– आशीष
कुमार
“ कहा जा रहा
है कविता खत्म हो रही है
पर मुझे हर कहीं कविता दिखाई देती
है
मां की आंखों में
पिता की सोच में
भाई की बेचैनी में
बहन की हंसी में ”
(
कविता ,” पांव तले की मिटटी “
संग्रह से ,पृष्ठ
11 )
इस
कविता विरोधी समय में उपर्युक्त पंक्तियां कवि के उर्वर रचनाधर्मिता का प्रमाण है
. मैं संतोष अलेक्स के काव्य संग्रह ” पांव तले
की मिटटी “
से मुखातिब हो रहा हूं. उनकी कविताओं से अलसाई सोंधी मिटटी की गमक बिखर रही है .
कुल जमा चालीस छोटी बडी कविताओं के साथ हिंदी जगत में उनका यह प्रथम काव्य संग्रह
है . इन कविताओं का अपना संसार है. अपना संस्कार है. अपनी जमीन एवं जज्बात हैं.
मूलत:
मलयालम
की समृद्ध परंपरा से हिंदी में हस्तक्षेप करनेवाले संतोष अलेक्स “
लोक
”
के स्वर को उभारनेवाले कवि हैं. मैं उनकी कविताओं से तादाम्य स्थापित करना
चाहता हूं . उनकी कविताओं से बतियाना चाहता हूं .
क्या संवाद संभव है ? बतौर पाठक
कवि की संवेदनशालता और कविता की दुनिया में प्रवेश करता हूं . लेकिन कविताओं को
पढकर अभिभूत हूं . क्या महानगर में बैठकर “ लोक
”
का
स्वाद लिया गया है ? या फिर कवि की स्मृतियों में अभी
तक “
लोक
”
सुरक्षित है. अजीब उहापोह की स्थिति में हूं . क्या कविता अभी तक स्मृतियों में
जीवित है ?
क्या सृजन की प्रक्रिया स्वयं का संधान है ?
प्रश्न दर प्रश्न . वास्तव में , किसी भी कृति से संवाद तभी कायम हो सकता है, जब
आप सचेत पाठक के रूप में पहल करने की कोशिश करें . सृजन के समय कवि एक कल्पनाशील
दुनिया का निर्माण करता है एवं उसमें डूबता उतरता है . इस कविता संग्रह पर लिखते
हुए मुझे यह प्रश्न बेचैन किए जा रहा है कि यहां कविता स्मृतियों में संरक्षित
रखे जा सकते हैं . बहरहाल संतोष अलेक्स अपने “ लोक
”
के प्रति सचेष्ट हैं . सर्तक हैं . उन्हें चिंता है कि अब भूमंडलीकरण एवं
बाजारवाद की आंधी से उनका गांव भी सुरक्षित नहीं है. वे लिखते हैं
“ मेरे
गांव की चाय की दुकान
रंगीन हो गई है
लेज, चीटोस व चीस बाल से
अब चाचा चाय नहीं
रिचार्ज कूपन बेचता है ”
(
मेरा गांव , पृष्ठ – 20 )
इधर लोक को बचाने की यह जददोजहद कई
कवियों में देखी जा सकती है.
मुझे
लगता है कि इस अमानवीय समय में मनुष्यता , रिश्तों और स्मृतियों को बचाना जरूरी
है. जब पूरी दुनिया एक बाजार में ढल गयी है . जहां सब कुछ बिकाउ हो जाने की
संभावनाएं मौजूद है. ऐसे में कवि और कविता का पूरा दायित्व है कि वह इन स्थितयों
के विरूद्ध प्रतिरोध दर्ज करें. संतोष अलेक्स के कविताओं की यह विशेषता है कि गांव
–
जंवार
के प्रत्येक चित्र सजीव अंकित महसूस होते हैं . चाहे वह कबरी गाय, दुधिया बिल्ली,
जबरू कुत्ता ही क्यों न हो . देखिए –
“कुम्हार
के रोले की ओर जाती
मेरे गांव
की पगडंडी
तब्दील हो
गई है कच्ची सडक में
चुप है
कबरी गाय
दुधिया
बिल्ली
जबरू कुत्ता
” ( मेरा गांव,
पृष्ठ –21
)
संतोष
अलेक्स लोकधर्मी कवि हैं. उनके लिए कविता लिखना सिर्फ अपने समय और समाज से संवाद
करना ही नहीं , वरन तमाम दुखों में साझेदार भी होना है , जो उन्होंने अतीत से
झेला और भोगा है . उनकी “
मां ”
कविता में संवदेना का चरम संस्पर्श देखने को मिलता है –
“
स्कूल से लौटने पर
एक दिन
मैं उसके
लिए आंवला ले आया
उस दिन
रसोई के
अंधेरे में
खडी होकर
वह बहुत रोई ” ( मां, पृष्ठ
–
33 )
इस
संग्रह से गुजरते हुए हाशिए का वह बृहतर दायरा भी देखने को मिलता है, जो मुख्यधारा
में शामिल होने के लिए निरंतर संघर्षरत है. गोदावरी घाट की धोबिन ,
वृद्धाश्रम ऐसी ही कविताएं है, जो
विमर्शों के स्वर को मुखर करती है .
लेकिन यह शुभ संकेत है कि यहां कविताओं का रंग मिटटी की चमक के साथ मौजूद
है . एक सर्तक एवं सजग कवि सदैव अपनी वास्तविकताओं और जमीन से जुडाव को बचाए रखना
चाहता है. इस विशेषता को पांव तले की मिटटी संग्रह में रेखांकित किया जा सकता है
“
मिटटी को धोने पर भी
उसकी
सोंधी गंध रह जाती है
मिटटी
सांस है मेरी
उर्जा
है मेरी
पहचान
है मेरी ” ( मिटटी ,
पृष्ठ – 9
)
इस कविता संग्रह में लोक के अलावा
शहरी सभ्यता एवं संस्कृति के भी कई शेडस मौजूद है जो अंडरटोन में महत्वपूर्ण भी
है . महानगरीय विद्रूपताओं को संदर्भित
करती गणितीय फार्मूले पर सिद्ध की गयी ” आधुनिक
परिवार ”
लिव–
इन–
रिलेशन पर कारारा व्यंग्य है . देखिए –
(a+b) 2 = a2 + b2 + 2ab
(a+b) 2 माने संयुक्त परिवार
(a+b) a = दादा
b = दादी
एक ही छत के नीचे
एक ही
परिवार, एक अंगीठी
a2 = बेटे का परिवार
एक परिवार,
एक अंगीठी
b2= बेटी का परिवार
एक परिवार,
एक अंगीठी
2ab जहां 2
माने लिव इन रिलेशन
a = स्त्री
b = पुरूष
इस परिवार में स्त्री पुरूष बराबर
के हिस्सेदार हैं
अंगीठी ? (
आधुनिक परिवार, पृष्ठ – 17)
किस सत्य का अनुसंधान करती है ये
कविता ?
क्या कविता का सच जीवन से अलग है ? इसी तरह
बौना कविता की अंतिम पंक्तियां उस यर्थाथ की तरफ इशारा करती है , जो महानगरीय जीवन
का अविभाज्य हिस्सा है –
“बौना
है
कमरे
की चारदीवारी में कैद
झूठी
शान में जीता आदमी
वह
आदमी नहीं
बोनसाई हो चुका है “ ( बौना ,
पृष्ठ –
15)
संतोष की कविताओं में प्रेम का अपना
एक खास अंदाज है. इस अर्थ में उन्हें “ प्रेमी कवि
“
भी
कहा जा सकता है . “ राधा और कृष्ण “
कविता
प्रेम की अदभुत पराकाष्ठा है . कविता देखें –
“तुम्हारे
आने से मैं
खुश
हो जाउंगा
फूल
खिलेंगे, तितलियां मंडराएंगी
इंद्रधनुष
छा जाएगा
झूम
उठेगी प्रकृति सारी
फिर
से बनेंगे हम
राधा
और कृष्ण “ ( राधा और
कृष्ण , पृष्ठ – 69)
देखा जाय तो परंपरा और संस्कृति
में प्रेम का जो स्वरूप है, संतोष अलेक्स उसी के संवाहक है . उनका प्रेम साझी
दुनिया का स्वप्न है . प्रकृति एवं पक्षी भी उनके कविता के आकर्षण हैं.
“ अजायबघर “
कविता में पक्षियों की पूरी जमात देखने को मिलती है . जैसे –
“पहली
टोली में
कोयल
कठफोडा कबूतर
दूसरे
में चकवा चकोर चली
तीसरे
में टिटहरी तीतर तोता
उतरे
आंगन में “ ( अजायबघर ,
पृष्ठ –
59)
यह एक टटका बिंब है . ध्वनि साम्य
के कारण संगीत सी मधुरता लिए हुए है. दरअसल संतोष की कविताओं को पढते हुए लगता है
कि वे प्रकृति के चित्र उकेर रहे हैं. प्रकृति उनका साध्य भी है और साधन भी .संतोष की कविताओं में लोक जीवन और
उनका संघर्ष वर्ण और वर्ग के भेद पर नहीं टिका है. उनके लिए कविता लिखना सिर्फ
बौद्धिक जुगाली नहीं है. वे कविता के मार्फत जीवन को देखने का प्रयास करते हैं. इस
संग्रह की एक बेहद महत्वपूर्ण कविता “ नदी “
के माध्यम से कवि ने संवेदना के धरातल पर प्रकृति से तादाम्य की कोशिश की है –
“
सब
जल्दी में थे
किसी
ने भी नदी को
सुनने
की कोशिश नहीं की
किसी
ने भी इसे महसूस नहीं किया
नदी
सब कुछ जानती है
वह
बहती रही
किसी
से शिकायत किए बगैर
इंतजार
किए बगैर “ ( नदी , पृष्ठ
–23)
संतोष
की कविताओं में प्रकृति एक खास पायदान पर है . दरअसल उनकी कविता प्रकृति के माध्यम
से स्वयं संवाद की कोशिश है. इन सबके बावजूद इस कवि से इससे कहीं ज्यादा की उम्मीद
होती है. इस अधीरतावादी समय में “ पांव तले की मिटटी “
कविता के मृतप्राय होने की धारणा को ध्वस्त करती हुई , संवेदना के साथ उपस्थिति
दर्ज कराती है. जिस कवि के पांव तले खुद जमीन हो, वह पूरी मजबूती के साथ संघर्ष का
रास्ता अख्तियार कर सकता है. यह संग्रह अपेक्षाएं भी जगाता है और उम्मीद भी. शब्दों
और उम्मीदों से भरी यह काव्य यात्रा निरंतर प्रवाहित होती रहेगी . इस दृष्टि से संतोष अलेक्स एक संभावनाशील कवि
हैं . कितनी संदर्भवान हैं ये पंक्तियां –
संतोष एलेक्स |
“
कविता
मेरे लिए गहनों
जरीदार
साडी में सजी
शहरी
वधू नहीं
मेरे
लिए कविता
ग्रामीण
वधू है
निष्कलंक
, सौम्य व सुंदर “
बस्तर
, छत्तीसगढ 9479049612
***
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इस लोकोन्मुखता में भी मसला वही है, जिसके लिए हम बहस करते रहे। स्त्री के बारे में 'कलंक-निष्कलंक' निपट सामन्ती शब्दावली है और किसने कह दिया कि शहरी दुल्हन सौम्य और सुन्दर नहीं होती। यही मुश्किल है। ऐसा कहने पर भी बीस जबड़े खुल जाएंगे, बिना बात का सिरा समझे। जानकारी के लिए बता दूं कि पूरा संग्रह गांव पर केन्द्रित है, अत: लोकधर्मी है। गांव के सारे सुन्दर दृश्य इसमें हैं। सामन्ती संस्कारों से, धार्मिक दुश्चक्रों से लड़ने के चित्र लगभग नहीं हैं। कुछ कविताएं अच्छी लगती हैं। कवि के अहिंदी भाषी होने का तथ्य कविताएं पढ़ते हुए कहीं याद नहीं रहता, यह उनकी सफलता है।
पढ़कर अच्छी लगीं…नदियां, चिड़ियां.तितलियां…प्रकृति की तरफ ले जाती कविताएं
shukriya varsha ji