इन ग़ज़लों में नए प्रयोग हैं। सायास हिंदीपन नहीं, बोली-बानी का अहसास ज़रूर है। हिंदी में ग़ज़ल कहना मुश्किल बात है इसीलिए स्थापित नाम भी अंगुलियों पर गिने जाने जितने ही हैं। गौतम की ये सभी ग़ज़लें प्रकृति से संवाद में हैं।
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1.
ज़रा जब चाँद को थोड़ी तलब सिगरेट की उट्ठी
सितारे ऊँघते उट्ठे, तमक कर चांदनी उट्ठी
मुँडेरों से फिसल कर रात भर पसरा हुआ पाला
दरीचों पर गिरा तो सुब्ह अलसाई हुई उट्ठी
उबासी लेते सूरज ने पहाड़ों से जो माँगी चाय
उमड़ते बादलों की केतली फिर खौलती उट्ठी
सुलगते दिन के माथे से पसीना इस क़दर टपका
हवा के तपते सीने से उमस कुछ हांफती उट्ठी
अजब ही ठाठ से लेटे हुए मैदान को देखा
तो दरिया के थके पैरों से ठंढ़ी आह-सी उट्ठी
मचलती बूँद की शोखी, लरज़ उट्ठी जो शाखों पर
चुहल बरसात को सूझी, शजर को गुदगुदी उट्ठी
तपाया दोपहर ने जब समन्दर को अंगीठी पर
उफनकर साहिलों से शाम की तब देगची उट्ठी
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2.
ढीठ सूरज बादलों को मुँह चिढ़ाने के लिये
चल पड़ा
है, देख, बारिश में
नहाने के लिये
कुछ सहमती, कुछ झिझकती, गुनगुनाती पौ फटी
सोये जग
को भैरवी की
धुन सुनाने के
लिये
घोंसले में अपने गौरेया है बैठी सोचती
जाये वो
किस बाग़ में
अमरूद खाने के
लिये
पर्वतों पर बर्फ़ के फाहे ठिठुरने जब लगे
चुपके–से घाटी में
फिसले खिलखिलाने के
लिये
बेहया–सी दोपहर ठिठकी हुई है अब तलक
और ज़िद्दी
शाम है बेचैन
आने के लिये
नकचढ़ी इक दूब दिन भर धूप में ऐंठी रही
रात उतरी
शबनमी उसको रिझाने
के लिये
चाँद को टेढ़ा किये मुँह देखकर तारे सभी
आ गये
ठुड्ढ़ी उठाये टिमटिमाने
के लिये
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3.
पसीने में पिघलते पस्त दिन की सब थकन गुम है
मचलती शाम क्या आयी, है गुम धरती, गगन गुम है
भला कैसे नहीं पड़ते हवा की पीठ पर छाले
पहाड़ों से चुहलबाज़ी में बादल का कुशन गुम
है
कुहासा हाय कैसा ये उतर आया है साहिल पर
सजीले-से,
छबीले-से समन्दर का बदन गुम है
खुली छाती से सूरज की बरसती आग है, लेकिन
सिलेगा कौन उसकी शर्ट का जो इक बटन गुम
है
उछलती कूदती अल्हड़ नदी की देखकर सूरत
किनारों पर बुढ़ाती रेत की हर इक शिकन गुम
है
भगोड़े हो गए पत्ते सभी जाड़े से पहले ही
धुने सर अब चिनार अपना कि उसका तो फ़िरन
गुम है
ज़रा जब धूप ने की गुदगुदी मौसम के तलवों पर
जगी फिर खिलखिलाकर सुब्ह, सर्दी की छुअन गुम है
जो पूछा आस्माँ ने जुगनुओं से “ढूँढते हो क्या?“
कहा हँसकर उन्होंने, चाँद का नीला रिबन गुम है
किसी ने झूठ लिक्खा है, असर होता है सोहबत में
कि रहकर
साथ काँटों के भी फूलों से चुभन गुम है
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4.
ठिठुरी रातें, पतला कम्बल, दीवारों की सीलन…उफ़
और दिसम्बर ज़ालिम उस पर फुफकारे है सन-सन …उफ़ठिठुरी रातें, पतला कम्बल, दीवारों की सीलन…उफ़
दरवाजे पर दस्तक देकर बात नहीं जब बन पायी
खिड़की की छोटी झिर्री से झाँके है अब सिहरन…उफ़
छत पर ठाठ से पसरा पाला शब भर खिच-खिच शोर करे
सुब्ह को नीचे आए फिसल कर, गीला-गीला आँगन…उफ़
बूढ़े सूरज की बरछी में जंग लगी है अरसे से
कुहरे की मुस्तैद जवानी जैसे सैनिक रोमन…उफ़
ठंढ के मारे सिकुड़े-सिकुड़े लोग चलें ऐसे जैसे
सिमटी-सिमटी शरमायी-सी नई-नवेली दुल्हन…उफ़
हाँफ रही है धूप दिनों से बादल में अटकी-फटकी
शोख़ हवा ऐ ! तू ही उसमें डाल ज़रा अब ईंधन…उफ़
जैकेट-मफ़लर पहने महलों की किलकारी सुन-सुन कर
चिथड़े में लिपटा झुग्गी का थर-थर काँपे बचपन…उफ़
पछुआ के ज़ुल्मी झोंके से पिछवाड़े वाला पीपल
सीटी मारे दोपहरी में जैसे रेल का इंजन…उफ़
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5.
सुब्ह से ही धौंस देती गर्मियों की ये दुपहरी
ढीठ है कमबख़्त कितनी गर्मियों की ये दुपहरी
धप से आ टपकी मसहरी पर फुदकती खिड़कियों से
बिस्तरे तकिये जलाती गर्मियों की ये दुपहरी
बादलों का ताकते हैं रास्ते ख़ामोश सूरज
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की ये दुपहरी
ताश के पत्ते खुले दालान पर, अब ‘छुट्टियों‘ संग
खेलती है तीन पत्ती गर्मियों की ये दुपहरी
लीचियों के रस में डूबी, आम के छिलके बिखेरे
बेल के शरबत सी महकी गर्मियों की ये दुपहरी
शाम आँगन में खड़ी कब से, मगर छत पर अभी तक
पालथी मारे है बैठी गर्मियों की ये दुपहरी
चाँद के माथे से टपकेगा पसीना रात भर आज
दे गई है ऐसी धमकी गर्मियों की ये दुपहरी
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भारतीय सेना में अफ़सर गौतम का साहित्य में सक्रिय हस्तक्षेप है। हिंदी की अनेक पत्रिकाओं में उनकी ग़ज़लें पढ़ी-सराही गई हैं। वे अपनी पसन्द की किताबों पर समीक्षा भी करते हैं। अनुनाद पर पहली बार।
बिल्कुल अलग तरह की गज़लें
बहुत सुंदर प्रस्तुति.
इस पोस्ट की चर्चा, रविवार, दिनांक :- 13/07/2014 को "तुम्हारी याद" :चर्चा मंच :चर्चा अंक:1673 पर.
शुक्रिया शिरीष भाई…मेरी अदानी सी ग़ज़लों को सम्मान देने के लिए ! आभारी हूँ !
waah kboob gazalen kahi sair kamaal ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
इस फ़ौज़ी के सब अदने मगर ये अपनी गज़लों को तो अदनी न कहे …. 😛 ( अदानी अगर दूसरा शब्द हो तो पता नहीं मुझे ….. )
बिलकुल नई तरह की गज़लें "नेचरल गज़लें"
प्रकृति में छायावाद का यही रूप सबसे ज़्यादा मोहित करता है…बहुत खूबसूरत रचना…