गुज़री सदी में उर्दू शाइरी का नाज़ो-अंदाज़ बदलने वालों में फैज़ का नाम प्रमुख है. उनकी शाइरी ‘घटाटोप बेअंत रातों’ में सुबह के तारे को ताकती तो है ही, ‘कू-ए-यार’ से ‘सू-ए-दार’ भी निकल पड़ती है. आज उन्हें इस दुनिया से रुखसत हुए पच्चीस बरस हो गए पर उनके कलाम की शगुफ्तगी वैसी की वैसी है. महबूब शायर और उसके कमाल-ए-सुखन को सलाम!
आज बाज़ार में पा-ब-जोलाँ चलो
चश्म-ए-नम जान-ए-शोरीदा काफ़ी नहीं
तोहमत-ए-इश्क़-ए-पोशीदा काफ़ी नहीं
आज बाज़ार में पा-ब-जोलाँ चलो
दस्त-अफ़्शां चलो, मस्त-ओ-रक़्सां चलो
ख़ाक-बर-सर चलो, खूँ-ब-दामाँ चलो
राह तकता है सब शहर-ए-जानाँ चलो
हाकिम-ए-शहर भी, मजमा-ए-आम भी
सुबह-ए-नाशाद भी, रोज़-ए-नाकाम भी
तीर-ए-इल्ज़ाम भी, संग-ए-दुश्नाम भी
इनका दमसाज़ अपने सिवा कौन है
शहर-ए-जानाँ मे अब बा-सिफा कौन है
दस्त-ए-क़ातिल के शायां रहा कौन है
रख्त-ए-दिल बाँध लो दिलफिगारों चलो
फिर हमीं क़त्ल हो आयें यारों चलो
आज बाज़ार में पा-ब-जोलाँ चलो
******
(पा-ब-जोलाँ : ज़ंजीरों में बंधे पाँव, जान-ए-शोरीदा: व्यथित मन, दस्त-अफ़्शां: हाथ फैलाये हुए, मस्त-ओ-रक़्सां: नृत्य में मग्न, ख़ाक-बर-सर: सर पर धूल लिए, खूँ-ब-दामाँ: दामन पर खून लिए, दमसाज़: मित्र, शायां -योग्य/काबिल , बा-सिफा – निष्कपट,संग-ए-दुश्नाम: धिक्कार में फेंके जाने वाले पत्थर)
यह जरुरी था… उनको पढ़े बहुत दिन हो गया था … शायद तीन साल… साउथ कैम्पस से ही उनका कायल हूँ… कृपया, उनकी "हम देखेंगे" भी पोस्ट करें..
बहुत उम्दा ….बहुत अच्छी सोच …कई बार पढने के बाद ……
और भी दुख है जमाने में मोहब्बत के सिवा… ये तो हमने फैज से ही सीखा था। हमारी और न जाने कितनी और पीढ़ियों को फैज ने सामाजिक चेतना से लैस किया। इस महबूब शायर को प्रस्तुत करने के लिए आपका आभार।
mohabbat aur inqlab ko ek jagh se dekh sakne kee kuvvat wale is kavi ko salam.
कठिन भाषा है, निराला की शक्ति पूजा पढ्ते हुए यही अहसास हुआ था.टीचर ने कहा था "ओज पूर्ण"! बप्पा…. यह ओज नही चाहिए. जो समझ ही न आती हो. फुट नोट दिया करें भाई! अब इस उमर में मेहनत नही होती .
सॉरी भाई, दिख गया. अब पुनर्पाठ करता हूँ