अनुनाद

लोक और कविता- 2/ लोक और समकालीन काव्य- शिवप्रकाश त्रिपाठी



इस अनुक्रम का पहला शोधालेख जितेन्द्र कुमार ने लिखा है, जिसे इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है। 
 
अंग्रेजी के ‘फोक’ शब्द का हिंदी में रूपांतरण ‘लोक’ किया गया | पाश्चात्य साहित्य में यह फोक शब्द प्रारम्भ में नाटकों से आया,जिसको आदिम समाज के लिए प्रयोग किया जाता है | अशिष्ट और भदेश समझे जाने वाले नाटकों को ‘फोक प्ले’ की संज्ञा दी  जाती थी | वैसे ‘लोक’ शब्द भारतीय समाज में तथा साहित्य में प्राचीन काल से देखने को मिलता है |                
 हमारे समाज में लोक से ज्यादा परलोक की चर्चा हुई है |मै भी अपने घर में बचपन से परलोक के विषय में सुनता आया हूँ,बाद में मुझे यह बोध हुआ कि एक ऐसी स्थिति जिसका कोई अस्तित्व नहीं है,वह परलोक है और ठीक इसके विपरीत स्थिति, जहाँ हम रहते हैं,जीते हैं अर्थात जिसका अस्तित्व है,जिसे हम जानते,समझते और देखते हैं,वह लोक है| इसप्रकार हमारे लोक में नगर-ग्राम, शोषक-शोषित,जीव-जंतु,चर-अचर तथा प्रकृति आदि सब आ जाते हैं | साहित्य समाज का दर्पण है तथा समाज भी लोक का ही एक रूप है तो लाज़मी है कि साहित्य में भी लोक होगा | भक्तिकाल में लोक को लेकर काफ़ी कुछ कहा और सुना गया| कबीर, जायसी, सूर और तुलसी आदि सभी कवियों ने लोक को लेकर अपने काव्य के माध्यम से काफी कुछ कहा है| तुलसीदास जी स्पष्टतः कहते है –
                   “लोकहूँ वेद विदित कवि कहहीं”1
                  लोक की अवधारणा को स्पष्ट करने में सर्वप्रथम प्रमुख भूमिका जिन आलोचक की देखने को मिलती है,उनका नाम हैं आचार्य रामचंद्र शुक्ल | चिंतामणि भाग-एक में एक निबंध है ‘साधारणीकरण और व्यक्ति वैचित्र्यवाद’, इसमें शुक्ल जी ने लोक की अवधारणा का विकास करते हुए व्यक्ति वैचित्र्यवाद के विरोध में
साधारणीकरण के सिद्धांत की प्रतिष्ठा की और लोक की व्याख्या इस प्रकार की –
“सच्चा कवि वही है जिसे लोकहृदय की पहचान हो, जो अनेक विशेषताओं और विचित्रताओं के बीच मनुष्य जाति के सामान्य हृदय को देख सके | इस लोकहृदय में हृदय के लीन होने की दशा का नाम रसदशा है|” 2 
                शुक्ल जी का मानना है कि प्रत्येक मनुष्य की अपनी अलग पहचान होती है, एक मनुष्य का चेहरा दूसरे से नहीं मिलता किन्तु समग्र को साथ ले तो शुक्ल जी के शब्दों में, ‘सामान्य आकृति-भावना’ बनती है, ठीक इसी तरह समाज में अनेक विचित्रताएँ मिलती है जिसे हमें समग्रतः लोक के रूप में देखना चाहिए| आगे लोकवाद के विकास क्रम में लोकधर्म की भी बात करते है |आचार्य शुक्ल जी लोकधर्म को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि “संसार जैसा है उसे वैसा मानकर उसके बीच से एक-एक कोने को स्पर्श करता हुआ जो धर्म निकलेगा वही लोकधर्म होगा|”3           
                  आचार्य रामचंद्र शुक्ल के यहाँ यह पूरा संसार ही लोक है चूँकि शुक्ल जी को शास्त्र से कोई परहेज नहीं है अतः वह सम्पूर्ण जगत को लोक के लपेटे में लेते है| किन्तु कालांतर में दूसरे बड़े आलोचक हुए जिन्होंने लोक को पुनः परिभाषित किया वो हैं पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी | द्विवेदी जी अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’(1941) के आरम्भ में ही यह घोषणा करते हैं कि “मतों,आचार्यों,सम्प्रदायों और दार्शनिक चिंताओं के मानदंड से लोकचिंता को नहीं नापना चाहता बल्कि  लोक चिंता की अपेक्षा में उन्हें देखने की सिफारिश कर रहा हूँ |”4  यहाँ द्विवेदी जी बंधे-बंधाये दृष्टिकोण से न देख कर उसे नई दृष्टि से देखने की वकालत करते है, मतलब वह शुक्ल जी के शास्त्र सम्मत लोक को लोक नहीं मानतें और न ही उस कसौटी पर लोक को परखतें हैं | शुक्ल जी के लोक औए द्विवेदी जी के लोक में अंतर यह है कि जहाँ शुक्ल जी का लोक शास्त्रानुमोदित समाज है,वही द्विवेदी जी के लोक में मुख्यतः दबे कुचले,अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियां हैं|
                 
 आधुनिक काल में रामविलास शर्मा ने लोक को नए सिरे से परिभाषित किया | शर्मा जी लोक को सीधे-सीधे गाँव और किसानों का पर्याय मानते हैं| शर्मा जी के अनुसार किसान चेतना ही लोक चेतना है|शर्मा जी अपने लोक से नगर तथा नागरिक को अलग कर देते हैं | उनका लोक शोषितों का लोक है, मिलों में काम करने वाले मजदूरों का लोक है,जमीदारों के यहाँ काम करने वाले किसानों का लोक है| उनके लोक में बढई,लोहार तथा अस्पृश्य समझी जाने वाली सभी जातियां हैं | इसे अदम गोंडवी के शब्दों में कहा जाये तो-वो जिसके हाथ में छाले व पैरों में बिवाई हैं | यही शर्मा जी के लोक के मूलाधार हैं| शिव कुमार मिश्र भी लोक के विषय में अपने विचार व्यक्त करते हैं |वह अपने पुस्तक “भक्ति आन्दोलन और भक्तिकाव्य” में ‘भक्तिकाव्य और लोकधर्म’ नामक शीर्षक में कहते हैं कि “लोक शब्द हिंदी में साधारण जन के लिए भी प्रयुक्त होता है जिसका विलोम अभिजन या अभिजात्य वर्गों के लोग हैं|” 5  मिश्र जी लोक को जन या जनता का समूह मानते हैं वह जनता भी सामान्य लोग है विशिष्ट नहीं| जनता को लेकर कई कवियों ने लिखा है,जनता कौन है ? धूमिल कहते हैं-
  जनता क्या है ?
   एक शब्द ……….. सिर्फ एक शब्द है
   कुहरा और कीचड़ और कॉंच से
   बना हुआ ”6  
                 समकालीन कविता में भी लोक को पर्याप्त जगह मिली है |सभी कवियों ने अपने-अपने ढ़ंग से अपने काव्य में लोक का चित्रण किया हैं|आज के समय में तथा प्रेमचंद के समय में पर्याप्त अंतर आ चुका है |आज के गाँव पहले के गाँव नहीं रहे| एक समय था, जब खेतों में प्रेमचंद जी के हीरा और मोती जैसे बैलों से जुताई होती थी परन्तु आज उन बैलों की जगह स्वचालित यंत्रों ने ले लिया है| अर्थात आज के गाँव और पुरातन गाँव में भौतिक रूप से काफ़ी परिवर्तन हो गया है,किन्तु स्थितियां एवं परिस्थितियाँ कमोबेश वही है जो आज से अस्सी-नब्बे साल पहले थी| अंधविश्वास,छुआछूत और महाजनी सभ्यता आज भी पैर पसारे बैठी हुई हैं | इन्ही परिस्थितियों का चित्रण समकालीन कवि बखूबी कर रहे हैं|
                      समकालीन कवियों में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ प्राप्त बड़े कवि ‘वीरेन डंगवाल’के काव्य में लोक का बहुत ही सुन्दर चित्रण हुआ है|डंगवाल जी के काव्य संग्रह “स्याही तल में” में एक कविता है जिसका शीर्षक है ‘उधों मोहि ब्रज’,जिसमे वह अपने पुराने दिनों को याद करते हुए लिखते है कि-
                   गोड़ रही माई ओ मउसी ऊ देखौ
                   आपन-आपन बालू के खेत
                   कहाँ को बिलाये ओ बेटवा बताओ
                   सिगरे बस रेत ही रेत 7   
इस कविता में भाषा भी लोक से जुडी हुई है,या यूँ कहे कि लोक की भाषा से कविता जुडी है  | वीरेन  जी के काव्य में लोक के अन्दर मौजूद तत्वों एवं अंगों का चित्रण करते हैं –
                   मुलायम आवाज में गाने लगे मुँह-अंधेरे
                   कउए सुबह का राग शीतल कठोर
                   धुल और ओस से विचित्र सुगंध वाले फल
                   फेरे लगाने लगी गिलहरी चोर  8  
उपर्युक्त कविता से गाँव की सोंधी महक आती है
                      लोक का चित्रण उत्तराखंड के महत्वपूर्ण कवियों में से एक शिरीष कुमार मौर्य के काव्य में भी देखने को मिलता है| शिरीष जी के काव्य संग्रह “पृथ्वी पर एक जगह”,में पहली ही कविता ‘हल’शीर्षक से है जिसमे वह हल की महत्ता को स्पष्ट करते हैं एवं दूसरी कविता जो ‘भूसा’ नाम से है, दृष्टव्य है –
                   फसल के साथ कटकर यह भी खलिहान में आया
                    अलगाया गया दानों से …..
                    ………………………… …
                    पता नहीं क्या होगा इसका ?
                    किसी मिल में कागज बन जायेगा
                    या फिर यह थान पर खड़े किसी भूखे पशु की
                    जिंदगी में शामिल हो जायेगा  9  
 ‘तसला’ नाम की कविता जो बहुत ही संवेदनाओं से भरी हुई कविता है जिसमे मजदूरों के दिन-हीन अभावग्रस्त जीवन को को बड़ी ही बेबाकी से चित्रण किया है –
                   अच्छे से मांज-धोकर आटा भी गूंथा जा सकता
                   है उसमें उसी को उल्टा धर आग पर सेंकी जा
                   सकती हैं रोटियां
                   यह मैंने कल शाम को देखा 10


                    बुन्देलखंड से केशव तिवारी जी अपने काव्य में लगातार लोक की बात करते रहे हैं|तिवारी जी के एक कविता –“हम का बुझे” में वह साफ-साफ इस ओर इशारा करते है कि-
                   तुम्हारी जबान मालिक
                   हम ठहरे गवई गंवर गट
                   चार बिश्वा जमीन
                    सोख गई जिनगी
                    कीचा कादौ के बीच 11
              केशव तिवारी के काव्य में लोक बखूबी देखने को मिलता है उनके काव्य में गाँव के अलग-अलग विषयों को लेकर बहुत ही सुंदर कविताएँ लिखी है,जिनमे – ‘भरथरी गायक’,’गवनहार आजी’,’बग्गण’,’घडा’आदि शीर्षक से कविताएँ हैं,जो एक तरह से पूरा लोक ही स्पष्ट कर देती है, उनकी एक कविता ‘गडरिये’ से उदाहरण देखिए-
                    मेरे गाँव के गड़रियों के पास अब भेड़े नहीं है
                     नानी कहती थी कि
                     नई बहुरिया बिना गहनों के
                      और चुगलखोर बिना चुगली के
                      रह सकते हैं पर
                      गडरिये बिना भेड़ों के नहीं 12   
कितना आर्त स्वर कितनी विकट परिस्थिति का चित्रण यहॉं पर देखने को मिलता है| आज के बाजारवाद,उत्तर आधुनिकता और उत्तर उपनिवेशवाद के समय का एक यह भी स्याह चेहरा है जो स्पष्ट करता है कि गाँव तो आज भी वहीँ है जहाँ पहले था|
                      आज भी गाँव में सामन्तीय जोर देखने को मिलता है कुछ बदले स्वरूप के साथ बालू के, ईट के, गिट्टी के ठेकेदार के रूप में | अमित श्रीवास्तव के कविता में उनका लोक कुछ इस तरह प्रस्फुटित होता है –
                      झोपडी की आग में छुप गया
                      सूरज बुझ गया जब
                      सामन्ती गाड़ियों के पहिये वृहद् विशाल
                      गीली मिट्टी पर गहरे निशान छोड़ते हैं
                      तोड़ते रहे मांद ढूह मेड़
                       मेड़ो में उगे सपनों के कुकुरमुत्ते
                       स्वरों से हमारा पसीना नहीं
                       तब खून टपकता रहा हुजूर 13 
             इस प्रकार से हम देखते है कि समकालीन कविता में लोक खुलकर आता है|चूँकि लोक शब्द हमेशा समाज और साहित्य से जुड़ा रहा | देशकाल परिस्थितियां के अनुसार आज भी कुछ परिवर्तनों के साथ काव्य में परिलक्षित होता है|समकालीन कवियों ने लोक को अपनी-अपनी नजरो से देखा,समझा,परखा और फिर लिखा |       
                    
    संदर्भ-
1.  समीक्षा ठाकुर,पत्रिका-आलोचना(अक्तूबर-दिसंबर2013),पृष्ठ-83
2.  आचार्य रामचंद्र शुक्ल,चिंतामणि भाग-एक,पृष्ठ-151
3.  आचार्य रामचंद्र शुक्ल,गोस्वामी तुलसीदास,पृष्ठ-15
4.  समीक्षा ठाकुर,पत्रिका-आलोचना(अक्तूबर-दिसंबर2013),पृष्ठ-84
5.  शिव कुमार मिश्र,भक्ति आन्दोलन और भक्तिकाव्य,पृष्ठ-275
6.  धूमिल,पटकथा(संसद से सड़क तक),पृष्ठ-104
7.  वीरेन डंगवाल, उधो मोहि ब्रज(स्याही तल),कविता कोश से साभार
8.  वही.
9.   डॉ शिरीष कुमार मौर्य,पृथ्वी पर एक जगह,पृष्ठ-12
10.वही०,पृष्ठ-95 
11.केशव तिवारी,एस मिट्टी से बना,पृष्ठ-12
12. केशव तिवारी,विदा नहीं आसान,पृष्ठ-10
13.अमित श्रीवास्तव,अनुनाद ब्लाग पोस्ट से साभार
 

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top