मेरे लिए वंदना शुक्ल का नाम आज की कविता में कुछ अलग तरह से लिखनेवाले कवियों में हैं। उनकी भाषा, कविता का बाहरी और भीतरी ढांचा अलग है। उनके पास जीवन और कविता को देखने की अपनी दृष्टि है। कथ्य में एक ख़ास सांद्रता है, जो बांध लेती है। उन्होंने अपनी दो नई अप्रकाशित कविताएं अनुनाद को भेजी हैं, जिसके लिए मैं उनका आभारी हूं।
इधर पहल-94 में वंदना शुक्ल की एक महत्वपूर्ण कहानी मुमुक्षु भी आई है, जिसे इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है।
अभी
जहां हूं वहां नेट की गति इतनी नहीं कि प्राप्त रचनाओं में उर्दू के
वर्णों को पूरी तरह सम्पादित कर सकूं, इसलिए इन ग़लतियों के खेद है।
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एक कविता
एक कविता
….
आधी रात के घुप्प अँधेरे में
क्षितिज पर टंगी एक नन्ही
झिर्री से
उतरती रहस्य की नीली रोशनी
फैलती समूची धरती पर
जिब्रान के हर्फों की काया
पहन
एक कविता ….
किसी खंडहर हो चुके काल की
अंतिम सीढ़ी पर
बैठी एक अनाकृत आकृति(छाया )
अपने पैरों के नीचे की ज़मीन
को
मजबूती से थामे
बिना किसी दीवार के सहारे
ओक्तोवियो पॉज़ की कल्पना –सी ………
एक कविता
…..
किसी बूढ़ी दीवार में से फूटा
लावारिस पीपल का पौधा
अपने हिस्से की गीली ज़मीन को तकता हुआ
अनवरत ….
कन्फ्युशियस के मौन विराट
में धंसता
एक कविता
….
सैंकड़ों असंभावनाओं व्
निराशाओं के बीच
रखती है अपनी
यात्रा जारी
कल्पना की आँखों से
रंग बिरंगे
महकदार फूलों की क्यारियों को छूती
निस्पृह
..निशांत
सुर्ख नीले, ध्यान मग्न आसमान को देखते हुए
वर्डस वर्थ के अतीतजीवी
स्वप्नीं से गुज़रती
एक कविता
….
उतरती है
असत्य के खिलाफ
नैतिकता के
आंगन में
तमाम अनिश्चितताओं को नकारती
हुई
वोल्टेयर मौन्तेस्क्यु के
विचारों की सीढ़ियों से ?
एक कविता ….
गढ़ सकती है
परिभाषा
अंधेरों की जो
किसी रोशनी के
खिलाफ न होकर
एक परलौकिक धुंधलके की ठंडी
गुफा में
दाखिल हों रही हो रिल्के और
हैव्लास की
मशाल के पीछे
एक कविता
रचती है
निस्सारता की काली रेखाओं से
एक अप्रतिम छवि
गणेश पाइन की काल्पनिक
म्रत्यु की दीवार पर
एक कविता …
खोल सकती है
हज़ारों परतें
मन की
प्याज के
छिलकों की तरह
चेखव की कहानियों के
पात्रों सी
एक कविता
उगा सकती है संभावनाओं की नई
पौध
नेरुदा माल्तीदा ,अम्रता इमरोज़ या
लीडिया एव्लोव व् चेखव के
प्रेम गाथाओं की नर्म ज़मीन पर
या
डुबा के अपनी
उम्मीद
अश्रु की स्याही में
लिख सकती है
करुना के पन्ने पर
अपना सच/संवेग
मुक्तिबोध के दुह्स्वप्नों
सी
वो उग सकती है
घुप्प अंधेरी गुफा में दीपक
बनकर
पूर सकती है पूरी प्रथ्वी को
नील-श्वेत अलौकिक चौंध से
आबिदा परवीन की उन्मुक्त
खनकदार आवाज़ के सहारे
वो….
झरती है ऊँचे पर्वत से
पिघलती चांदी के झरने के साथ
अंधेरी रात में खामोश
खुद से गुफ्तगू करते हुए
निर्मल वर्मा के गद्य में
एक कविता
बतिया सकती है
स्वप्न में
‘’हकीम सानाई की ‘’हदीकत-उल-हकीकत’’ से
या
अल्लाह के
बन्दों की ज़मात के साथ गुज़रती
किसी घने जंगल में
एकांत-चांदनी से प्रेमालाप
करती हुई
एक कविता
बजती है किसी नदी के किनारे
उदास …धीमे धीमे
बीथोवन के संगीत सी
एक कविता
काल को पूरा
जीकर
नियति को परिणिति की देहरी
तक विदा कर
लौट सकती है
हेमिंग्वे के निस्सारता बोध
से
एक बार फिर नई स्रष्टि रचने
को
एक कविता…..
***
छत्र छाया
नई सदी का आगाज़ कुछ अलग सा
था इस बार
पुरानी किसी सदी के इंतज़ार
की बनिस्बद
भूमंडल,विश्व बाज़ार ,वैश्वीकरण ,उत्तर
औपनिवेशिक जैसे
कई नए नवेले शब्द अंखुआ रहे
थे नई सदी की भुरभुरी ज़मीन पर
लगा कि
नया ज़न्म ले रहा हो कोई युग
धरती पर
फलांग रहे थे एक सदी की रेखा
हम
एक चमकदार बाज़ार सजा धजा
बैठा इंतजार कर रहा था
हमारी इच्छाओं का ,उस पार
नहीं था अब पहले सा
छूटे हुए को मुड़कर देखते
डरते हुए
आगे की धुंधली मशाल के पीछे
पीछे सर झुकाए
चलते चले जाना या
कुंठित मौन के घने
प्रायश्चित के तले
अपनी मौत को बहुत धीमे धीमे
मरते हुए देखना …
हम अपनी आजादी एक अप्रतिम
उपलब्धि -सी मुट्ठी में भींचे
चले तो आये थे इस नयेपन की
ज़मीन पर
लेकिन ये आजादी एक
दुह्स्वप्न सी
कुछ अलग सी स्वछंदता लेकर
अवतरित हुई
सब तरफ नया नया
पुराने को क़त्ल करता नया
नए को पछाड़ता नया
नए को दबोचता एक और नया
पुराना भौंचक है नया
उत्साहित
पुराना चमत्कृत है नया
अन्वेषित
इस पुराने नए के बीच कुलबुला
रहे है
संस्कार /परम्पराएँ
एक अँधेरे कोने में सिमट सहम
खड़े हैं आदर्श
गनीमत है अब तक
बची हैं कुछ खँडहर
किम्वदंतियां
एक उजाड़ इतिहास की विस्मृति
से झांकती
सुनों ज़रा बाज़ार के शोरगुल
से तनिक दूर जाकर
नयों के दिमाग के बंद
दरवाजों को खटखटाती हुई
कह रही हैं वो फुसफुसाकर
बंद कर पिछली
सदी का द्वार
आधुनिकता की मज़बूत
चाहरदीवारी के बावजूद
नहीं बचा पाओगे एक
संपन्न धरोहर की अदद बसाहट
……….
बच्चे
नहीं जानते कि ज़मीन का उपियोग
गगनचुम्बी इमारतों ,तरन पुष्कर ,
एक क्रिकेट के मैदान ,किसी आमसभा स्थल
या फिर आन्दोलन या धरनों की
जगह के अलावा
भी कुछ होता है जैसे हल, खेत,
उस पर मटर की हरी भरी फलियाँ
और
,सरसों की फसल ,गेहूं की सुनहली बालियाँ लहलहाना
बच्चे नहीं जानते कार्टून
फिल्मों के
कूदते फांदते
असंभव को संभव करते
नकली चमत्कारिक किरदारों के
पीछे की असली कहानियाँ
नौजवानों के लिए
शिक्षा का मतलब एक अदद नौकरी
और पैसो की खनखनाहट के सिवा
भी
कुछ होता होगा ..शायद ही
जानते होंगे वो …
बाहुबल या
छीनकर हासिल करने की बडबोली
बातें तो
बिखरी पडी हैं धरती पर
लेकिन इसी दुनियां के
शब्दकोष में
प्रेम
भी एक शब्द हैं ये भी
देह के अलावा
कम ही जाना है उन अधेड़ होते
बच्चों ने
……….
देशभक्ति का अस्तित्व अब
गुलामी के दिनों की भूली
बिसरी स्म्रतियां हैं
और देशभक्त का पर्याय कुछ
अदद
चुनावी नारे
आजादी का अभिप्राय परम्पराओं
से मुक्ति और
महापुरुष (अथवा महादेवियाँ
)अब मैदानों ,पार्कों या
चौराहों पर बनी मूर्तियों की
संख्याओं में
समाहित हैं
मूर्तियों को खंडित करने
ग्रंथों को बेरहमी से
नष्ट करने और कला संस्कृति
को अपने
प्रतिशोध की आग में जला
डालने के इतिहास को
औरंगजेब ,गजनबी आदि के रूप में पढ़ते हैं बच्चे
देखो नफरत से कैसे ख़त्म की
जाती हैं नस्लें ?
पढ़ते हैं बावरी मस्जिद का
हश्र और रामजन्मभूमि का महत्व ….
देखो धर्म
निरपेक्षिता के ऐसे उड़ते हैं परखच्चे
आजकल बच्चे नहीं जानते कि
हत्याओं,चुनावी गणित,घोटालों और
भ्रष्टाचार के अलावा भी होता
होगा देश का कोई वुजूद
वो देश को इसी तरह पहचानते
हैं
क्यूँ उस अंधे बहरे वाचाल
इतिहास के अँधेरे तहखानों को
बच्चों के रोशन आसमान से
जोड़े रखना चाहते हैं हम?
क्यूँ बच्चों की ताज़ी
अन्खुआइ जिज्ञासाओं को
एक डरावनी परिणिति में
तब्दील कर देने को आमादा हैं
हमारी विवशताएँ
हमारी अनियंत्रित लिप्साएं
क्यूँ नहीं हम बच्चों को
जीने देते बच्चों की तरह
……….
खाते पीते घरों के बच्चे आज
चपाती का मतलब जानते हैं
गेहूं का आकार नहीं देखा
उन्होंने
वो रोज़ पीते हैं
कॉर्नफ्लेक्स दूध में डालकर ,पर
खेत में उगती सुनहरी मक्का
नहीं देखी उन्होंने अभी तक
शुद्ध आटे से बनी दो मिनिट
में तैयार हो जाने वाली
जादुई मैगी खाते हैं वो रोज़
नाश्ते में ,पर
गेहूं पीसने की चक्की से
अनभिग्य हैं वो
आज के बच्चों को नहीं पता
एक अदद नौकरी के लिए
कितने पापड़ बेलने पड़ेंगे उसे
?
किस तरह बचाकर रखना पड़ेगा
अपना ज़मीर
और इज्ज़त इस पाखंडी परिवेश
में ?
कितने प्रायश्चित कितने बार
करने पड़ेंगे
इस देश और दुनियां में खुद
को बचाए रखते हुए
अनभिज्ञ मासूमियत की भी आखिर
एक सीमा (उम्र)तो होती ही है
……….
****
दोनों तस्वीरों के लिए गूगल इमेज का आभार।
मन की गहन अनुभूतिओं को व्यक्त करती
प्रभावशाली रचनायें—
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाऐं
सादर
ज्योति खरे