उदास मौसम है
उदास मौसम है
बह रही है
नीली नदी
बर्छियों के जंगलों
के चारों ओर
आग के समुद्र हैं
स्वप्न पाखी जा चुका है
सुदूर उड रही आकाश में
एक फ़ाख्ता अकेली
***
उन दिनों में
उन दिनों में
पुरानी गलियाँ हैं
तंग दरवाज़े!
आकाश की झिर्रियों से झलकती हैं यादें
एक खिड़की है अभिलाषा सी
चंद अफ़वाहें
दोपहर की चटख धूप
पुरानी किताब में लिखी हुई कविता
और तुम्हारा नाम
गुनगुनी सी हो उठी है
जाडों की यह शाम
***
पहाड और दादी
पिता से सुना है
कि तुम एक आख़िरी लकडी के ख़ातिर
फिर से पेड पर चढी और टहनी टूटते न टूट्ते
अंतहीन गहराई में जा गिरी
उनकी आँखों के कोरों में गहराते व्यथा के बादलों
में क्षत विक्षत तुम और उनका बचपन
अपनी सम्पूर्ण वेदना में उभर आता है
क्यों गिरती रही हैं चट्टानों से स्त्रियाँ
कभी जलावन के लिये
कभी पानी की तलाश में कोसों दूर भटकते
कभी चारे के लिये जंगल में
बाघ का शिकार बनती स्त्रियाँ
बचपन में बहुत बार तलाशा है
मैने अपने सिर पर तुम्हारे हाथों का स्पर्श
पर बार-बार वही सवाल मेरे हिस्से में आया है
क्यों नहीं जी पाती एक पूरी ज़िन्दगी
पहाड पर स्त्रियाँ
***
दंगा और मौत
वह अब नहीं है
क्या सोचा होगा उसने उस वक़्त
जब खुद को पाया होगा
उन्मत्त भीड के बीचोंबीच
निहत्था!
याद आया होगा घर?
चूल्हे में मद्धिम आँच पर पकती अन्तिम रोटी
खेतों की तारबाड़
बूढे माँ पिता
ज़रूरी कागज़ात
बच्चे का परीक्षाफल
आने वाली सालगिरह
चमकती संगीने लिये
खूँख्वार हो चुके
भयानक दाँत और पंजे निकाले
ख़ूनी चेहरों को क्या एक पल के लिये भी
आया होगा याद
ईश्वर, अल्लाह. यीशू या धर्मग्रन्थ
लालसाओं की अनेक घुमावदार सीढियों के बीच चलते हुए
घूमती दुनिया के चक्के में चल रही हैं गुनह्गार साँसें
क़त्ल का मंज़र पेश है
तकलीफ़ है उन्माद है
अव्यक्त सा अवसाद है
और हम हैं अपने आदर्शों के आवरणों को
उधड़ते देख्नने को अभिशप्त
इस भयानक मंज़र को कैसे करूँ मैं व्यक्त
कि हम अभी भी अपनी- अपनी चाहरदीवारियाँ
दुरुस्त कर रहे हैं
***
दस्तक
कुछ तय नहीं है अभी
चाँद के दरवाजे पर दस्तक देनी है
समय की बहती हुई नदी के मुहाने तक जाकर
आसमानी साये धीरे. धीरे आगे बढ़ते हुए ठिठकते हैं।
चाँद की रोशनी में नहाये हुए रात के हस्ताक्षर
हर साये को उसका काम समझाते हुए बहते जाते हैं
सब तरफ चुप.चुप
हर कोई व्यस्त
पर एक दस्तक नदी की लहरों में तैर रही है
नदी में भी नदी पर भी
वो चाँद में भी है जमीं पर भी
वही आसमानी सायों को रौशन कर
उनकी मुट्ठी में दबे सपने आजा़द कर देगी
ऐसे जैसे पथरीला तट पानी की ताक़त से बह जाये
रात की मुदीं आँखें खुल जायें
बंद पलकों के ख़्वाब खुली आँखों से नज़र आयें
चाँद की रोशनी में नहा जायें
पहाड़, जंगल समूची धरती,बर्फ रेत और समंदर
आसमाँ ज़मीं हो और ज़मीन आसमाँ हो जाये
रात की बंद पुस्तक के पन्नों को खोलना बाकी है
समय की बहती नदी में सायों का हमसाया होकर बहना
अभी बाक़ी है।
***
achcha silsila. sundar kavitayen!
सभी कविताएं एक से बढकर एक
UN DINO , PAHAD AUR DADI बहुत अच्छी लगीं
कल्पना पंत की कविताएं मैं निरंतर यत्र-तत्र पढ़ता रहा हँू। ऊपर से शांत झील सी दिखने वाली कविताएं अपने भीतर गहरी हलचल छुपाए रखती हैं। पाठक के मन में उतरकर ये हलचल बढ़ जाती हैं। उनकी कविताएं शोरगुल न कर सीधे पाठक के मन पर दस्तक देती हैं। इनकी कविताओं में मधुर स्मृतियाँ हैं , अपना परिवेश है तथा स्त्री जीवन के कष्ट एवं संघर्ष हैं जो कहीं गुदगुदाती हैं तो कहीं हमारी संवेदनाओं को झकझोरती हैं। पाठक बहुत कुछ सोचने को विवश करती हो जाता है। प्रकृति से उपादान लेकर कल्पना अपनी अभिव्यक्ति को गहनता और कलात्मकता प्रदान करती हैं जिसको यहाँ प्रस्तुत कविताओं में भी देखा जा सकता है। अपनी कविताओं में प्रश्न खड़े कर जीवन की विडंबना को रेखांकित करती हैं। ‘पहाड़ और दादी ’ कविता में वह यही काम करती हैं। ‘क्यों नहीं जी पाती एक पूरी जिंदगी/पहाड़ पर स्त्रियाँ ’ उनका यह सवाल पहाड़ी स्त्री की त्रासदी और मौजूदा विकास के माँडल के खोखलेपन को उघाड़कर रख देता है। महिला सशक्तीकरण के खूब दावे किए जाते हैं पर अब तक उसकी जीवन की सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं कर पाए हैं । अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए वह अपने जीवन को दाँव पर लगाने के लिए विवश है। पहाड़ों में प्रकृति से संघर्ष करते हुए अपने जीवन से हाथ धो बैठना पहाड़ी स्त्री की नियति बन गई है। आए दिनों इस तरह की खबरें पहाड़ के लिए आम हैं। यह अच्छी बात हैं कि कल्पना पंत अपनी कविताओं में पहाड़ी स्त्री की विडंबना पर विलाप न कर उसके कारणों पर प्रश्न खड़े करती हैं। ऐसे प्रश्न जिनका समाधान होना ही चाहिए। कल्पना की कविताओं में एक अच्छी बात और है कि ये केवल स्त्री प्रश्नों तक ही सीमित न होकर जीवन के अन्य संवेदनशील विषयों को भी अपनी कविता की अंतर्वस्तु बनाती हैं। उनके कवि-कर्म में बहुत संभावनाएं दिखाई देती हैं इसलिए उनको भविष्य के लिए शुभकामनाएं और शिरीष भाई का आभार कि उन्होंने अनुनाद में उनकी कविताएं पढ़ने का अवसर प्रदान किया।
sundar kavitaen ..
उदास मौसम की उदासी लाजवाब है .
कल्पना पंत की कविताओं में विषय वैविध्य है। ’ उदास मौसम है’ में बहुत सुंदर और दो परस्पर विपरीत बिंबों का बड़ी ही खूबसूरती से संयोजन किया गया है। ’उन दिनों में’ कविता के माध्यम से कवियित्री के हृदय के अंतर्द्वंद्व शब्दों के रूप में छलकते हैं। उनमें एक टीस है तो प्रेम का सुखद एहसास भी है।
प्रकृति और प्रेम से गुजरते हुए अचानक ’ दंगा और मौत’ के रूप में वर्तमान समाज की कुछ भयावह सच्चाइयों से भी वह हमें रूबरू कराती चलती हैं। दो जून की रोटी के लिए संघर्षरत एक निर्दोष आम आदमी के यथार्थ के माध्यम से वह हम सबके सामने एक प्रश्न खड़ा करती हैं तो ’पहाड़ और दादी’ के माध्यम से पर्वतीय क्षेत्र की उन मेहनतकश महिलाओं के सच को सामने लाती हैं, जो सुबह से शाम खेतों और जंगलों में अथक परिश्रम करती हैं, पर उनके हिस्से के दुख ओर व्यथा का अंतहीन सिलसिला आजीवन चलता है।
’दस्तक’ एक उत्तम कविता है। कविता की गहराई में जाने पर ये पंक्तियाँ उस स्वप्न का एहसास करा जाती हैं, जो हम सबने देखे हैं…संघर्ष के….समानता के….एक बेहतर समाज के…..।
एक दिन हमारी मुठ्ठी में दबे सपने जो आजाद कर देगी………
जिस दिन आसमां जमीं हो और जमीं आसमा हो जाय,
रात की बंद पुस्तक के पन्नों को खोलना बाकी है।
कल्पना पंत की कविताएं पसंद करता रहा हूं.'उन दिनों','पहाड़ और दादी', 'दस्तक' अच्छी कविताएं हैं.