कहाँ है दोस्त का घर?
साँझ के झुटपुटे में घुड़सवार ने पूछा
और इस पर चुप्पी साध गया आसमान
बगल से गुजरता राहगीर
मुट्ठी भर रेत और रौशनी की एक हरीभरी टहनी
उसके हाथ में थमाता है
और चिनार के पेड़ की ओर इशारा करते हुए बोलता है:
पेड़ तक पहुंचाने वाला रास्ता ये है
इसके बीचोबीच आयेगा एक घना बगीचा
इस बगीचे के बीच में दिखेगी एक खूबसूरत सी पगडण्डी..
ईश्वर की नींद से भी ज्यादा हरी भरी
जिसके अन्दर झांकोगे तो दिखेगा नीलवर्णी प्रेम
बिलकुल सच्चाई के मखमली पंख सरीखा
तरुणाई तक पहुँचते पहुँचते
पगडण्डी ओझल हो जाएगी…
फिर इसके बाद दिखाई देगा
एकांत का लुभावना कमल
पर उसकी ओर खिंचे चले मत जाना..
कमल जहाँ से दिखेगा
उस से दो कदम पहले ही
नजर में आयेगा पृथ्वी के कालातीत मिथकीय आख्यान का उदगम..
थके होगे सो ले लेना वहां थोड़ा सा विराम..
इस जगह तुम्हे महसूस होगी ऐसी दहशत पगी नीरवता
सब कुछ खालिस नंगा दिखाई देता है
जिसके आर पार
दम साध के हवा की तरल मासूमियत में सुनोगे
तो लगेगा
पास से आ रही है जैसे कुछ सरसराने की आहट…
आस पास जब दौड़ेंगी तुम्हारी निगाहें
तो दिखेगा एक फुर्तीला सतर्क बालक
देवदार के वृक्ष पर चढ़ के दुबका हुआ
जिसकी ऑंखें गडी हुई हैं
रौशनी के घोंसले के अन्दर
कि वहां से पकड़ लाये
एक पंख फडफडाता परिंदा….
जब तुम वहां पहुँच जाओगे
तो उस बालक से ही से पूछना:
कहाँ है दोस्त का घर????
( http://www.blogger.com/www.perlit.sailorsite.net%20/mahvash%20/sohrab%20_neshani%20.html/mahvash /sohrab _neshani .html पर प्रस्तुत महवश शाहेघ के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित पुनर्पाठ)
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अपनी बहुचर्चित फिल्म में अब्बास एक आठ साल के मामूली से बच्चे की अपने दोस्त को तलाश करने की जिस जद्दो जहद का ताना बाना बुनते हैं उसमे जीवन की तमाम बे रौनक बे रंगीनी के बीच से मानवीयता और निर्दोष संवेदना की खुशबू उठती हुई दिखाई देती है.एक दिन शाम को स्कूल से घर लौट कर आने पर ये बच्चा अपने बस्ते में एक नयी कॉपी देखता है…उसकी बगल की सीट पर बैठने वाले सह पाठी की कॉपी गलती से उसके साथ साथ चली आयी है.उसको देख के वो इस आशंका से सिहर जाता है कि अगले दिन कठोर दंड देने वाला निर्मम मास्टर अपनी कॉपी में होम वर्क न करने के कारण पीट पीट कर उस लड़के का भुरता ही बना डालेगा.अपनी नौकरी और जीवन से घनघोर रूप में असंतुष्ट मास्टर को होम वर्क कर के न आना उतना उत्तेजित नहीं करता जितना ये कि कोई विद्यार्थी अपनी कॉपी में ऐसा न करे.घर पहुँचते ही बच्चे की थकी माँदी माँ को काम में हाथ बंटाने वाला एक सहारा दिखता है तो अपाहिज दादा को उनका काम कर देने वाला…इन सबकी अपनी अपनी उम्मीदें और फरमाईशें हैं…हर रोज़ ये बच्चा इन सबको पूरा किया भी करता था,पर आज वो इन सबकी कोई परवाह नहीं करता–उसके सामने तो बस एक ही लक्ष्य है कि जल्द से जल्द उस सहपाठी की कॉपी उसके पास तक पहुँचा दी जाए ….पर उसका घर कहाँ है ये तो मालूम ही नहीं, सिवा इसके कि पहाड़ी के उस पार से वो आता – जाता है.पूरी फिल्म अपने दोस्त के घर की तलाश की बेचैन कर देने वाली कहानी है. घर के लोगों की बातें अनसुनी कर के बच्चा कॉपी ले के पहाड़ी के उस पार निकल जाता है …पर घर नहीं मिलता.थोड़ी देर बाद ये सोच कर सांझ के झुटपुटे में वो वापस अपने घर की ओर लौट पड़ता है कि हो सकता है दोस्त अपने पिता को ले के उसके घर की ओर चला आया हो ..रास्ते में उसको अपने ज़माने में कलाकारी वाले सुन्दर दरवाजे बनाने के लिए मशहूर बढई मिलता है जिसकी कला की अब कोई कीमत नहीं रही…वो बच्चे को एक सूखा हुआ हुआ फूल देता है.आने जाने में ही रात घिर आती है…अंत में थक हार कर बच्चा घर लौट कर अपना होम वर्क पूरा करता है,साथ साथ अपने दोस्त की कॉपी में भी होम वर्क करता है.सुबह सुबह जब वो स्कूल पहुँचता है तो दोस्त की कॉपी खो जाने की बदहवासी उसके चेहरे पर साफ़ साफ़ दिखाई देती है.बच्चा दोस्त को उसकी कॉपी थमाता है…जल्दी जल्दी वो अपनी कॉपी खोलता है…उसके अन्दर उसको बूढ़े बढई का दिया हुआ सूखा हुआ फूल दिखाई देता है,साथ साथ सुन्दर अक्षरों में किया हुआ होम वर्क भी.तब टक मास्टर बेंत लेकर वहां पहुँच जाता है…जैसे ही उसको कॉपी में होम वर्क किया हुआ दिखता है और उनके बीच अपनी छटा बिखेरता फूल दिखता है,दोस्त की पीठ पर हाथ रखते हुए वो बोलता है…शाबाश….और आगे बढ़ जाता है….संतोष की मुस्कराहट लिए बच्चे के चेहरे पर पहुँच कर फ़िल्मकार का केमरा ठहर जाता है।
बेहतरीन जानकारी। बहुत-बहुत शुक्रिया शिरीष भाई।
kavita badi he magar achi he
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
अब्बास किरोस्तमी की फिल्में से जाहिर होता है कि सिनेमा सिर्फ संसाधनों से,पैसो से महान नहीं बनता। उसके लिए उत्कृष्ट सिनेमाई समझ चाहिए होती है। गर वह हो तो इससे कई कमियों की भरपाई की जा कसती है।
jordar post!
badhai!
aapke blog ki jnkari bhai prem chand gandhi se mili.ek achhe blog se sakshatkar hua.
omkagad.blogspot.com
देवीप्रसाद मिश्र ने भी इस फ़िल्म के बूढ़े चरित्र पर एक आलेख लिखा है।
खिड़कियां बनाने और बाहर देखने का अर्थ
फ़ारसी हमसे इतनी दूर नहीं है। पुरानी फ़ारसी यानी अवेस्ता, बक़ौल अजित वडनेरकर, संस्कृत की बहन है। मेरी जानकारी में राजस्थान विवि और जेऐनयू में तो फ़ारसी पढ़ाई जाती है है। राज विवि में शायद लगभग बंद है। फ़ारसी-हिंदी कोश भी है। सार-संसार फ़ारसी से सीधे हिंदी में कई अनुवाद छाप चुकी है। आप अंग्रेज़ी के अलावा कोई विदेशी भाषा सीखने की कोशिश कीजिए।
sonu ji, aapka bahut aabhar devi prasad mishra ke aalekh se parichay karvane ke liye.maine yeh dekhne aur sab ke sath sajha karne ki koshish ki hai ki ek chhoti si kavita kaise ek vyapak aur saarvajanin sajiv kaaya ka roop dharan kar leti hai…iske liye mujhe abbas kairostami sabse najdik ke filmkar(bhaugolik nahi balki bharatiy samvedna ke)lagte hain.
yadvendra
यादवेंद्रजी, मैं आपसे नाराज़ हूँ। आपने ग़लतबयानी की। मैंने कहा फ़ारसी हमसे इतनी दूर नहीं है।। मैंने फ़ारसी भाषा से दूरी की बात कही, ना कि ईरान से भौगोलिक दूरी या फ़ारसी संवेदना से दूरी की। ऐसी अच्छी कविताओं का मुझे कौन-सा ज़्यादा ज्ञान है? आप लोगों की परख से चुनी हुई कविताएँ के लिए तो यह ब्लॉग पढ़ता हूँ। पर आपकी एक अक्षमता मुझे बहुत अखरती है, आप लोग अंग्रेज़ी की छलनी से विदेशी कविताएँ परोसते हैं। पहले तो मैं ऐसे अनुवाद पढ़ता ही नहीं था। लेकिन फिर कबाड़ख़ाना और आपके ब्ल़ॉग पर इन कविताओं के ऊपर की टिप्पणियों को पढ़ते हुए मैंने इन्हें भी स्वीकार लिया। मैं अनुवाद की गुणवत्ता की बात कर रहा हूँ। कविताएँ और उन कविताओं की आपकी परख अलग बात है। यह आपकी नाक़ाबिलियत है कि आप अंग्रेज़ी के ज़रिए अनुवाद करते हैं। साहित्य अकादमी ने विदेशी भाषाओं से अनुवाद को बढ़ावा नहीं दिया, और ऐसी व्यवस्था कर दी की विदेशी भाषाओं से सीधे हिंदी अनुवाद को कोई मौक़ा नहीं रहे– ऐसी शिकायत अमृत मेहता करते हैं। उनके पास जितने साधन हैं उससे वो सात-आठ भाषाओं की रचनाएँ प्रकाशित करते हैं। पत्रिका को मुफ़्त में बाँटते हैं। विदेशी भाषाओं से सीधे हिंदी में अनुवाद करने वाले 58 ऐसे अनुवादक हैं, जिनकी रचनाएँ सार-संसार में ही पहली बार छपीं, यानी यह अमृत मेहता और उनके साथ जेऐनयू के कुछ प्रोफ़ेसरों और एकाध लोगों की कोशिश है। साहित्य अकादमी कितन कुछ कर सकती थी?
"अंग्रेज़ी छलनी" के क्या दोष हैं, इसका उदाहरण देता हूँ। आपने जो अंग्रेज़ी अनुवाद का लिंक दिया है, वो ख़राब है, उसका सही लिंक यह है। इस लिंक पर जाएँ तो देखेंगे अंग्रेज़ी अनुवाद के नीचे मूल कविता भी है। उर्दू की लिपि का कोई भी जाननेवाला यह देख सकता है कि मूल कविता का शीर्षक "निशानी" है।
نشانی
अंग्रेज़ी अनुवादक ने "निशानी" को "Address" कर दिया। अगर आप फ़ारसी जानते तो इसका अनुवाद निशानी शीर्षक से ही करते। यह सोचना मेरे बस की नहीं है कि "निशानी" को "पता ठिकाना" कर देने से कविता के भाव में क्या फ़र्क़ पढ़ा। बाक़ी एक बात से तो आप इनकार नहीं करेंगे कि अनुवाद की गुणवत्ता तो घटी है ही।
बाक़ी आप लोगों का आदर करता हूँ कि आप पारखी पाठक हैं।