चयन एवं प्रस्तुति : पंकज चतुर्वेदी |
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कविता , युग की नब्ज़ धरो
अफ़रीका , लातिन अमेरिका
उत्पीड़ित हर अंग एशिया
आदमखोरों की निगाह में
खंजर-सी उतरो !
जन-मन के विशाल सागर में
फैल प्रबल झंझा के स्वर में
चरण-चरण विप्लव की गति दो
लय-लय प्रलय करो !
श्रम की भट्ठी में गल-गलकर
जग के मुक्ति-चित्र में ढलकर
बन स्वच्छंद सर्वहारा के
ध्वज के संग लहरो !
शोषण छल-छंदों के गढ़ पर
टूट पडो नफ़रत सुलगाकर
क्रुद्ध अमन के राग , युद्ध के
पन्नों से गुज़रो !
उलटे अर्थ विधान तोड़ दो
शब्दों से बारूद जोड़ दो
अक्षर-अक्षर पंक्ति-पंक्ति को
छापामार करो !
( 1975 )
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विशेष : इस कविता से यह सबक़ मिल सकता है कि अपने समय से और उस वक़्त की समूची पीड़ित विश्व-मनुष्यता से कवि की कितनी गहन संसक्ति होनी चाहिए . साथ ही , राजनीतिक दृष्टि कितनी साफ़ , सशक्त और आवेगशील हो . गौरतलब है कि कविता में यशस्वी अग्रज कवि शमशेर बहादुर सिंह की एक सुप्रसिद्ध कविता ‘ अमन का राग ‘ की भी एक बड़ी आत्मीय और सार्थक स्मृति विन्यस्त है . सार्थक इसलिए कि अमन भी ” युद्ध के पन्नों से गुज़रे ” बगैर मुमकिन नहीं है——द्वंद्वात्मकता के इस अनिवार्य आशय को व्यक्त करके गोरख पांडेय ने बड़ी शालीनता से ” अमन के राग ” को सही परिप्रेक्ष्य में पढ़ने-समझने एवं विश्लेषित करने का आग्रह किया है . आख़िरी बात यह कि ” अक्षर-अक्षर पंक्ति-पंक्ति ” की ” छापामार ” भूमिका का इसरार बताता है कि छंद के शिल्प में यह कविता लिखने के बावजूद गोरख ने उसे कितने आधुनिक आशयों से संपन्न किया था और कवि से वह अपने दौर के सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्षों में कितनी गहरी और उत्कट हिस्सेदारी की उम्मीद करते थे——दरअसल , उसके बिना वह रचना-कर्म की किसी क़िस्म की सार्थकता की कल्पना नहीं कर सकते थे ।
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मन शक्ति का आवेग लिये कविता है.. बंद कानों को खोल सके तो बात बने.
कविता अच्छी है, इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन यह सबक वाला मामला जंचा नहीं। मित्र हमारी शिक्षा पद्धति पहले ही प्रसंग सहित व्याख्या का एक रोग लगा देती है, अब कम से कम आप तो सबक मत निकालिए। ब्लॉग पर अच्छी कविताएं दी जा रही है, यह दिल को तसल्ली देता है।
यह कविता नहीं, मुक्तिकामी दलों का आव्हान गीत है।
waab behtareen… apke blog par mujhe sarvasheat kavita padhne ko milti hai. Brekht, Giriraaj aur ab Gorakh Panday… Great. Weldone Sir, thank you so much. ek jegeh itni sari kavita ka hona sukhad hai…
मेरे मन में कुछ उबल रहा था लेकिन फिर देख रहा हूं संदीप बाबू ने हमारे मन का उबाल उलट दिया ही है.
एक और विश्व कविता
देखियेगा गोरख की कविता पर कोई आपको भी जातिवादी न कह दे… हमने उनकी ग़ज़ल लगायी थी और ख़ूब गालियां खाई।
ek mahan kavita, samooche rachanakarm ki paribhasha ko vistrit kartee hui
priyam ankit