ना ना ना। कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं थी। कोई पुरस्कार की होड़ नहीं थी। ये कहानी है महाकवि पिंटा की, जो जम्मू में मामूली ट्रक चलाया करता था और देखते ही देखते बड़ा साहित्यकार और स्टार बन गया।
बात उन दिनों से शुरू करते हैं जब महाकवि पिंटा का ड्राइविंग लाइसेंस पुराना पड़ गया था और उसने आलस के मारे समय पर ‘रिन्यू’ नहीं कराया था। पठानकोट में उसके फुफेरे भाई की शादी भी थी। उसने सोचा कि कुछ दिनों तक ट्रक चलाने के धंधे से छुट्टी ले ली जाए। पिंटा तब कवि भी नहीं हुआ करता था। अत्यन्त स्वाभिमानी होने के कारण आठवीं कक्षा में मुर्गा बनने से इनकार करने के बाद उसने पाठशाला की तरफ पीठ जो दिखाई वह कई दिनों तक खटारा बसों के खलासी की फटी कमीज से ढँकती रही। इन सब बातों से पाठक दुखी हो सकते हैं पर पिंटा नहीं, क्योंकि आप जब पिंटा से मिलेंगे तो पता चलेगा कि वह किस मिट्टी का बना खालिस देसी आदमी था। ट्रक ड्राइवर बनने के बाद मामूली आमदनी से उसको न भविष्य की विशेष चिंता थी, न अपनी गरीबी को लेकर कोई शर्म। मेहनत करता था और खुले गले से जोर-जोर से अश्लील पंजाबी गाने गाया करता था। भगवान ने उसे बहुत सुरीली आवाज़ की नेमत दे रखी थी। था वो अपनी तरह का अलमस्त। एकदम हाजिरजवाब।
कुछ अभागे लोगों पर गाने का कोई असर नहीं पड़ता। कुछ रसिक लोग गाने सुन कर भाव-विभोर हो जाते हैं। कुछ उत्साही लोग गाने सुन कर स्वयं गाने लगते हैं। कुल प्रतिभाशाली लोग वैसा संगीत देने की कोशिश करते हैं। पिंटा इन सबसे जुदा, आखिरी किस्म का आदमी था जो गाने सुन कर वैसे गाने लिखने में यकीन रखता था। आदमी जो खाये पियेगा, वही उसकी देह में लगेगा। जो पढ़ेगा, वही लिखेगा। जो सुनेगा, वही बोलेगा। पिंटा ने जबसे ट्रक चलाना शुरू किया तब से केवल अश्लील गाने सुने और वही गुनगुनाए। ‘चमकीला’ सरीखे कई गायक को वह पसंद करता था लेकिन उन्हें अपनी प्रतिभा के सामने कुछ नहीं समझता था। पिंटा की अद्भुत प्रतिभा यह थी कि वह लगातार अश्लील और लुभावनी बात कर सकता था। जब भी शादियों में शरीक होता तब सामने वाले पक्ष को एक साँस में अनवरत इतनी गालियाँ देता कि सामने वाले यह सोचता ही रह जाता कि किस बात का क्या जवाब दिया जाए। जब तक जवाब आए उससे पहले उसकी माँ-दादी-परदादी, सबकी इज्जत की ऐसी-तैसी हो चुकी होती थी। उसके पास एक से बढ़ कर एक गालियों का ख़जाना था। बहुधा यह भारत भ्रमण करने के दौरान बहुत-सी भाषाओं के सम्पर्क में आने से उसकी मानसिक कृति ‘भारतीय गालियों का शब्दकोश’ में मौलिक परिमार्जन का परिणाम था। उसके कुछ करीबी दोस्तों का मत था कि यह ज्ञान उसे देश की नाना प्रकार की वेश्याओं के संसर्ग में आने के कारण ‘गुप्त ज्ञान’ के साथ ही ‘अतिरिक्त लाभ’ की तरह प्राप्त हुआ। उन दोस्तों का यह भी कहना था कि जब यार-दोस्तों की सोहबत में उसने अफीम के साथ चिलम-गाँजा फूँकना शुरू किया तो उसकी बुद्धि और तीक्ष्ण हो गयी। लिहाजा इतने सालों में पिंटा की प्रत्युत्पन्नमति इतनी शानदार हो गयी थी कि वह अच्छे-अच्छे को लाजवाब कर देता था। अगर देसी लोग के लिए रेडियो जॉकी का अवसर मिले तो उससे बेहतर कोई नहीं हो सकता है। पर पिंटा रेडियो जॉकी से कहीं-कहीं आगे की चीज थी। थोड़ा अपने बारे में। ईश्वर की दया से मैं छोटी-मोटी सरकारी नौकरी करता हूँ। जब बड़ी मुश्किल से किसी तरह मेरी नौकरी लग गयी तब मैंने सोचा कि अब यहाँ तक आ गए हैं, अब किधर जाएँ? मैंने देखा कि मेरे विभाग में कुछ कवयित्रियाँ थी जो अपने काव्य-संग्रहों को फुटपथिया कागजों पर छपवा कर और फेसबुक पर अपनी तस्वीरें लगा-लगा कर स्टार बनी हुयी थी। साथ ही सरकारी हिन्दी विभाग से इनाम-इकराम ले रही थी। यह सत्य मैंने बहुत बाद में जान पाया कि दसवीं और बारहवीं में जिन-जिन लड़कियों को जीव-विज्ञान में ‘स्पेशल इंटरेस्ट’ होता है जिसके कारण वे डॉक्टर नहीं तो नर्स बनने का कोमल सपना संजो कर रखती हैं, सपने पूरे न होने के कारण विवाहोपरान्त उनका ‘स्पेशल इंटरेस्ट’ कविता करने में हो जाता है। सच यह है कि मेरा ‘जेनुइन इंटरेस्ट’ था। मैं बचपन से ही कुछ करना-धरना नहीं चाहता था, केवल तुकबन्दी करना चाहता था। पढ़ाई-लिखाई पसन्द नहीं थी। खेल-कूद में भी फिसड्डी था। बाद में मैंने देखा कि कोई कवि मंच पर कविता पाठ करते हुए राजनैतिक पार्टी का लीडर बन गया, तब से मेरा ‘जेनुइन इंटरेस्ट’ सोई चिंगारी की तरह सुलग के एकदम से शोला बन गया। पर इससे क्या होता है! मैंने सोशल मीडिया पर देखा कि पहले से ही बहुत से कवि और साहित्यकार बैठे धूनी रमा रहे हैं। थोड़ा साहित्यिक रचनाओं में गोता लगाने के बाद मैंने पाया कि बहुत-सी आधुनिक कविता मेरी मोटी बुद्धि में घुसती ही नहीं। देखा कि बड़े-बड़े उसमें मार्मिकता और महानता देख पा रहे हैं। यह सोच कर मैं बहुत दिनों तक बहुत दुखी रहा।
संयोग से मेरी मुलाकात स्थानीय प्रोफेसर बनाम कवि से हुयी। मैंने एक चर्चित कविता के सम्बन्ध में कहा कि कविता बकवास है। उन्होंने मुझे सुधारते हुए कहा कि नीरस है। मैंने दुबारा कहा कि नहीं, नहीं बकवास है। उनका बस चलता तो मेरा हाथ पकड़ कर सिर पर हाथ फेरते हुए गोद में बिठा कर समझाते कि नहीं नहीं यह नीरस कविता है। उन्होंने प्रत्यक्ष में कहा कि हम दोनों एक ही बात कर रहे हैं। शब्दों का चयन अलग-अलग है।
कभी-कभी कोई बात तीर की तरह कलेजे में लग जाती है। मैंने सोचा कि वह ठीक ही कह रहे हैं। केवल शब्द का चयन ही वाक्य को अश्लील और प्रिय बनाता है। कहते हैं कि मंत्र देखने-सोचने की दिशा बदल देती है। कवि-प्रोफेसर से मिला मंत्र ले कर मैंने हिन्दी कविताओं को ध्यान से पढ़ना शुरू किया। जो प्रसिद्ध कवि और कवयित्रियों की रचनाएँ बेहद चर्चित थीं उनको मैंने ध्यान से पढ़ना शुरू किया। किसी को अपने गुदा पर अभिमान था, किसी को गुदा चिन्तन से आत्मिक सुख मिल रहा था। किसी कवयित्री को अपने बॉयफ्रेण्ड की पूँछ आगे की तरफ दिखती थी। कोई क्रान्तिकारी गुसलखाने में जा कर अपनी गुलाबी गुफा निहार रही थी और इस तरह निहार-निहार कर वे पितृसत्ता को तोड़ रही थी। किसी के लिए स्त्री अपने जननांग में रहती थी। अमुक कवयित्री को यह दुख साल रहा था कि उसके अंदरुनी कोमल अंगों पर ममता का स्पर्श नहीं मिला। अमुक कवि के लिए आक्रान्ताओं का चट्टानों पर पुरुषविशेष द्रव बिखेरने से उनका साभ्यतिक योगदान दृष्टमान था।
इन सारी ‘उत्तर-आधुनिक’ कविताओं के लब्बो-लुआब से यह निकला था कि आज के दौर में कविता करने के मैं काबिल नहीं था। इन सब चीजों से मैं घबराता नहीं था, गाँव का आदमी हूँ इससे ज्यादा जानता-समझता हूँ। लेकिन क्या करूँ कि गाँव का आदमी हूँ, बहुत सी बातें जानते-बूझते बोली नहीं जाती। हमारे गाँव में कुछ बातों का लिहाज किया जाता है और कुछ बातों को नज़रअंदाज़ किया जाता है ताकि आँखों का पानी बना रहे। फिलहाल मुझे ज़माने के हिसाब से अपनी नाकाबिलियत और नाकामी पर सख्त अफसोस हुआ।
कहते हैं जो सोए ‘जेनुइन इंटरेस्ट’ वाले अरमान दिल में धीमे-धीमे सुलगते रहते हैं। वे कभी न कभी चिंगारी बन कर उभरते हैं। हमने विचारा कि चिंगारी को शोला बनने के लिए चाहिए सूखी लकड़ी। एकदिन वह सूखी लकड़ी मुझे पिंटा की प्रतिभा में मिल गयी। एक शादी में जब उसने हँसते हुए फरमाया कि खड़ा होना ठीक है पर गलत जगह खड़ा होना ठीक नहीं है। कह कर उसने जो कहकहा लगाया और मजमा जमाया कि सुन कर शरीफ लोग ने कान पर हाथ धर लिए और वहाँ से तशरीफ ले गए। मैं फिर भी सुनता रहा। मैंने सोचा कि उसकी उक्ति के कितने राजनैतिक मायने निकाले जा सकते हैं। एक मतलब यह भी हुआ कि जहाँ हार निश्चित हो तो उस सीट पर चुनाव नहीं लड़ना चाहिए। कहा जाए तो उसकी बातों में अर्थों को नया सिलसिला निकलता था। जब इंसान श्लील-अश्लील से ऊपर उठ जाए, तब कहे पर गौर करता है कि गुस्से, नफरत, कुंठा, सेक्स की चाह के अलावा भी कुछ और है क्या?
पिंटा में मुझे वह सब नज़र आया। भाई वह बात तो ईमानदारी की कर रहा था। साथ ही मैं विचार करने लगा कि संसार में मेरा जीवन तो व्यर्थ है ही। खाने-सोने और परिवार के लिए एक मकान बनाने के अलावा मेरी जिन्दगी में और कुछ रखा ही क्या है। मेरी दिल में यह ख्वाहिश जागी कि इस अनूठी प्रतिभा को यूँ ही नष्ट नहीं होने दूँगा। मैं इसे संसार के सामने लाऊँगा और दुनिया को दिखा दूँगा कि सच्ची प्रतिभा दिल्ली-बम्बई में नहीं है, बल्कि भारत के गाँवों में है। उनमें है जिनको पढ़ने का मौका नहीं मिला, जो चार रोटियाँ कमाने के लिए दिन-रात की कड़ी मेहनत करने में जुट गए।
मैंने पिंटा को अकेले मिलने के लिए बुलाया। उसे बड़ा अचरज हुआ कि एक पढ़ा-लिखा आदमी, नौकरीशुदा एक मामूली ट्रक ड्राइवर को अपने घर क्यों बुला रहा है। मेरे बहुत कहने पर उसने मेरा मान रखा और अगले शाम को वह अपनी ग्रीज़ लगी बदबूदार शर्ट पहने मेरे बैठकखाने में आया। चाय-नाश्ते के बाद मैंने उसे लैपटॉप पर समकालीन महत्त्वपूर्ण कविताएँ पढ़ने को दी। बेचारा हिन्दी पढ़ना-लिखना जानता था। मैंने कठिन शब्दों के मतलब बताए। वह पढ़ कर हँसने लगा। खूब हँसा। उसके साथ-साथ मैं भी हँसने लगा। थोड़ा हँसना कम हुआ तो मिर्जापुर वेबसीरिज के तीसरे सीजन की कविता पाठ को भी उसे दिखा-सुना दिया। वह हँसते-हँसते लोट-पोट हो गया।
वह आदतन गालियाँ निकालते हुए चीखा, “ये? ये…. %%%$% — ये कविता है? ये कवि हैं?”
मैंने समझाया कि यही कविता है। उसने कहा, “इससे अच्छी तो मैं कविता लिख दूँगा।’’
“बेशक।’’ मैंने जवाब दिया।
फिर वह चुप हो कर मेरा मुँह देखने लगा। उसने निगाहों से पूछा कि मैं उससे क्या चाहता हूँ। मैंने कहा, “तुम सोच रहे होगे कि मैं तुमसे क्या चाहता हूँ। भाई मैं तुम्हारा भला चाहता हूँ। बदले में कुछ नहीं चाहता। मैं चाहता हूँ कि तुम संसार के बड़े कवि बन जाओ। लेकिन तुम दुनिया के तौर-तरीकों से वाक़िफ़ नहीं हो। तुममें कवि-हृदय तो है, पर तुम्हें कवि दिखना होगा। इसमें मैं तुम्हारी मदद करूँगा। जो कविता तुम लिखोगे मैं उसमें कुछ शब्दों का हेर-फेर दूँगा। इससे तुम पर अश्लीलता का दाग़ कभी नहीं लगेगा। जल्दी ही तुम स्टार बन जाओगे। उसके बाद कामयाबी तुम्हारे कदम चूमेगी। हो सकता है तुम दिल्ली बुला लिए जाओ।’’ पिंटा को हमारी बात जँच गयी।
प्रतिभा में शक्ति कितनी भी हो, बिना परिवेश के, बिना अभ्यास के फलफूल नहीं सकती। महान कवि ज़माने से दो कदम आगे चलता, इसलिए समय के पार चला जाता है। कहते हैं इतिहास अपने आप को दुहराता है। पिंटा ने जो शुरू में कविताएँ लिखीं वह मल-मूत्र से जुड़ी थी। मैंने समझाया कि ‘ज़टल्ली’ और ‘चिरकीन’ का जमाना अभी नहीं है। वह ज़माना लौट कर एकबार फिर आएगा ज़रूर, पर अभी उसमें डूबने का सही वक़्त नहीं आया है। अभी दो कदम पीछे हट कर नैसर्गिक लिखना शुरू करो।
जो बात कही नहीं गयी वह यह थी कि बात गन्दगी की नहीं, बल्कि फूहड़ता और अश्लीलता से ओत-प्रोत ‘आधुनिक’ कविता की है, मतलब गालियाँ और जननांग विमर्श। मेरा विचार था कि फूहड़ता शब्द बदल देने से छिप जाएँगी और जल्दी ही आधुनिक कविता के अम्बर में नई रश्मियों से चमकती हुयी अनुपम कहलाएँगी और नयी चेतना की क्रान्ति के रूप में साहित्य में सुशोभित होंगी। इन शब्दों से जुड़ी कविताएँ अविनाशी होंगी और देवी के प्रसाद सरीखे ग्रहण की जाएँगी। अंत में मैंने शुभकामनाएँ देते हुए कहा,‘इतिशुभम’।
पिंटा जल्दी ही अपने पर उतर आया और उसने बड़ी गालियों और लानत भरी कविता मुझे दी। मैंने एक चतुर सम्पादक की तरह गालियों का लक्ष्य ट्रक के मालिक के बजाय भ्रष्ट राजनेता, परम्परा, बेकारी, साम्प्रदायिकता, जाति-धर्म आदि कर दिया। जहाँ-जहाँ उसने टोल-टैक्स देने वालों को गाली दी, वहाँ मैंने बदल कर ‘सरकार’ कर दिया। मैंने वही किया जोकि आजकल की कुछ बम्बइया फिल्मों को चलन है – फिल्मों में हीरो-हिरोइन है और जहाँ विलेन वाला मुख्य तत्त्व है वहाँ पर भ्रष्टाचार, खराब शिक्षा व्यवस्था आदि से बदल दो। मूल स्वर यह होना चाहिए था कि दुनिया में अच्छाई और सचाई का ठेका केवल कवि के पास है। अभी तक वह पिंटा के कविता में आया नहीं था। मुझे पूरी उम्मीद थी कि वह जल्दी ही ऐसा कर दिखाएगा।
सुबह-सवेरे उसके ट्रक के पास मैं पहुँचा। उसने अपना लाइसेंस रिन्यू करवा लिया था। पिंटा वापस ट्रक में बैठ कर ठहाका लगा कर अपनी कविताओं के बारे में पूछने लगा। मैंने उसे अपनी योजना बतायी कि किसी स्त्री नाम से उसकी कविताएँ महीने भर विविध पोर्टलों पर लगाऊँ। बाद में उसका नाम जगजाहिर कर दूँगा। सुबह-सुबह की कुल्हड़ वाली चाय की चुस्कियों पर उसने मेरे आइडिया को फौरन खारिज़ करते हुए कहा कि मुझे दुनिया में किसी बैसाखी की ज़रूरत नहीं है। ऐसा है कि आप मेरे साथ तस्वीर ले लीजिए। परिचय में केवल इतना लिखिए कि पिंटा जम्मू में ट्रक चलाता है। पिंटा ने पूरा भारत देख रखा है। इतना काफी होगा। उसका दावा था कि जितना भारत उसने देखा है किसी कवि के बाप-दादा ने नहीं घूमा होगा। मैंने सोचा कि अनुभव वाली बात तो उसकी लाज़िमी जान पड़ती है।
पिंटा के साथ मैंने ट्रक के सामने सेल्फी ली। उसके नाम की ईमेल आईडी बनायी। उसकी कविताओं में कुछ हेर-फेर कर के मैंने उसे एक प्रसिद्ध वेबसाइट पर भेजा। उधर से संपादक का जवाब आया कि यह कविताएँ बड़ी अच्छी हैं। उनकी जिज्ञासा थी कि पिंटा सिंह जी, क्या आप कहीं पहले भी छपे हैं? मैंने ना में उत्तर दिया। संपादक ने सूचित किया कि यों तो हम हर नए कवि की कविता बिना शर्त लगाते हैं, पर यह विशेष जान पड़ती हैं। जल्दी ही आपकी कविताएँ लगा रहे हैं पर ये ‘पिंटा सिंह’ के बजाय ‘पिंटा’ के नाम से छपेगी। ऐसा करना अधिक सुन्दर लगेगा। साथ ही में यह शिकायत में छुपी हुयी शर्त भी जोड़ दी कि आप सोशल मीडिया पर भी नहीं हैं।आपको सोशल मीडिया पर आना पड़ेगा।
मैंने मन ही मन सम्पादक के सौन्दर्यबोध को धन्यवाद दिया। पिंटा के नाम से मैंने सोशल मीडिया पर नई प्रोफाइल बनायी। पिंटा ने भी खुशी-खुशी अपने जान-पहचान वालों को सोशल मीडिया पर ढूँढ निकाला।
इसके चार दिन बाद दोपहर में जब मैंने सोशल मीडिया खंगाला तो पता चला कि पिंटा की कविताओं ने तहलका मचा दिया है। संपादकीय गलती यह हो गयी थी कि जो तस्वीर मैंने भेजी थी, उसमें पिंटा को हटा कर केवल मेरा चेहरा ट्रक के साथ दिख रहा था। मैं सोच में पड़ गया। मैंने आए एक हज़ार टिप्पणियों को पढ़ना शुरू किया। देखते ही देखते वे बढ़ती ही जा रही थीं। मैंने पिंटा को फोन मिलाया और उसकी कामयाबी के बारे में बताया। वह भी सुन कर बड़ा खुश हुआ। शाम में वह मुझसे मिलने आया। मैंने उसे पोर्टल पर छवि कविता के साथ उस फोटो की गड़बड़ी के बारे में बताया जिसमें ट्रक के साथ मेरा टका-सा चेहरा आ रहा था। पिंटा पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ा। उसने ठहाका लगाते हुए कहा, ‘कोई दिक्कत नहीं। है तो सब खेल ही न!’
मैंने पिंटा से और कविताएँ माँगी। इस बार उसने सूक्तियाँ लिखीं। किस तरह स्त्रियाँ अपने अंग विशेष का प्रदर्शन कर के पुरुष को अपना गुलाम बना सकती हैं। किस तरह पुरुष अपनी उत्तेजना में अपना घर-बार लुटा सकते हैं। शराब का नशा आदमी के किन अंगों पर कैसा प्रभाव डालता है। यह सही मायनों में सच्चे ओर अनुभवी शराबी की सूक्तियाँ थीं। पिंटा के नाम से मैंने यह कविताएँ दूसरी वेबसाइट पर भेजा। जैसा मैंने सोचा था पिंटा उससे कहीं अधिक पसन्द किया जाने लगा। उस पर विमर्श चल रहे थे। कुछ लोग उसको गिराने में लगे थे। तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नहीं मैं गिरा तो मसअला बन कर खड़ा हो जाऊँगा। इस तरह पिंटा बहुत बड़े मसले की तरह खड़ा हो गया।
वे दिन पिंटा की जीवन भर की कमाई लुटाने के दिन थे। अधिकतर कवियों की, कलाकारों की पहली कुछ रचनाएँ उनके जीवन की जमा-पूँजी होती है, जिन्हें वे जल्दी लुटाकर नंगे हो जाते हैं। इसके बाद उनके पास कुछ नहीं रह जाता सिवा दूसरों को गालियाँ देने और अपनी किस्मत को कोसने के सिवा। पिंटा जल्दी कही कई वेबसाइटों पर प्रकाशित हुआ। देखते ही देखते वह सोशल मीडिया में साहित्य का नया सितारा बन गया। मुझे इस बात का बेहद अफसोस था कि मैंने अगर किसी सुन्दर स्त्री की तस्वीर लगायी होती, स्त्री नाम से यह कविताएँ छपवायी होती तो उसे इससे दस गुनी अधिक प्रसिद्धि मिल चुकी होती।
पिंटा ने इसके बाद एक नज़्म लिखी जिसका शीर्षक ही गाली से शुरू था। हालाँकि पिंटा की कामयाबी से मेरा दिल भी कुछ जल गया था, पर मैंने बड़ी शराफत से अपना काम चालू रखा। मैंने शब्दों को खूबसूरती से बदल कर कविता का शीर्षक रखा – ‘हे अगम्या गमन करने वालों’। पिंटा के कॉपीराइट के कारण वह कविता अभी उद्धृत नहीं कर सकता पर उसका सार संक्षेप यह था – हे अगम्या गमन करने वालों, आपने देश की बहुत ऐसी-तैसी की है। बहुत दिनों तक लूटा-खसोटा है। बहुत वादे किए। बहुत यात्राएँ की। झूठे सपने दिखाए। लेकिन देश को बरबाद करने का अपराध अगम्या गमन से ‘अधिक संगीन है’। ‘अधिक संगीन है’ की टेक पर दलित विमर्श, महिला विमर्श, प्रवासी विमर्श, पायु व उपस्थ विमर्श, आदिवासी विमर्श, पुरस्कार विमर्श, सारे विमर्श एक-एक करके डाल दिए गए।
यह कविता साहित्य के सबसे लोकप्रिय पोर्टल पर छपी। इसके साथ ही प्रशंसा और धिक्कार, दोनों की बाढ़ एक साथ आ गयी। सैकड़ों ने यह कविता शेयर की। बड़ी ही जल्दी उसके मीम बनने लगे। इसके चार दिन बाद राज्यसभा के एक सांसद ने अपने भाषण के दौरान कविता की टेक ‘अधिक संगीन है’ कोट कर दी। इसके बाद पक्ष-विपक्ष में हंगामा मच गया। कोई इसे गाली मान रहा था, कोई इसे कटाक्ष, और कोई इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाम दे रहा था। संसद में जूते चलने लगे। माइकें उखाड़ कर फेंके जाने लगे। राष्ट्रीय राजनीति में हिन्दी कविता की ऐसी आभा दिनकर और श्रीकान्त वर्मा के बाद देखने को मिल रही थी!
पिंटा उस शाम मेरे पास आया। उसे अपनी कविता का ऐसा प्रभाव देख कर बड़ी तकलीफ हुयी। मुझे मन ही मन कोफ्त हुयी कि क्या यह कविता तुम्हारी थी? इसे तो मैंने पढ़ने लायक बनाया था। पर प्रकट में मैंने कुछ नहीं कहा। डर के मारे मैंने अपना फोन स्विच ऑफ कर दिया कि कहीं से कोई मुझे पकड़ कर मरम्मत न कर दे। भले ही कविता पिंटा के ईमेल अकाउण्ट से भेजी गयी है, पर तहकीकात करने पर उसका उद्गम मेरे फोन तक ट्रेस किया जा सकता है। तस्वीर भी मेरी है। बस नाम मेरा नहीं है। यह सोच कर राहत ली कि मेरा फोन नम्बर किसी के पास नहीं है। अभी खतरा इतना नहीं आया है।
मामला शान्त होने देने के लिए मैंने कुछ दिन तक पिंटा को ठण्डा हो जाने को कहा। उसने मुझसे कुछ पढ़ने को माँगा। पिंटा अब कविता को लेकर कुछ गम्भीर हो गया था। मैंने उसे महाअश्लील कवि बिहारी की ‘बिहारी सतसई’ और विद्यापति की कविताएँ हिन्दी टीका के साथ पकड़ा दी। पिंटा उन्हें अपने साथ ले गया। जाने से पहले उसने कहा कि मैं अब तक काली का भक्त था। अब समय आ गया है कि सरस्वती की भी पूजा करूँ, ऐसा कह कर वह हँसने लगा।
करीब चार दिनों बाद मैंने डरते-डरते पिंटा का सोशल मीडिया अकाउण्ट खोल कर देखा। बहुत से मैसेज आए थे। कोई बड़ी संस्था कवियों के सम्मेलन में दिल्ली बुला रही थी। दो जनों का आने-जाने का किराया, रहने की व्यवस्था का उत्तम इंतज़ाम था। किसी राजनैतिक पार्टी की तरफ से भी आमंत्रण था। सम्पर्क सूत्र माँगा जा रहा था।
मैंने सोचा कि यही मौका है कि अब पिंटा के बजाय मैं ही ‘महाकवि पिंटा’ बन जाऊँ। फिर सोचा कि यह पिंटा के साथ बेईमानी होगी। सोचने लगा कि पिंटा से पूछ लेता हूँ। वह शायद मना भी नहीं करेगा। वह भोला, उज्जड-गँवार आदमी है; क्या करेगा कवि बन कर? यह सब सोचते-विचारते मैंने पिंटा को बुलाया।
पिंटा को दिल्ली चलने के लिए पूछा। मामूली ट्रक ड्राइवर पिंटा आवभगत के नाम से बहुत खुश हुआ। दिल्ली तो आना-जाना कई बार हुआ था पर किसी ने आज तक इज्जत नहीं दी थी। किसने कभी बड़े होटल में ठहरने को नहीं कहा। अपनी बाँहे खुजाते हुए उसने खुद ही कहा, “एक काम कर दीजिए भैया। मेरे बदले आप ही पिंटा बन जाइए। तस्वीर भी आपकी लगी है। कौन पहचानेगा। मैं गँवार क्या बोलूँगा। आप अच्छा बोलेंगे। मैं पीछे बैठ कर सुनूँगा। कम से कम नाम तो मेरा ही होगा।’’ नेकी और पूछ-पूछ।
मैंने संस्था को ई-पत्र लिखा कि मेरे साथ एक मित्र भी कार्यक्रम में आएँगे। इसलिए दो आदमियों की रहने-खाने की व्यवस्था कर दें। हमारी बस एक ही शर्त है। हमारा नाम पिंटा के बजाय ‘महाकवि पिंटा’ से सम्बोधित किया जाए। हम कार्यक्रम में सबसे आखिरी में बोलेंगे। हम दर्शक दीर्घा में बैठे रहेंगे और वहीं से उठ कर मंच पर आएँगे। यह शर्तें मंजूर हो तभी हम आएँगे। हम जानते थे कि हमें मना करना उनके लिए ‘अधिक संगीन है’, अत: हमारी सारी बातें मान लीगयी।
जब हम रेलगाड़ी में बैठ कर दिल्ली के लिए रवाना हुए, तब धुले कपड़े पहने और हजामत किए हुए साफ-सुथरे पिंटा ने मुझे एक कॉपी बढ़ाई। मैंने पलट कर देखा। मैंने पढ़ कर कहा, “ये क्या पिंटा? तुम ये दोहे क्यों लिखने लगे?”
पिंटा का चेहरा कुम्हला गया। उसने पूछा, “क्या ये अच्छा नहीं है?”
मैंने पढ़कर कहा, “कुछ-कुछ शृंगारिक है। पर मुझे बहुत कुछ समझ नहीं आया।’’ पिंटा ने मेरे हाथों से कॉपी ली और पढ़ कर समझाने लगा कि दोहे में यह कहा गया है कि नायिका नायक से कह रही है बहुत दिनों तक तुमने मेरे होंठो का मीठा पानी पिया है, लेकिन तुम्हारी प्रीत झूठी है। अगर यह सच्ची होती तो तुम पहले मेरी पलकों की बूँदे पी लेते।
मैंने अपना सिर पकड़ा और समझाया – ‘पिंटा, तुम्हारा ऐसा करना अधिक संगीन है। तुम यह सब छोड़ो और अपनी असलियत पर आओ। मैं ठीक कर के दिखाता हूँ और फिर देखना तुम कि दुनिया तुम्हारे कदमों पर होगी।‘
पिंटा ने उदास हो कर मुँह फेरते हुए कहा, “मेरी असलियत आप क्या जानते हैं भैया?” मेरे पास इन बातों के लिए कोई समय नहीं था।दिल्ली के मण्डी हाउस में त्रिवेणी कला संगम का सभागार ठसाठस भरा हुआ था। पिंटा और मैं दर्शकों में छुपे कहीं पीछे बैठे थे। तमाम आधुनिक कवि और कवयित्रियाँ योनि विमर्श, शिश्न विमर्श, गुदा विमर्श आदि पर बड़ी बेशर्मी से अपनी कविताएँ पढ़ रहे थे। उसे मार्मिक, बोल्ड, अद्भुत, नया, अनोखा, साहस भरा, बेड़ियाँ तोड़ता आदि बताने वाले स्वनामधन्य कवि-आलोचकगण वाहवाही किए जा रहे थे। ऐसे में पिंटा उन्हें चुपचाप सुनता जा रहा था। उसने थक कर मुझसे कहा, “इनमें से एक भी इतनी ताकत नहीं है कि अभी-के-अभी कुछ नयी कविता कह दे। मेरा इनसे क्या मुकाबला।’’ पिंटा की गर्वोक्ति से मुझे बड़ी चिढ़ हुयी। मैंने उसकी कॉपी ले ली और पलटने लगा।
इसी क्रम में एक वृद्ध कवि मंच पर आए और कहने लगे, “यह ठीक है श्लील और अश्लील शब्द के बजाय अर्थ में, और मंशा में कहीं अधिक छुपी होती है। एक पल के लिए हम यह भी मान लें कि शब्द और अर्थ जुड़े नहीं हैं, पर शब्दों के सामाजिक ग्राह्य स्वरूप को कैसे नकारे? अगर ये शब्द को आप बुरा नहीं मानते हैं तो आप अपना नाम या उपनाम ‘योनि कुमारी’ या ‘शिश्न कुमार’ क्यों नहीं रख लेते? कम से कम इसी नाम से कविता करिए। मैं समझता हूँ कि इसी में सच्ची आधुनिकता होगी।’’ उनकी बात सुन कर सभा में हंगामा मच गया। बड़ी मुश्किल से संयोजक ने सबों को शान्त किया।
शोर थमने के बाद अंत में मंच से पुकारा गया, “देवियों और सज्जनों, अब हम निवेदन करते हैं महाकवि पिंटा से, जो आज ही जम्मू से आए हैं, जिनकी कविताओं ने पिछले एक महीने में भारत में धूम मचा रखी है, जो कि इतने जमीन से जुड़े हैं कि वे दर्शक दीर्घा में बैठना पसन्द करते हैं, महाकवि पिंटा आप अब मंच पर आ जाएँ। इनका तालियों से जोरदार स्वागत कीजिए।’’
मैंने पिंटा की ओर देखा। उसने तालियाँ बजाते हुए मुझे कोहनी मारते हुए उठने को कहा। मैं खड़ा हुआ और तालियों से रोमांचित हो उठा। क्यों न हूँ? यह खेल मेरा ही तो रचाया हुआ था। मैने ही पिंटा को महाकवि बनाया था। सीढ़ियों से उतरते मैं हर एक ताली को गौर से सुन रहा था जोकि मेरी विजय ध्वनि थी। वीर वही होता है जो भोग सके। आज यह यश मुझे भोगना था। यह मेरे ही लिए है।
हर्षध्वनि के बीच मैं मंच पर पहुँचा और तालियों के रुकने का इंतज़ार करने लगा। मैंने माइक संभाल कर वहाँ बैठे गणमान्य लोगों का अभिवादन किया। उसके बाद मैंने कविता पढ़नी शुरु की – ‘हे अगम्यागमन करने वालों’। पहली ही पंक्ति पर जोरों से तालियाँ पड़ी। पड़नी ही थी। आखिर शोहरत अपना रंग न क्यों न दिखाए?
इसके उपरान्त पूरी कविता मैंने तालियों की गड़गड़ाहट में ही पढ़ी। श्रोतागण मेरे साथ हर टेक पर जोर से चिल्लाते – ‘अधिक संगीन है।‘
पूरी कविता पढ़ लेने के बाद मैंने एक नज़र दूर कोने में बैठे पिंटा पर डाली। मैंने फिर सभा में कहा, “दोस्तों , मैंने कुछ नए दोहे लिखे हैं। वही आपको सुनाता हूँ।’’ उसके बाद मैंने एक-एक कर के पाँच दोहे पढ़े। लेकिन जैसे श्रोताओं को साँप सूँघ गया हो। आखिरी दोहे पर एकमात्र ताली मंच पर बैठे वृद्ध कवि ने बजायी जैसे कि वह पूरे सन्नाटे को तोड़ती मेरा मजाक उड़ा रही थी। इसके बाद मुझे लगा कि जैसे मैं बेइज्जत हो चुका हूँ। मन ही मन मैं खुश था कि पिंटा को उसकी असलियत बता दी। मेरी सहायता के बिना वह कुछ नहीं। इसके बाद मैं वापस दर्शक दीर्घा में अपनी सीट पर आ गया और पिंटा के बगल में बैठ गया।
समारोह खत्म होने के बाद एक प्रकाशक मेरे पास दौड़े-दौड़े आए। उन्होंने मुझसे महाकवि पिंटा के पहले कविता संग्रह के अनुबन्ध के लिए प्रस्ताव दिया। उसने बधाई के साथ-साथ यह भी हिदायत दी कि संग्रह में दोहे-वोहे मत डालिए। अभी तक जो कविताएँ चर्चित रही हैं, केवल वही डालिए। इन दोहों से आपकी मार्केट-वैल्यू डाउन हो जाएगी। पिंटा चुपचाप सुनता रहा और उसने मेरे कानों में कहा, ‘‘भैया, अब कविता-वविता नहीं करनी। कह दो कि और कविताएँ नहीं मिलेंगी।’’
मैंने प्रकाशक से कहा,“देखिए, इसके बाद शायद आपको और कविताएँ न मिलें। “प्रकाशक ने कहा, “यह ज़रूरी थोड़े ही है कि आप कविताएँ लिखते रहें। एक संग्रह के बल पर आप चालीस साल तक राज कर सकते हैं। बस आप यह कहते रहिए कि अभी दूसरा कविता-संग्रह आने वाला है। देखिए आपकी किताब स्वयं कितने आलोचकों को चुन लेगी और कितनी चर्चा होगी।’’ मैंने हामी भर दी।
जब हम सभागार से निकलने को हुए, तब वह वृद्ध कवि टकराए जिन्होंने आखिरी दोहे पर तालियाँ बजायी थी। मैंने उन्हें नमस्ते किया और शिकायत की, ‘आपने हमारा तमाशा बना दिया।‘ वृद्ध कवि मुस्कुराए और बोले, “तमाशा तो आपने कविता का बना दिया है। खैर, आपके आखिरी दोहे को सुन कर लगा कि आप सच में महाकवि बन सकते हैं।’’ यह सुनते ही पिंटा की आँखें नम हो गयी। उसने बड़ी ही व्याकुलता से वृद्ध कवि का हाथ पकड़ कर पूछा, “सच में, सच में आपको ऐसा लगता है?’
वृद्ध कवि अपना चश्मा पोंछते हुए ठिठके, फिर आगे बढ़ते हुए उन्होंने हम दोनों से कहा, “सभ्यता का पतन नैतिकता के पतन से शुरू होता है। सबसे पहले यह पतन कविता, संगीत, नृत्य, फिल्म में आता है। धीरे-धीरे पूरे समाज में फैलता जाता है। समाज तो है ही हमेशा से गन्दा, पर उसकी शुचिता की रक्षा का भार कला और काव्य पर होता है। कुछ लोग ही शुचिता सँभालते हैं। यथार्थ के नाम आप अपने अज्ञान में हमारी आशाओं पर पानी फेर रहे हैं। यही सत्य है जिसे जानने-बूझने में साठ-सत्तर साल लग जाते हैं। अश्लीलता केवल मंशा में ही नहीं, फूहड़ आस्वादन में भी होती है। बहरहाल यह अच्छी बात है कि आपकी दो कौड़ी की रद्दी कविताओं में कुछ ऐसी हैं जो रीतिकाल की परम्परा से जुड़ने का प्रयास करती हैं। लेकिन आप स्वयं यह विडम्बना देख सकते हैं कि अच्छी कविता को पाठक और गुण ग्राहक नहीं मिलते। दरअसल कामयाबी के बाद बहुतों को नापसन्द आना कविता की दुनिया में अधिक संगीन है।’’
रात में होटल के कमरे में सोने से पहले पिंटा ने मुझसे साफ-साफ कहा, “भैया, अब कविता-वविता हमें नहीं करनी। है तो यह खेल ही ना। हम ट्रक चला कर ही बहुत खुश हैं। ऐसा कीजिए कि आप ही पिंटा बन कर लिखते रहिए।’’
होटल के नर्म गुदाज बिस्तर पर पड़े-पड़े मैं महाकवि पिंटा बना यह सोचता रहा कि अब यहाँ तक आ गए हैं, अब किधर जाएँ? जम्मू लौटते ही पिंटा से पीछा खुद-ब-खुद छूट जाएगा। लेकिन मैं कहाँ से लाऊँगा वो धाराप्रवाह गालियाँ? वह हाजिरजवाबी? मैंने सोचा कि मुझे कुछ दिन के लिए ट्रक चलाना शुरू करना चाहिए। इतना समय न मिले तो किस्म-किस्म की गन्दी गालियाँ सीखने के लिए मण्डियों में वेश्याओं के पास जाऊँगा। मैं भी शराब पियूँगा, नशा करूँगा और उसे बुरा नहीं कहूँगा। मैं भी ताश-जुआ खेलूँगा। शायद इस तरह से ही मैं अपने दम पर कामयाब हो जाऊँगा। और फिर.. और फिर एक दिन मैं सच में ‘महाकवि पिंटा’ बन जाऊँगा।
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प्रकाशकीय कथन
यह कहानी बहसतलब है। सांकेतिक रूप में जिन कवियों की शिनाख़्त यहां हो पा रही है, उनमें कुछ हमारे लिए बेहद जिम्मेदार और शानदार कवि हैं। वे हमारे सबसे प्रिय कवि हैं। इस कहानी को प्रकाशित करने से पहले बहुत विचार किया, फिर विष्णु खरे की याद आयी, वे इस पर क्या कहते – शायद इसके पक्ष में खड़े हो जाते या शायद इसकी धज्जियां उड़ा देते – अति पर खड़े होना उनके व्यक्तित्व में था। यह कहानी भी अति और अतिरिक्त कुछ कहती है।
हम इस कहानी के कुछ अंशों से नितान्त असहमत हैं। बतौर सम्पादक हमारे दायित्व कुछ और हैं।
कविता पर प्रचण्ड प्रवीर की मान्यताएं किंचित शास्त्रीय हैं। हम उसे सामाजिक मानते हैं। साधारण जन की बात। उन वंचनाओ और संघर्षों की, जिनमें साधारण जन सदा घिरा रहता है। वह व्यंग्य और विद्रूप में भी बहुत कुछ कहता है। सामाजिक -राजनीतिक-ऐतिहासिक चेतना सम्पन्न कविता और कवि हमारे लिए सबसे मूल्यवान हैं।
– अनुनाद