अनुनाद

असद ज़ैदी की कविता

खाना पकानानानी ने जाने से एक रोज़ पहले कहा –
सच बात तो यह है कि मुझे कभी
खाना पकाना नहीं आया

उसकी मृत्युशैया के इर्दगिर्द जमा थे
कुनबे के बहुत से फर्द – ज़्यादातर औरतें ढेरों बच्चे –
सुनकर सब हंसने लगे
और हँसते रहे जब तक कि उस सामूहिक हंसी का उजाला
कोठरी से उसारे फिर आँगन में फैलता हुआ
दहलीज़ के रास्ते बाहर न आ गया
और कुछ देर तक बना रहा

याददाश्त धोखे भरी दूरबीन से
मुझे दिखती है नानी की अधमुंदी आँखें, तीसरे पहर का वक़्त
होठों पर कत्थे की लकीरें और एक
जानी पहचानी रहस्यमय मुस्कान

मामला जानने के लिए अन्दर आते कुछ हैरान और परेशान
मेरे मामू मेरे पिता

रसोई से आ रहा था फर – फर धुंआ
और बड़ी फूफी की आवाज़ जो उस दिन रोज़े से थीं
अरे मुबीना ज़रा कबूली में नमक चख कर बताना

वे सब अब नदारद हैं

मैंने एक उम्र गुज़ार डी लिखते
काटते मिटाते बनाते फाड़ते चिपकाते
जो लिबास पहनता हूँ लगता है आख़िरी लिबास है
लेटता हूँ तो कहने के लिए नहीं होता
कोई एक वाक्य
अँधेरे में भी आकर नहीं जुटता एक बावला कुनबा
वह चमकीली हंसी वैसा शुद्ध उल्लास !
***
आभार – पब्लिक एजेंडा

0 thoughts on “असद ज़ैदी की कविता”

  1. ग़ज़ब की कविता है। पढ़ते-पढ़ते ख्याल आया कि जाने से कुछ समय पहले हम बच्चों से कहेंगे–सच बताएँ, हमें कभी लिखना नहीं आया। और उनमें से कोई भी नहीं हँसेगा। वे एक-दूसरे की शक्ल देखेंगे यह सोचते हुए–अच्छा, तो यह बात दद्दू को भी पता थी?

  2. अद्भुत काव्य के सटीक रास्ते से
    हो कर गुज़रते हुए
    बात कह डाली आपने ….
    लगने लगता तो है ,,
    शब्द-शब्द से पहचान है हमारी …
    लेकिन परायापन भी तो हमें ही नज़र आता है
    जाने क्यूं . . . .

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top