
पहाड़ी औरतें
आँखें छलकी ही रहती हैं
उबाल पर रहता है कलेजा उनका
पहाड़ी औरतें एक बड़े दरख़्त की मानिंद
झुकी सी रहती हैं
लिए अपनी शाखों में सावन भादों
पहाड़ी औरतें
नीचे उतरते झरने की तरह
शोर करती हैं लय में
जब गाती हैं पहाड़ी गीत
मसले जल-ज़मीन-जंगल के
गीतों में रवां रखती हैं
उठाये रखती हैं परचम
हक़-हक़ूक़ की ख़ातिर
पहाड़ी औरतें
चढ़ती हैं जब पहाड़ पर
घास-लकड़ी के बोझ के साथ
चढ़ती साँस के साथ भर लेती हैं
वादी की फुसफुसाहट अपनी साँसों में
किसी चट्टान का सहारा लेकर
दम सा लेती हैं
थक जाती हैं जब
पहाड़ी औरतें
सूंघ लेती हैं ख़तरा हर क़दम हर ख़म
सुन लेती हैं ख़ामोशी की लय,
पंचम हो या मद्धम
गुफ़्तगू करती हैं मौसम से, पूछ लेती हैं
अब के तुम ख़ुश्क़ हो या गोया नम
पहाड़ी औरतें
रखती हैं पहाड़ सा धीरज
भेज रखती हैं सरहदों पे जिगर के टुकड़े
पहाड़ सा जीवन और कश्मकश चट्टानों सी
तोड़ रखती हैं बदन
हौसला झोंक रखती हैं
पहाड़ी औरतें
पहाड़ ही हो जाती हैं मौत आने तक
पहाड़ी औरतें सब कुछ देकर जीवन भर
खुद से बेगानों सा बर्ताव करती हैं
पहाड़ी औरतें जीती तो हैं लम्बी उम्र मगर
ता-ज़िन्दगी रोज़ मरती हैं
मर-मर कर रोज़ जीती हैं
***
पलायन, पितृ और उनकी धै
मुझे आवाज़ें नहीं आती उनकी
पर मैं जानता हूँ वो मुझे याद करते हैं
उसी मिट्टी में जहाँ पैदा हुआ था
वो अब भी हैं मगर फ़रियाद करते हैं
मेरे दादा जिन्हें न देख पाया
सिपाही थे फिरंगी फौज के वो
दादी हमारे ऐब ढँकती और बचाती
पिता जब मारते, क्या रोज़ थे वो
यहीं होंगे पिता भी तो हमारे
जो रूखे हो गए चट्टान बनकर
रहे सहते अकेले धूप-बारिश सरहदों पे
कि हम महफूज़ हों, छाओं में रहकर
सभी पुरखे हमारे ईष्ट बनकर
करते होंगे रक्षा गाँव भर की
देखते होंगे किस को याद रहा
भूला राह आख़िर कौन घर की
वो उन पुंगड़ों में, कूढ़ों में बसे हैं
वो बन घुघूती, बुराँसों में छुपे हैं
काफल, हिसुलों में हैं स्वाद उनके
हैं मिट्टी- पत्थरों में छाप उनके
वो फसलें, रीत अपने, गीत और त्यौहार अपने
झुमेलो, चौंफला, बाड़ी-झंगोरा, साग अपने
वो क्यों हम छोड़ आये बाँझ करके
सुबह हम ओढ़ आये सांझ कर के
मुझे आवाज़ें कब आती हैं उनकी
पर मैं जानता हूँ वो मुझे आवाज़ देते हैं
मैं शहरों में हूँ बिकता कौड़ी- कौड़ी
वो मुझको गाँव का सब राज देते हैं
***
Dream Chaser
कभी कोई नहीं सराहेगा
तुम्हारा उस राह पे चलना जो आम न हो
कभी कोई नहीं सराहेगा
तुम्हारा ख़ुद से ख़ुद के लिए फ़ैसले लेना
कभी कोई नहीं सराहेगा
तुम्हारा दांव पे लगा लेना सब कुछ
जब तुम देते हो ख़ुद को और दुनिया को चुनौती
वो तरस खाते हैं तुम पर
वो बस उतना ही देख पाते हैं
जितना उनकी आँखे दिखा पाती हैं
वो मज़ाक बनातें हैं उनका जो ख़्वाब देखते हैं
और क़ायनात को फ़रमाईशें लिखवाते हैं
वो तुम्हें ख़ौफ़ज़दा रखते हैं
कुछ खोने, कुछ गँवाने का डर बनाये रखते हैं
वो चाहते हैं चलो तुम भी उसी लीक पे ताउम्र
जिसपे चलते उन्होंने
अपने बाल सफ़ेद और ज़िन्दगी स्याह कर दी
तुम ग़लती से गिरते हो कभी
तो वे हँसते हैं गालों में गुब्बारे भरकर
तुम्हारी नाक़ामयाबी तुम्हारे ही मुँह पर
सुनाते रहते हैं कई-कई बार उलाहने देकर
तुम बस सब्र रखना
और चलते रहना एक मूक बधिर की तरह
जब तक तुम न पा जाओगे मुकाम अपना
भूल जाना लोगों के, अपनों के ताने, उलाहने
विनम्र हो जाना बनाये रखेगा तुमको
उसी ऊंचाई पर रहती दुनिया तक
लोग सराहेंगे
जब तुम पहुँचोगे, शिखर पर
तब तुम्हारी थकान, पीड़ा और तमाम चुनौतियाँ
वो सुनेंगे और सुनाएंगे दिलचस्पी से
ख़ुद को तुमसे जोड़कर देखेंगे
और कहेंगे तुमको
शानदार और लाजवाब
***
जिस्म का उपला
सुलगते सुलगते
बुझ सा गया है
जिस्म के चुल्हे पे
अब कुछ ना पकेगा
बाहर खींचो राख को
बुझते अगांरों को
थोड़ा छिड़क के पानी
कुछ तस्कीन भी कर लो
थोडी देर मे सब जब
ठण्डा हो जायेगा
रान्ध के मिट्टी फिर से
इसको लीपना होगा
फिर सुलगेगा, बुझ जायेगा
चूल्हा जिस्म बदल लाएगा
जिस्म का उपला जलते बुझते
चोले लाख बदल लाएगा
***
कविता
कुछ लिखने की ख़ातिर लिख लेना
यूँ कब कविता कहलाता है
ये तो वो अंकुर है मन का
जो काग़ज़ पर उग आता है
जब भारी हो, हल्का हो लो
जब हल्के हो तो उड़ भी सको
सीमाओं पर पहरे भी नहीं
और कोई यहाँ सीमा भी नहीं
जब देह, विदेह लिखे कुछ भी
वो पल कविता कहलाता है
जब शांत हो आशा का उपवन
जब क्लांत हो तन-मन का क्रन्दन
हो प्रणय प्रीती की आकुलता
या विरह अग्नि की व्याकुलता
जब अश्रु से बुझती प्यास लगे
वो जल कविता कहलाता है
जब इन्द्रियाँ वश में हों सारी
सुषुम्ना जागृत हो नाड़ी
न रोग कोई न माया हो
और योग ध्यान मन भाया हो
फिर रण में कहे उपदेश का हर
अक्षर कविता कहलाता है
जब कष्ट धरा के माथ सजें
हर जीव यहाँ अपना भी लगे
हर छोटी बड़ी रचना, घटना
सच्ची भी लगे सपना भी लगे
जब देश, समाज, रिवाज जुड़े
वो जन कविता कहलाता है
तब देश, समाज के कष्टों का
दर्पण कविता कहलाता है
***