
सँभालने की कला
चीजें जब एक के बाद एक आती हैं तो
अपनी जगह बनाती जाती हैं
राख हो फूल हो कागज़ हो या
कोई लकड़ी का टुकड़ा
उनके लिए सोचना नहीं पड़ता
सोचना पड़ता है एक मनुष्य के लिए
जो अनजान हो या जाना पहचाना
चौखट पर दिख जाए सहसा तो
एक पल के लिए चेहरे पर
चिंता की लकीरें उभर आती हैं
रिश्ते भी ऐसे ही होते हैं
जिन्हें संभालना आसान नहीं होता
एक को तोड़े बिना दूसरे से जुड़ जाना
बहुत मुश्किल होता है
अगर दोनों साथ रहना चाहें तो
हथेली कम पड़ जाती है
दिल छोटा पड़ जाता है
बहुत छोटा हो जाता है विचार
बहुत मामूली
इतना सिकुड़ा हुआ कि
जैसे सूखी हुई रोटी
वहां दूसरे विचार का दम घुटता है
संभालने की कला सबको नहीं आती
जो गर्व करते हैं अपने इस हुनर पर
वे इतने खोखले होते हैं भीतर से कि
एक हाथ को खुश करने की ललक में
जला लेते हैं अपनी ही दूसरी हथेली उपेक्षा में
और यह भी मानने के लिए तैयार नहीं होते कि
वे अपनी दूसरी हथेली को बचा पाने में
नाकाम हो रहे हैं लगातार।
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फोन नंबर
मेरे फोन में एक हज़ार से ज्यादा लोगों के नंबर हैं
जिनसे कभी भी बात कर सकता हूं
कभी भी सुन सकता हूं उनकी हंसी
उनके चेहरे देख सकता हूं
उनसे रोज बात नहीं होती
लेकिन एक आशा है कि
नंबर है तो उनसे बात कर सकता हूं
मुश्किल है उस नंबर को लेकर
जो धीरे-धीरे फोन से मिटते जा रहे
जैसे पिता का फोन नंबर मेरे फोन में नहीं है
पिता नहीं रहे तो उनका नंबर भी किसी काम का नहीं रहा
बाद में वह नंबर किसी और के नाम हो गया
उसी तरह दादा जी का फोन नंबर या
दादी का फोन नंबर हो गया
उनके जाने के बाद उनका नंबर भी फोन से मिट गया
मैंने मिटा दिया कि गलती से कहीं
फोन लगा लूं पहले की तरह तो
उधर से दादी की आवाज़ तो नहीं आएगी
कोई और डांट देगा रोंग नम्बर की बात कह कर
मैं दूसरों के फोन में उस नाम के नंबर को देखता हूं तो
और ज्यादा परेशान हो जाता हूं
याद आ जाता है अपना फोन और अपने फोन का नंबर
तब लगता है कि कितने लोग चले गए मेरे साथ के
अब उस नाम से जिंदगी में कभी फोन नहीं कर सकता
कभी उस नाम से मुझे फोन नहीं आएगा
कोई आवाज़ नहीं लगाएगा मुझे
मैं किसी को नहीं पुकार सकता उस नाम से
फिर और ज़्यादा ख़ाली लगता है फोन
और ज्यादा वीरान लगता है जीवन
और ज्यादा याद आती है उनकी
जिनके बिना बीत रहा जीवन
उठती है हूक रह रह कर
जिनके नंबर के बिना जेब में लेकर घूमता हूं फोन
फोन तो वैसे ही है नया चमकता
उसके नंबर मिटते जा रहे हैं धीरे-धीरे!
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पिता का घर
पिता को घर बनाने का बहुत शौक था
वे गांव में रहे तो मिट्टी की दीवारों वाला घर था
जिसकी दीवारें बहुत मोटी होती थी
बारिश के मौसम में कई बार उसकी ऊपरी परत
टूट कर बिखर जाती थी ज़मीन पर
एक बार तो हम सभी सोए हुए थे और
ख़ूब बारिश हो रही थी
आधी रात में सिरहाने की दीवार
जड़ से उखड़ कर गिर गई
धमाके की आवाज़ से नींद खुली तो देखा
हम सबकी देह पर मिट्टी के छींटे पड़े हुए थे
वह दीवार छोटी थी और सिरहाने से सटकर गिरी
इसलिए हम सब बच गए
थोड़ी और ऊंची होती तो
गिरती हम सबकी देह पर
उस सारी रात हम भय से जागते रहे
अगले दिन पिता ने सबसे पहले राजमिस्त्री को बुलाया
ईंटें गिरवाई सीमेंट बालू के साथ शुरू हुआ काम
इस तरह पहली दीवार बनी ईंट की
घर तो छरवाया बहुत बार पिता ने छप्पर का
लेकिन पहली बार शुरुआत हुई घर को ठीक करने की
फिर तो धीरे धीरे सभी मिट्टी की दीवारें हट गई
ईंट की दीवारों के बीच रहने लगे हम
फिर पिता शहर आए नौकरी के सिलसिले में तो
हम किराए के मकान में रहने लगे
किराए का मकान भी बदलना पड़ता था बार बार
हर जगह कुछ न कुछ समस्या रहती थी
पिता को शांति पसंद थी
लेकिन जो भी मकान मालिक मिला
वह रौब जमाने वाला ही मिला
हर जगह टोकने वाला कि ये नहीं करना है
वो नहीं करना है
ऐसे नहीं रहना है
वैसे नहीं जाना है
पिता सामाजिक आदमी थे
हर समय दरवाजे पर चार लोग बैठते और
चाय का सिलसिला चलता रहता
यह बात अखर जाती थी तो मकान मालिक टोक देता था
हार कर पिता ने ज़मीन खरीदी
लोन लेकर घर बनाने लगे
पिता के पास ज़मीन तो पहले से थी लेकिन गांव में थी
शहर में पहली बार अपना कहने लायक कुछ हुआ
छः महीने में बनकर तैयार हो गया घर
फिर हम सब अपने घर में आ गए
अब पिता को कोई चिंता नहीं थी
अपनी जगह थी
अपने सपने थे और अब कोई टोकने वाला भी नहीं था
पिता लिखने पढ़ने वाले आदमी थे
हज़ारों किताबें उनके आसपास रहती थी
एक कमरा तो किताबों से भरा था ही
बाकी कमरों में भी किताबें भरी पड़ी थी
छज्जे पर अलमारी में ताखों पर खिड़की पर टेबल पर
हर जगह किताब
एक बार जब दीवारों के रंग करने वाले लोग आए तो
वे कहने भी लगे कि आपके घर में तो सिर्फ किताबें ही हैं
अगर कभी चोर आया तो खाली हाथ लौटना पड़ेगा बेचारे को
तब पिता बोले कि अगर किताब चुरा कर ले जाएगा तो
पढ़ कर कुछ ज्ञान ही होगा उसे
पिता हर साल नई डायरी खरीदते थे पहली तारीख़ को तो
वह डायरी जमा होती गई थी
उनकी किताबें भी छपती थी तो वह थी घर में
साल में कई बार उन्हें सम्मानित करने के लिए
बुलाया जाता अलग अलग जगहों से तो
सम्मान पत्र शिल्ड प्रतीक चिन्ह भी जमा होते गए
जब तक अपना घर नहीं था
तब तक भारी लगता था यही सब
क्योंकि मकान बदलने में बहुत नुक्सान होता था
कई बार टूट जाती थीं चीजें
किताब मुड़ जाती थी
फट जाती थी जिल्द
अपना घर होने के बाद यह सब दुःख ख़त्म हो गया
पिता हर चीज को सहेज कर रखते थे
चीजों को रखने का उनका तरीका बिल्कुल अलग था और
यही कारण था कि कोई उन्हें हाथ लगाता तो डांट देते थे
सिर्फ इसलिए कि जो चीजें जहां रखी थी
वह उनके जेहन में रहती थी
अगर वह वहां नहीं मिलती तो खू़ब नाराज हो जाते थे पिता
पिता जब गुजर गए तो खत्म हो गया सबका डर
सबको यही लगता था कि
अब कौन सा पिता आएंगे और फटकार लगाएंगे
यही कारण था कि जो जो चीजें पिता के लिए ज़रूरी थी
वह बाद में जगह छेंकने वाली मामूली चीजों में बदल गई
फिर धीरे-धीरे वे चीजें किनारे होती गई
फिर गायब ही हो गई घर से
पिता की खरीदी ज़मीन
पिता का बनाया घर
फिर भी पिता के लिए एक कोना मिलना मुश्किल हो गया
उनकी किताबें बिखरी हुई हैं
उनकी डायरी में लग गया है दीमक
उनके शिल्ड और सम्मान पत्र छत पर खुले में पड़े
भीगते हैं बारिश और धूप में
पिता की तस्वीर को रख देता हूं सही जगह तो
कोई उसे भी हटा कर कोने में कर देता है
जो चीजें जहां रखता हूं उनकी संभाल कर
वही जगह सबको चाहिए अपनी ज़रूरत के लिए
पूरा घर छोड़ कर गए पिता कि
किसी को कोई दिक्कत नहीं हो
लेकिन वे यही नहीं जानते थे कि
उन्हीं की चीजें सबको भारी लगने वाली हैं
उनके गुजरने के बाद
पिता के लिए जो जान से ज्यादा प्यारी थी
जिसे सहेजते बीतते थे उनके दिन
जिसे संभालते उन्हें मिलता था सुकून
आज वे चीजें कबाड़ में पड़ी सड़ रही हैं कोने में
पिता के घर में
पिता के लिए कोई जगह नहीं बच पा रही है इन दिनों।
***
छोड़ देना
जो साथ रहने वाले थे वे बहुत मामूली लोग थे
इसीलिए उनकी कमी महसूस नहीं हुई कभी
वे आते अपनी मर्जी से और जाते गीली आंखों से
मुड़ कर देखते एक बार रोक लेने की लालसा में
लेकिन कोई रोक लेने के लिए खड़ा नहीं मिला कभी
दरवाजे खाली रहे हमेशा
चौखट उदास जैसे पत्ते झड़ने के बाद कोई गाढ़ा आम का पेड़
जब भी कोई पास आता तो लगता कुछ लेने के लिए आया है
जब भी कोई पूछता तो लगता झांसे में रखना चाहता है
जब भी कोई पास बैठता तो लगता कि
पता नहीं क्या लूट कर ले जाएगा
इस तरह चीजें धीरे धीरे घेरने लगीं
इस तरह चमक में चौंधियाने लगीं आंखें
इस तरह किसी को देखना चुभने लगा
इस तरह एक एक का साथ
गले में पत्थर जितना लगने लगा भारी
इस तरह धीरे-धीरे लोग जीवन से जाने लगे
जो बेहया की तरह आते उनके लिए दरवाजा नहीं खुलता
इस तरह पूरा घर एक सन्नाटे मे गूंजने लगा
अकेले रहने की आदत पड़ गई
इस तरह अब कोई नहीं आता मिलने
रिश्ते जब एक एक कर टूटते गए
तब सबसे दूर होते याद नहीं रहा कि
कभी अकेले भी रहना है
जब रोने पर कोई आंसू पोंछने वाला नहीं रहेगा
कोई देखने नहीं आएगा कि
जो दरवाजे के भीतर इतराती थी अपने भाग्य पर
वह कलपती है दिन रात।
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संपर्क-क्रांति भवन,कृष्णा नगर,खगरिया-८५१२०४