी तरफ वही ग़ालिब जब सीधी सपाट जन-भाषा में बात करते हैं तो वह मुहावरा बन जाता है। ग़ालिब के जितने मिसरे अवाम की जबान पर हैं, उतने शायद तुलसीदास के ही हैं। जबकि उसके बारे में आम मान्यता है कि वह एक कठिन शायर है। ‘गो मेरे शेर हैं ख़वास पसंद/पर मेरी गुफ़्तगू अवाम से है।’
ग़ालिब बार-बार याद आते हैं। वज़ह यह है कि वे माजी के शायर नहीं, वर्तमान के शायर हैं। ‘मैं गया वक्त नहीं हूँ कि फिर आ ही न सकूं।’ ग़ालिब एक नीम उदासी और तन्द्रा के शायर हैं। अपने में डूबे। खोए-खोए से। मगर जागृत। चैतन्य और सन्नद्ध। वे ऐश के लिए शराब नहीं पीते बल्कि एक मुसल्सल सोच में मुब्तला रहने के उन्माद के लिए मय का सहारा लेते हैं।
मय से ग़रज़ निशात है किस रुसियात को
एक गुनः बेख़ुदी मुझे दिन-रात चाहिए।
अपनी इस ‘गुनः बेख़ुदी’ की रक्षा के लिए वह अपने तर्क गढ़ते हैं। उनके लिए तर्क ही जु़दा है। वे अपना खु़दा अपनी जेब में रखते हैं। ‘हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे।’ ज़िंदगी की अपनी कसौटियाँ हैं ग़ालिब की। पूजा-पाठ, रोजा-नमाज़, इह-लोक, परलोक, स्वर्ग-नर्क, अच्छाई-बुराई, सबको वह अपनी कसौटियों पर कसते हैं। उनका अक़ीदा फ़रिश्तों पर नहीं अपने आस-पास के हाड़-मांस के आदमी पर है।
पकड़े जाते हैं फ़रिश्तों के लिखे पर नाहक
आदमी कोई हमारा दम-ए-तहरीर भी था।
यह प्रश्नवाचकता ही ग़ालिब की शायरी की जान है। ‘वो हर एक बात पर कहना कि यह होता तो क्या होता।’ ग़ालिब एक जिज्ञासु शायर हैं। उनकी प्रश्नाकुलता में बालसुलभ अबोधता है जिसका सहारा लेकर वे बड़ी से बड़ी सर्वमान्य सच्चाई को भी बेपर्दा कर देते हैं। वे दुनिया को डूब के देखते-परखते हैं। लिखे-लिखाए, कहे-कहाए पर उन्हें यक़ीन नहीं। वह मुसलमान हैं परन्तु मुसल्लम ईमान वाली हिन्दू-मुस्लिम की भेदकारी परिभाषा और साम्प्रदायिकता से दूर रहने वाले शायर हैं।
वफ़ादारी बशर्ते इस्तवारी अस्ल ईमां है
मरे बुतख़ाना में तो काबा में गाड़ो बिरहमन को।
काबा ग़ालिब के पीछे है तो कलीसा (गिरजाधर) उनके आगे है। वह रात में जमजम (काबे के निकट एक कुआं) पर शराब पीते हैं और जाम-ए-एअहराम (काबे की परिक्रमा के दौरान शरीर पर बिना सिला धारण किए जाने वाला वस्त्र) पर पड़े शराब के धब्बों को सुब्हदम धोते हैं। वे स्वर्ग पर ख़ाक डालते हैं। ‘दोज़ख में डाल दो कोई लेकर बहिश्त को।’ यह हिमाक़त वही कर सकता है जो खुद को भी प्रश्नांकित करने की तटस्थ-क्षमता रखता हो।
ग़ालिब वजीफ़ाख़ार हो, दो शाह को दुआ
वह दिन गए कि कहते थे, नौकर नहीं हूँ मैं।
ग़ालिब ने बेपनाह ऐशो इशरत की ज़िन्दगी बसर की। मगर उससे कहीं ज्यादा तंगी भी भोगी। वे बादाकश ही नहीं फाकाकश शायर भी थे। यथार्थ की रूखी-कड़ी ज़मीन पर नंगे पांव चलने का माद्दा उनके यहाँ दिखता है। ‘इन आबलों से पांव के घबरा गया था मैं/जी खुश हुआ है राह को पुरख़ार देखकर।’ शायद ग़ालिब को भी नहीं पता रहा होगा कि अन्त समय में ये आबले पांवों तक ही महदूद नहीं रहने वाले हैं। अन्तिम समय में ग़ालिब के पूरे शरीर में दाने निकले, फूटे, घाव बन गए। आप उनकी तकलीफ का सिर्फ़ अंदाज़ लगा सकते हैं।
ग़ालिब ने लगभग 72 वर्षों की लम्बी ज़िंदगी बसर की। 1797 से लेकर 1869 तक। उन्होंने तीनों अन्तिम मुगल सम्राटों – शाह आलम द्वितीय, अकबर द्वितीय और बहादुर शाह ज़फ़र को गद्दीनशीन और बेताज़ होते देखा। वे 1857 के चश्मदीद शायर थे। उन्होंने भाषा को फ़ारसीयत से निकलते और रेख़्ता (उर्दू) में ढलते देखा था। ग़ालिब नई ज़बान बनने के साक्षी थे। हालांकि बज़ातेखुद उनके मन में उर्दू के प्रति एक हीन-भाव था।
ग़ालिब की व्यक्तिगत जिंदगी बड़ी उतार-चढ़ाव वाली थी। उनके सात औलादें हुईं पर बची कोई नहीं। 30 साल का जवान भाई आँखों के आगे मर गया। पत्नी की बहन के बच्चे को गोद लिया पाला-पोसा। ‘आरिफ़’ उपनाम दिया। वह ‘राहत-ए-रुह-ए-नातवां भी 36 साल की उम्र में साथ छोड़ गया। बेगम से ताउम्र छत्तीस का ही रिश्ता रहा। हालांकि इसके लिए ग़ालिब की अपनी बोहेमियन आवाराग़र्द शायराना ज़िंदगी कम ज़िम्मेदार न थी। उम्र भर किराएदार रहे। मरे तो भी कर्ज़दार। बेवा पर 800 रूपए का क़र्ज छोड़ कर। जुएबाजी में जेल काटी पर चले तो सिर्फ पालकी पर। खुद्दारी का आलम यह कि अंग्रेज बहादुर द्वारा लगभग तयशुदा अरबी-फारसी की प्रोफेसरी ठुकरा दी तो दूसरी तरफ सारी उम्र नवाबों और अंग्रेजों से वजीफ़ों की दरख़्वास्त करते रहे। वज़ीफ़ों पर जीते रहे। कर्ज़ की पीते रहे। अग्रेजों के मोह-पाश में बँधे रहे। अंग्रेजी सरकार को पेंशन के प्रार्थना-पत्र देते रहे। दिल्ली से कलकत्ते की लम्बी यात्रा की। ताउम्र ख़िताब, ख़िलअत और मंसब का मंसूबा पाले रहे, याचना करते रहे। जिंदगी संघर्ष का दूसरा नाम रही परन्तु शायरी को पामाल न होने दिया। अपनी सारी इंसानी कमियों और कमज़ोरियों के साथ जीने वाला पिछली चार शताब्दियों का सबसे बड़ा कवि। जो लोग अपने कवि से नायकोचित व्यक्तित्व की अपेक्षा रखते हैं उन्हें शायद ग़ालिब की जाती ज़िंदगी के आधार पर उनकी शायरी और उनके नस्र (गद्य) से घृणा होगी।
ग़ालिब की कविता से कम महत्वपूर्ण उनका गद्य नहीं है। ठीक महादेवी की तरह। वरिष्ठ आलोचक डॉ0 विश्वनाथ त्रिपाठी जहाँ एक ओर उन्हें खड़ी बोली का पहला आधुनिक कवि मानते हैं, वहीं उर्दू नक्कारों के हवाले से कहते हैं कि ‘‘जो नावेल है, उसकी शुरुआत ग़ालिब के पत्रों से होती है।’’ (ग़ालिब और भारतेन्दु: आधुनिकता के दो रूप; समकालीन सृजन में प्रकाशित लेख)।
बेशक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अमीर खुसरो (1255-1324) को खड़ी बोली का पहला कवि माना है परन्तु जहाँ तक सवाल आधुनिकता का है, आधुनिक काव्य-संवेदना, भाषा और चिंतन के आधार पर ग़ालिब ही खड़ी बोली के पहले आधुनिक कवि ठहरते हैं। ‘‘ग़ालिब तसव्वुफ (आध्यात्म) की दुनिया में कभी कभार सि़र्फ टहलने जाते हैं, रमने नहीं। ……… कविता का रास्ता कल्पना का रास्ता है, तर्क, का नहीं ……. कविता इसीलिए रूपक की भाषा में बात करती है। ग़ालिब सघन रूपक के कवि हैं।’’ (मीर-ओ-ग़ालिब ले0 प्रमोद कुमार एवं विभु कुमार)।
ग़ालिब ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पहले तीन महीनों, 11 मई से 31 जुलाई, के हालात को अपनी पुस्तक ‘दस्तम्बू’ में कलमबन्द किया है। एक तरह से यह स्वतंत्रता संग्राम का आँखें देखा हाल है और सम्भवतः पहला प्रामाणिक दस्तावेज़। इसकी अहमियत का अन्दाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि स़िर्फ पाँच महीनों में ही इसकी 500 प्रतियां खत्म हो गईं और 1865 में दस्तम्बू का दूसरा तथा 1871 में तीसरा संस्करण छापना पड़ा। हालांकि दस्तम्बू के बारे में विद्वानों के बीच विरोधी धारणा है। वरिष्ठ कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह इसे अंग्रेजों के प्रति उनकी वफ़ादारी का दस्तावेज़ मानते हैं, वहीं डॉ0 नरेश का मानना है कि उपलब्ध ‘दस्तम्बू’ ग़ालिब की असली डायरी नहीं है।
‘काश यदि रोज़ी-रोटी की विकराल समस्या ने ग़ालिब को अपनी असली डायरी नष्ट करने पर विवश न किया होता तो आज हमारे पास एक महान कवि द्वारा सुरक्षित 1857 का एक-एक ब्यौरा मौजूद होता और हमें वास्तविकता तक पहुँचने के प्रयास में अटकलें न लगानी पड़तीं।’’