अनुनाद

माया गोला की तीन कविताएं

1.
दुनिया के सारे धर्मग्रंथ
कर दिए जाएं
तहख़ानों के हवाले
(भले ही कुछ समय के लिए)
और
पढ़े जाएं सिर्फ़ प्रेमग्रंथ……..
अवतारों के रूप में
जन्म ले प्रेम के देवता ही
पूजा करना नहीं
प्रेम करना हो जरूरी
निहायत जरूरी………
पाप-पुण्य की परिभाषाएं
की जाएं संशोधित
जो कर न सके प्रेम
जिसके दायरे में आ न सकें
जड़ से लेकर चेतन तक……..
वो हो पापी
इसके उलट
जिसके प्राण जीवित रह सकें
सिर्फ प्रेम की हवा में ही
हो वो पुण्यात्मा……..
टूटे स्वर्ग-नरक का तिलिस्म
प्रेम से भरा संसार ही हो स्वर्ग
और
प्रेम से दूर रहना नरक-सा हो…….
मंदिरों में
पाषाण प्रतिमा नहीं
हों मोम की सुंदर नक्काशियां
जो स्पंदित हो हमारे छूने से …….
दिल से दिल को जोडने वाली
राह के बीच खड़ी हर दीवार को
ढहा दिया जाए
लड़ा जाए
एक युद्ध
प्रेम के लिए
प्रेम के हथियारो से
विश्वास कीजिए
एक बूंद न बहेगी लहू की
हाँ,
आंसू जरूर बह उठेंगे
सूख रही संवेदनाओं को
तर करने के लिए……..
आखिर
नम धरती में ही तो
अंखुआते है बीज ………
*** 
2.
जिंदगी के रतजगों से
उनींदी हैं उसकी आंखें
भीगा हुआ है दिल
बंद हो चुकी बारिश के बाद की जमीन-सा
फूटे तो कोई अंकुर……
शेष रह गए ढूंठ-सी
नियति है उसकी
स्पंदन रहित जीवन
भीतर कई-कई तहों में लिपटे
रेशमी धागे
न चाहते हुए भी अक्सर
उतर आते है उसकी आंखों में
और गीली मिट्टी
बेशुमार…….
धूप में सूखती……
कौन बनाए मूर्ति !
दिन ढलने तक चलती है
उम्मीदों की सांस
रातें पूस की रात ……
जिंदगी जंग लगा लोहा
धो-पोंछकर रोज़
चमकाती है उसे
उलट जाता है जब कभी
सायास …….
अनायास…….
जिंदगी का घूंघट
झरने लगती है जली हुई तितलियाँ
गुलाब जून में कुम्हलाए से ……..
थोडी-सी आस
थोडा-सा विश्वास
कुछ रंग
चुनती है अन्तर्मन की खोहों से
रंगीला हो कल
सपनीला  हो कल
इन्द्रधनुष चमके तो एक बार ……
*** 
3.
उसका रंग इतना काला था कि
सात दिनों में
गोरा बनाने का दावा करने वाली कोई भी क्रीम
बना नहीं सकती थी उसे
सात सालों में भी गोरा
बस में घुस आयी थी वह
गोद में एक नन्हें बच्चे को लेकर
जिसके शरीर के ऊपरी हिस्से पर
एक चिथड़ा-सा कपड़ा था
और अधोभाग वस्त्र रहित
कृशकाय इतनी कि
तेज आंधी उसे उड़ा ही ले जाए
खामोश थी वह
बस बोलती थीं उसकी आँखें
जब बढ़ाती थी वो अपना कटोरा
यात्रियों के सम्मुख……..
टन्नसे कुछ सिक्के गिरते उसके कटोरे में
और कुछ कटु बोल भी
जिनका प्रत्युत्तर देने की न उसमें सामर्थ्‍य दिखती थी
और न हिम्मत…..
सोचती हूँ मैं
भले ही इसने जीवन के लिए
जरिया बना लिया हो भीख माँगना
भले ही अनायास नहीं
सायास याचना भरी हो उसकी आँखों में
फिर भी कितने दयनीय साये में
लिपटा है इसका वजूद……
छिन गया है इससे जैसे
जीवन का उल्लास
और मनुष्य होने की पदवी भी
भीख अधिक मिलने पर
भले ये हो जाती हो खूब खुश
लेकिन
खिलते न होंगे इसके भीतर
खुशबू बिखेरते गुलाब……
*** 
हिंदी विभाग, डी.एस.बी.परिसर, नैनीताल में असिस्‍टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत माया गोला ने लेखन की शुरूआत कहानी से की। बहुत पहले कवि वीरेन डंगवाल के सम्‍पादन ने निकलने वाले अमर उजाला के रविवारीय पृष्‍ठ पर माया की पहली कहानी प्रकाशित हुई थी। माया का लिखना जीवन के दूसरे मोर्चों पर व्‍यस्‍तताओं और कुछ लापरवाही के चलते बाधित रहा – उसमें पर्याप्‍त बिखराव है। अब वे फिर लिख रही हैं। सुखद संयोग है कि सहपाठी रहीं माया अब वि.वि. में मेरी साथी प्राध्‍यापिका हैं। अनुनाद पर उनका स्‍वागत।  

0 thoughts on “माया गोला की तीन कविताएं”

  1. अभिषेक मिश्रा

    अच्छी और ईमानदार कवितायें हैं. पोस्ट करने के लिए आपका धन्यवाद.

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