मोनिका कुमार: फोटो जानकीपुल से |
कुमार हिंदी के लिए बहुत नई कवि हैं। मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं में अभी उनकी कविताएं
शायद नहीं छपी हैं। उन्हें नेट पर ही कुछ जगह मैंने देखा है। पहली बार सम्भवत: आपका साथ साथ फूलों का पर, कर्मनाशा पर, फिर प्रतिलिपि ब्लाग, जानकीपुल और समालोचन पर। मैंने प्रतिलिपि ब्लाग पर
पहली बार उनकी कविता का नोटिस लिया था। उस पोस्ट पर एक लम्बी बहस फेसबुक पर चली, जिसमें मुझे कविता के हित में हुआ संवाद नज़र आया – पूरी बहस को प्यारे दोस्त गिरिराज ने एक पोस्ट के रूप में संयोजित किया, जिसे पाठक
अनुनाद पर देख सकते हैं।
नए मनुष्य का जन्म – सल्वाडोर डाली: गूगल इमेज से साभार |
बसेरे की तमाम योजनाओं के मध्य
गमन का सारस
आँख झपकता है
मैं हैरान हूँ
लोग मुंह नीचा किए सड़क पर
चुपचाप चल रहे हैं
कलेजे जबकि मचल रहे हैं विस्फोट के लिए
क्या यह महान संयम है ?
हर सुबह विस्फोट को स्थगित कर
तस्मे बांधकर पहुँच जाते हैं दफ़्तर
दराज़ में रखते हैं फोन
और जेब से चश्मा निकालते हैं
पलायन विकल्प है
ट्रेन में चढ़ने से पूर्व
मैं कहती हूँ तुमसे
मेरे पास थे दो ही हथियार ज़िन्दा रहने के लिए
एक था व्यंग्य
दूसरा भी व्यंग्य ही था
अतिशयोक्ति से ढांपना पड़ता था मुझे
मरियल ख़यालों को
व्यंग्य सहना भी अब अच्छा नहीं लगता
यह लगने लगी है हिंसा
जैसे कोई ठूस रहा है मुंह में जबरन
पुरानी मैली नाइलोन की कतरनें
या ताला लगा रहा है मुंह पर
बंदूक जैसी इक चाभी से
मैं अभी किसी स्टेशन पर नहीं खड़ी हूँ
मैं भी दफ़्तर में हूँ
चौरस कमरा है
कुर्सी पर लटकता कोट चमगादड़ लग रहा है
व्यंग्यरहित गर कहूँ
तो बेतरतीब यहाँ सिर्फ़ मैं हूँ
जो
दफ़्तर में बैठे हुए
रेलवे स्टेशन को ताक रही हूँ
बाकी सब उपस्थित वस्तुएं
इशारा कर रही हैं
किसी महान संभावना की ओर
मैंने अभी देखा
कोई बता रहा था किस तरह आसमानी ताक़तें
नियंत्रित करती हैं हमारा जीवन धरती पर
वह बांच रहा था एक जन्म पत्री
बता रहा था एहतियात और सावधानी
ही बची सकती है हमें
अकाल संकट और
असामयिक विरह से
इस वाक्य को सुनते ही
सभी लोग उसको उत्सुकता से सुनने लगे थे
वक्ता असहज हो गया
उसे लगा वह सम्बोधन कर रहा था
हजूम को, अफीम खाई जनता को
धुंध उमड़ आई थी कमरे में
उसके शब्दों पर असामयिक दबाव आ गया था
वह भी शायद अब इस हजूम से विदा चाहता था
अखब़ार में देखती हूँ
आज रस्म उठाला है एक बूढ़े का
साईकल बनाने की फैक्ट्री चालू की थी उसने
चालीस बरस पहले
उसके पुत्र ने संस्मरण लिखा था
जिसमें मैंने ख़ुद जोड़ लिया है –
वह अंगूठा छाप था
वह ऐसे ही अंगूठा छापता था काग़ज़ पर
जिस तरह लोग साईकल की घंटी अंगूठे से बजाते थे
उसकी नीली आँखों में चमक रहती थी
कोई भी लोहा जो साईकल बन सकता था
उसके पिता की नज़रों से बचता नहीं था
बचे रहने के लिए नहीं
मेरे पास सौ के नोट पर लिखा पत्र है
मैंने इसे लिखा था अपनी पहली तनख़्वाह से
अनाम शिशु के नाम
उसके लिए लिखा था मैंने प्रेम
और कुछ सीख
सीख घिस गई है
प्रेम के बारे में इस क्षण कोई विचार नहीं आ रहा
आज छुट्टी होने पर घर न जाकर
ट्रेन पकड़ ही ली जाए
दो ट्रेनें जब तेज़ी से गुज़रेंगी उलट दिशा में
उस बीच में जोर से चीख़ूंगी
रेल यात्रा का यह क्षण
रेल को सबसे आकर्षक सवारी बनाता है
मैं टीटी से करूंगी निवेदन
वह मुझे ऐसे शहर उतार दे
जहाँ चिड़ियाघर हो
जो लगातार पीट रहा है मुझे
पिछली बार देखा था मैंने चिड़िया घर में
एक हाथी जोर जोर से पटक रहा था पाँव अपने बाड़े में
यह हाथी उसी का कोई बिछड़ा है
मैं इस हाथी को वहां छोड़ आऊँगी
दिनों में
भीग चुके बिजली के बोर्ड पर
लापरवाही से पड़ जाता है हाथ
लगता है एक झटका
और मैं झनझना जाती हूँ
ऐसे लगता है
जैसे जिस्म के भीतर कोई चिड़िया जग गई है
मैं डर जाने का अभिनय भी करती हूँ
जैसे निकल ही गई थी जान मेरी
शाम तक होती है सिरहन
चिड़िया के फड़फड़ाने से
उम्र-क़ैदी की दाढ़ी माफ़िक़ बढ़ गई है घास
बारिशजने मकौड़े कुलबुला रहे हैं
उनके चमकते जिस्म से झुनझुनी छूटती है
हो रहा है मेरी शाकाहारी इच्छाओं को ?
गली के लैम्प कुछ मद्धम है
बरसात के बाद
ग़ैरज़रूरी है इनका जलना जैसे
एक लंबी बहस की तरह चली है यह बरसात
इसके बाद सभी का थकना और चुप हो जाना बनता है
सिवा उन ज़िद्दी पतंगों के
जो सर्द लैम्पों को छेड़ेंगे रात भर
सुबह मोहब्बत के मारे कहलाएंगे
खिड़की के कांच पर जमी बूँदें
रिस रही है
रेंग रही हैं
मेरी बाजू पर
नहीं नहीं चिड़िया के परों पर
देखकर मैं अक्सर सोचती थी
असामान्य होगा तुम्हारा घर
कैसी होगी खाने की मेज़
तुम्हारी माँ के लम्बे होंगे बाल
लगाती होगी वह खुशबूदार तेल
जिसकी ख़ुशबू तुम्हारे बस्ते से आती है
हर रात सोने से पहले
थोड़ा और हौसला बढ़ाकर
सोचती थी तुम्हारे घर के बारे में
सिर्फ़ तुम्हारे बारे में सोचने में डर लगता था
तुम्हारी आस पास के चीज़ों को सोचते सोचते
एक क्षण सिर्फ़ तुम्हारे बारे में सोचना
मेरी चतुराई का प्रथम पाठ था
मुझे यक़ीन था
आठवीं तक आते मैंने देख लिया होगा तुम्हारा घर
तुम्हारी माँ का ड्रेसिंग टेबल
चुपके-चालाकी से रख दूँगी वहां अपनी कोई चीज़
मुझे पूछना था तुमसे अगले ही दिन
बातों बातों में
तुम्हारी माँ से करते हुए चुहल
टिफिन लिए
तुम्हारे पिता जी बैग उठा कर कहाँ जाते हैं
अगले ही दिन तुम मिले
यह कहते हुए टीचर से
कि तुम नहीं अब से आओगे इस स्कूल
तुम्हारे पिता जी का तबादला हो गया है
सुनाई नहीं दिया कि यह कौन सा शहर होगा
कानपुर मेरे लिए दूरस्थ शहर था
कोई ट्रेन सीधी नहीं जाती वहां तक इस शहर से
यहाँ सब कुशल मंगल है
ख़ुशबूदार तेल लगाती हूँ अब मैं भी
कानपुर तक सीधी ट्रेन अभी शुरू नहीं हुई है
चातुर्य अभ्यास पड़ा हुआ है
उपेक्षित जैसे कोई वस्तु घर में
नौकरीशुदा लोगों से पहला प्रश्न पूछती हूँ
क्या उनकी नौकरी मैं है तबादले का विधान
और तबादला लगा है मुझे खुरदरा सरकारी शब्द
जिसका निजी अर्थ है
की असह्य शीतलहर
***
कविताओं पर थोड़ा रुक कर. पहले ब्लॉग के रिकवर होने की ख़ुशी और फिर यह कि पहली कविता में व्यंग की जगह व्यंग्य होना चाहिए शायद. संभव हो तो वह एडिट कर दें.
शुक्रिया अशोक…. किसी तरह पिछले इसे फिर ला पाया हूं…अब तो बैकअप भी डाउनलोड कर लिया है। शायद क्यूं बिलकुल व्यंग्य ही होना चाहिए…. शेड्यूल्ड पोस्ट थी….मैंने अपनी टाइपिंग की ग़लती नहीं सुधारी….सोचा था आने से पहले देखूंगा…फिर ख़ुद ही दिल्ली जा बैठा…कवि से और अब तक इसे पढ़ चुके पाठकों से मुआफ़ी चाहता हूं..
उत्साह, सजगता और संतुलन… सच बात। मोनिका कुमार की जितनी भी कवितायें मैओं देख – पढ़ सका हूँ उन पर एक पाठक की हैसियत से यही कहना है कि भाव और भाषा को बरतनें के क्रम में उनके पास चतुराई नहीं है और ही इतनी कोमल विनम्रता की बात न तो पूरी हो न ही स्पष्ट साथ ही आगे के संवाद को नियंत्रित करने की चौंकाऊ समझदारी भी। यहँ कविता है; आज की और अपने पास की कविता – अपनी भाषा में कही गई।
बेहतरीन कवितायें ..बधाई
मोनिका कुमार की एक छोटी कविता पर यहाँ काफी बहस हुई है . ये कविताएं उस से कुछ अलग लगीं. अच्छे, ताज़े चित्र हैं…. इन्हे अरेंज करने की कोशिश नहीं दिखती. मानो जैसे जैसे बिम्ब आते गए दर्ज कर लिए गए हैं . स्वप्न की तरह से. इस मे स्वाद है लकिन कुछ मिस्सिंग है, जो हम नकिसी भी कविता मे ज़बरन तलाशते हैं. जब कि मेरा कहना यह है कि ऐसी ज़बर्दस्ती भी क्यों ? पठनीयता है इन कविताओं में . शायद शीर्षक रखने से गम्भीर अर्थ खुले ं ???
"मेरे अंदर एक हाथी है" ..बड़ी छटपटाहट है इस बात में
अच्छी कविताएँ ..