अमर – दो कविताएँ
तीसरी शाम ये कौंधा कि चौराहे पर
तेज भागती गाडियों में से हरेक को खुद को
कुचल कर मार देने का न्यौता दे रहा
ये बूढ़ा डबडबाई आँखों वाला कुत्ता इतने दिनों से
सड़क के बीच चुपचाप बैठकर कहीं
आत्महत्या करने की कोशिश तो नहीं कर रहा?
कब से ऐसा कर रहा है?
शाम की गहमागहम ग्राहकी में व्यस्त वह बोला बेकूफ है कुत्ते की मौत मरना चाहता हैः
जानते हो एक कवि था हिन्दी का, कविता इसलिये लिखता था कि उसकी संतान कुत्ते की मौत ना मरे, मैंने सोचा कहूँ पर नहीं कहा, कहता तो यह भी कहता वह आत्महत्या के विरुद्ध था
जोर से चीखते हुए
ब्रेक लगाते
गुजर रही
कई क्रूर कारें
हर बार
रहम से निराश होता हुआ
तीखी रौशनी में अपना मरण ढूँढता हुआ
वह बूढ़ा डबडबाई आँखों वाला कुत्ता उस शाम में अमर है जब मैं तीसरी बार पहुँचा था उस चौराहे
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महान लेखकों के लिखी हुई सब चीज़ों की तरह वह कभी प्रकाशित होगी ऐसा सोचते हुए लिखी गई है उनकी हर चिठ्ठी पढ़कर लगता था – मुझे लिखी गई है थोड़ा अमर मैं भी हो जाऊंगा, यह ख़याल करता हुआ पढ़ता था मैं उन्हें, अभी कल की चिठ्ठी में था –
“महान संयोग हुआ! सुबह बाथरूम में फिसल गया मैं
महान संगीतकार जनाब क.ख.
और महानतर अभिनेत्री सुश्री ग. घ.
भी कभी बॉथरूम में फिसल कर गिरे थे
और महानतम कवि श्री अ.अ. की इस तरह फिसलने से ही हुई थी मृत्यु, वह तो जालसाजी है कि तानाशाह ने उन्हें जहर दे दिया”
याद रहे, यह मेरी मृत्यु से चालीस बरस पहले और उनकी मृत्य से पूरे चार सौ बरस पहले हुआ था
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गिरिराज की कविताये हमेशा आकर्षित करती हैं अपने विशिष्ट कहन के चलते…
अमरता को देखने का यह नज़रिया बहुत कुछ सोचने को मज़बूर करता है
पहली कविता में कोई मरण की व्यग्रता में अमर हो गया है तो दूसरी में अमरता की अदम्य चाह में कोई मरा जा रहा है.दोनों अनूठी कविताओं के लिए कवि को सादर बधाई.
Shukriya Ashokji aur Sanjayji.
hey very good l like