अनुनाद

हम सिमट रहे हैं अनंत से सूक्ष्‍म में – मोहन सिं‍ह रावत

अहसास

चोटी में चढ़ने के बाद

नीचे उतरना शायद

धरा में खड़े रहने के लिए

जरूरी है इसीलिए

चोटी अन्त भी है

जिसके बाद

एक अनन्त विस्तार है

सीमा रेखा से परे।

 

चोटी पर पहुँचना

ऊँचाई को

स्पर्श करने जैसा है

खुद के ऊँचे होने का

प्रमाण नहीं।

 

चोटी लक्ष्य है

जबकि पताका हाथ में है

पताका फहराने के लिए

चोटी का होना जरूरी है

 

लेकिन चोटी पर विजय से

कहीं बेहतर है

बौनेपन के अहसास में

खुद चोटी हो जाना 

 

ऊँचाई की

सीमा के पार 

खुद में विस्‍तार को 

समेट लेना  

*** 

M.F.Husain

 

हम सिमट रहे हैं

हम सिमट रहे हैं

अनंत से सूक्ष्म में

छू लिया है हमने

अपनी महत्वाकांक्षा से चरम को

धरती-आकाश-समुद्र

सब कुछ मुट्ठी में है हमारी।

 

हमारा कद बहुत ऊँचा है

इतना कि हम नीचे जमीन पर

रेंगते जीवों की कल्पना तक

नहीं कर सकते

कल उन्हीं में से एक थे हम

पर आज उन सबसे अलग।

 

अनंत ऊँचाईयाँ छूकर भी

हम हैं खाली हाथ

अनगिनत अतृप्त निगाहें

करती हैं प्रश्न

कि हम भी तो थे तुम जैसे

फिर क्यों यह अंतर?

 

नहीं की है चाँद-सितारे छूने

समुद्र की गहराई नापने की कल्पना

बहुत नहीं लेकिन

इतना तो चाहिए ही

कि भर सकें पेट

ले सकें खुली हवा में साँस

और सिर पर हो छत

जो बचा सके गर्मी के थपेड़ों

बरसात की बूँदों और सर्द हवाओं से।

 

हमें फर्क नहीं पड़ता

तुम्हारी ऊँची उड़ान से

लेकिन कब्जे में है जो तुम्हारे

हवा, मिट्टी और पानी

उसमें से बस

थोड़े की चाह है

क्या दोगे हमें?

*** 

M. F.Husain

 

बस्ती

 तंग गलियों के                      

उन मकानों की छतों पर भी        

पसरती है धूप               

गिरती हैं बरसात की बूँदें            

चिड़िया भी पसन्द करती है         

उन्हीं पर

अपना घोंसला बनाना               

जिसमें उसकी चहचहाट             

नहीं है दखल किसी के मौन में।    

 

एक-दूसरे से सटे                    

छोटे-छोटे अनगिनत झोपड़े          

मकान की शक्ल में                 

देते हैं रूप एक बस्ती को।          

 

बस्ती                               

जिसमें बसता है जीवन                     

रोज की आपाधापी                  

और तंगहाली के साथ।     

                

खटकता है किसी को एक दिन      

टाट पर लगे पैबन्द की मानिंद       

और कोई बुलडोजर

ढहा देता है उस समूची बस्ती को।  

 

अब उस बस्ती की जगह

खड़ी है एक विशाल ईमारत

 जिसकी छत पर पसरती है धूप

और गिरती हैं बरसात की बूँदें

संकोच के साथ।

 

चिड़िया भी पसन्द नहीं करती

उस ईमारत पर अपना घोंसला बनाना

क्योंकि उसकी चहचहाट

भंग कर सकती है

किसी का मौन

दागदार हो सकता है

किसी का आशियाना

उसकी मौजूदगी से।

 

वह निर्जीव ईमारत खड़ी है शान से

बस्ती तलाश रही है

एक ऐसी जगह

जहाँ फिर से पसरे

धूप छतों पर 

गिरे बरसात की बूँदें

और चिड़िया बना सके अपना आशियां।

 

शहर के किसी एक कोने में

फिर से बसने लगी है बस्‍ती

लेकिन बुलडोजर का ख़ौफ

अब भी बरकरार है 

*** 

M.F.Husain

स्पर्श

 मुझे                         

आकाश में उड़ने से          

डर लगता है क्योंकि  

मेरे पर नहीं हैं        

पर होते तो           

शायद मैं भी                 

आकाश में उड़ पाता।       

 

आकाश में उड़ना    

मेरे लिए कोई कौतूहल नहीं  

बल्कि                       

अपनी महत्वाकांक्षाओं के    

चरम को स्पर्श कर लेना है   

 

लेकिन जानता हूँ            

मैं आकाश में नहीं उड़ सकता

क्योंकि                      

आकाश में उड़ने से          

मुझे अपने नीचे की          

जमीन खिसक जाने का भी  

खतरा है।

 

 

आकाश के लिए                    

जमीन को छोड़ भी दूँ तो    

कहीं कोई पर कतर देगा            

फिर मुझे जमीन पर         

गिरना ही होगा              

और तब शायद

मेरे लिए

जमीन न हो।

***

M.F.Husain

तब भी नहीं

 कल रात

ढा दी गई

 मेरे पड़ोस की ईमारत

ईमारत…..एक घर

किसी का मंदिर

या फिर

किसी की मस्जिद।

 

बसते थे

राम और रहीम जिसमें

कुचल दिये गये

और नन्हीं चीखें दब गई

उन मलबे के ऊँचे ढेरों में।

 

नहीं बोलेंगे अब

राम और रहीम

मजदूरी से लौट

जब उनकी माँएं

रोएंगी/बिलखेंगी/कराहेंगी

तब भी नहीं।

 

पड़ोसी और

शायद अखबार भी

उन दो नादान बच्चों की

दोस्ती की/धर्मनिरपेक्षता की

मिसाल देगा

तब भी नहीं।

*** 

M.F. Husain

सवाल

मेरे लिए

आज हर सवाल

बेमानी है

फिर कैसे

जबाब दूं मैं

तुम्हारे उन सवालों के

जो तुमने मुझ पर लाद दिए हैं।

 

जवाब

जब खुद सवाल हैं

तब तुम कैसे अपेक्षा कर सकते हाे

मुझसे किसी भी प्रश्न के उत्तर की?

 

आश्चर्य

तो यह है कि

प्रश्‍नाें के कटघरे में खड़े तुम 

मुझसे ही उत्तर की अपेक्षा कर रहे हो

जबकि मैं सदा

तुम्हारे प्रश्नों के हल ही तो ढूंढता रहा

 

लेकिन

अब नहीं दूंगा

कोई उत्‍तर….कोई समाधान

तुम्हें बेनकाब होना ही होगा

प्रश्नों के कटघरे में

तुम्हारा चेहरा

हर सवाल का जवाब

खुद दे देगा।

 

तब शायद

तुम्हें पता चले

कि प्रश्न बनना कितना आसान है

और सवाल के जवाब ढूंढना

कितना मुश्किल?

*** 

M.F.Husain

हवा

आज

जो हवा बह रही है

उससे खुद को

कैसे बचा पाओगे?

 

हवा

जिसकी तुम

दिशा बदल देना चाहते हो

तुम्हारे लिए

अब यह इतना आसान नहीं होगा।

 

हवा की गति

तुम्हारी गति से बहुत अधिक है

जिसमें शायद तुम

कहीं खुद ही न खो जाओ।

 

हवा को थामना

अब आसान नहीं

लेकिन यह हवा भी तो

तुम्हारी ही पैदा की हुई है

जिसमें कैद है

तुम्हारी छटपटाहट।

 

हवा के पँख नहीं होते

शायद जिन्हें तुम काट सकते

हवा की गति

बढ़ती जा रही है

और तुम्हारा वजूद

उसमें खोता जा रहा है।

*** 

M.F.Husain

द्वंद्व

अमावस की रात में

चाँद की कल्पना

एक सुखद अहसास भर है।

 

चाँद-

जब देहरी पर ठिठका हो

तब खुद को अमावस में

विलीन कर लेना

उस दुर्भाग्य से कम नहीं

जिसे खुद हमने

गले लगाया है।

 

अमावस के अंधियारे में

चाँद का छिपना

एक दुःस्वप्न सा है

लेकिन चाँद ने

न जाने कितनी

अमावसों से

खुद को उबारा है

वह तो प्रकाश है

अंधेरा छले भी तो

उसे उगना ही है

 

और फिर

अमावस को मात है

चाँद की

लेकिन भीतर का

अंधेरा कैसे छंटे

अभी न जाने

और कितने चाँद?

 

मोहन सिंह रावत

इन्द्रा कॉटेज, तल्लीताल

नैनीताल

 

 

 

 

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