अनुनाद

नक्शे में निशान और अन्य कविताएँ – अलिंद उपाध्याय

बनारस में रहने वाले अलिन्द उपाध्याय ने विगत वर्ष वागर्थ के नवलेखन कवितांक में प्रेरणा पुरस्कार पा अपनी आमद दर्ज की थी। इधर कुछ पत्रिकाओं में वे दिखाई देते रहे। यहां दी जा रही कविताओं में से दो परिकथा के नवलेखन अंक से हैं और एक वागर्थ के कवितांक से। अब तक छपी कविताओं से यह तय हो गया है कि अलिन्द का कवि किसी बड़े बौद्धिक जंजाल में नहीं पड़ना चाहता और शब्दों में ज्यादा उड़ने की इच्छा भी नहीं रखता। वह बहुत सादगी से अपनी और सबकी बात कहता है। इस `सबकी´ में कौन-कौन समाहित है यह कहने-सुनने की जरूरत नहीं – इस बारे में ये कविताएं खुद कहेंगी। मैं निजी तौर पर इस सादगी को एक काव्यमूल्य की तरह देखता हूं। हमारे समय की कविता इस काव्यमूल्य में अपना विश्वास खो चुकी लगती है कि अलिन्द की कविताएं अचानक कहीं से प्रकट होकर ढाढ़स बंधाने लगती हैं। मुझ समेत मेरे समय के सभी युवा कवियों के बारे में मेरी एक चिंता लगातार बनी रहती है कि कविता में जो स्वीकृति हम पा रहे हैं या तथाकथित रूप से पा चुके हैं वह लेखकीय या आलोचकीय स्वीकृति भर है कि उसमें आम पाठकीय स्वीकृति भी शामिल है! अगर शामिल है तो अच्छा, नहीं तो हम अधिक देर टिक नहीं पायेंगे।


नक्शे में निशान

दुनिया के नक्शे में
चौकोर-गोल-तिकोने निशानों से
दिखाए जाते हैं वन, मरुस्थल, नदियां, डेल्टा, पर्वत, पठार
दिखाया जाता है इन्हीं से
पायी जाती है कहाँ – कहाँ
दोमट, लाल, काली या किसी और प्रकार की मिट्टी
कविता की मिट्टी में सरहद नहीं होती
निशान नज़र आते हैं
किसी न किसी सरहद में ही

दिखायी जाती हैं इन्हीं डिज़ाइनर निशानों से
लोहा, कोयला, सोना, तांबा, अभ्रक और हीरे की खानें
लेकिन खदानों के श्रमिकों की पीड़ा
और उनके मालिकों की विलासिता
नहीं दिखा सकता है कोई निशान

ये दिखाते हैं हमें
तेल और गैस के प्रचुर क्षेत्र
कोई निशान नहीं दिखाता इनके इर्द-गिर्द का वह क्षेत्र
जहाँ मिट गया आबादी का नामोनिशान
अमेरिकी बमबारी से

एक काला गोल निशान दिखता है
जहाँ कहीं भी होती है राजधानी
कुछ बडे़-बड़े अक्षरों में नज़र आती है जो
वहीं तैयार किया जाता है दुनिया का नक्शा
जहाँ दुनिया के ताकतवर देश
उनके हिसाब से नहीं चलने वाले देशों पर
लगाते हैं निशान
अगला निशाना साधने के लिए।
***

घंटी

कम ही बजती है घर की घंटी
घर कम आते हैं लोग आजकल
बढ़ी है फोन की घंटी की घनघनाहट
फोन करना भी मिलन का एक रूप है
महसूस कराती है फोन की घंटी

विभागाध्यक्ष को बादशाहों की तरह ताली बजा
खादिमों को करीब लाने के उपक्रम से
मुक्त कराती है घंटी
बादशाहत से नहीं

अफसरों को हॉर्न के आगे बरदाश्त नहीं
साइकिल की घंटी

दिनों-दिन बढ़ रही है बेरोज़गारी
लूट-खसोट

तेज़ और तेज़ बज रही है मंदिर की घंटी
***

जनरल बोगी के यात्री


जो इसमें करते हैं सफर
काटना जानते हैं आंखों में रात
बोतल बंद पानी नहीं खरीद पाते हैं वे
हिचकते नहीं हैं
चुल्लू बनाकर नल से पानी पीने में
चांदी जैसे कागज में लिपटा भोजन
नहीं होता है उनके लिए
उनका टिफिन कैरियर होता है गमछा
बंधा रहता है जिसमें लाई, चना, गुड़, सत्तू
लोहे की जंजीरों से बंधे सूटकेस
दिखते नहीं हैं उनके आस-पास
किसी झोले या संदूक में
रहता है उनका सामान
प्लेटफॉर्म पर लगीं वजन तोलने वाली
रंग-बिरंगी मशीनों के चक्के
नहीं घूमते हैं उनके दम पर
क्योंकि वे ही महसूस कर सकते हैं
जेब में एक-एक रुपये का वजन।
*** 

0 thoughts on “नक्शे में निशान और अन्य कविताएँ – अलिंद उपाध्याय”

  1. समय के नक्शे में कविता जहाँ हो सकती है, अलिंद को उन जगहों की पहचान है। वे सतर्क कवि हैं और कविता के पक्ष व प्रतिपक्ष को लेकर उन्हें कोई दुविधा नहीं है। उन्हें उन जगहों की स्पष्ट पहचान है –
    ‘जहाँ दुनिया के ताकतवर देश
    उनके हिसाब से न चलने वाले देशों पर
    लगाते हैं निशान।’
    साधारण विवरण को असाधारण विचार में बदल सकने का काव्य कौतुक भी है उनके पास :
    दिनों दिन बढ़ रही है बेरोजगारी
    लूट-खसोट
    तेज और तेज बज रही है मन्दिर की घंटी।
    इस तरह सधी हुई शुरुआत से यह उम्मीद जगती है कि कविता के नक्शे में अलिंद अपने लिए एक जगह बनाने में कामयाब होंगे। हमारी शुभकामनायें।

  2. जी, कोई बौधिक जंजाल नहीं मगर ये कोई गाफिल कवि तो नहीं हैं. उनकी कविता वहां पहुंचना चाहते है जहाँ के लिए नक्शे में निशाँ नहीं हैं और जो ताकतवर के निशाने पर हैं. ये कवितायेँ सीधे पहुँचती हैं और ये उनका अश्वाश्त्कारी गुण है. लेकिन यह कोई भी सोचकर नहीं लिख सकता कि ऐसी कविता हो जे कि जो पाठक के पास सीधा पहुँच जाए या फिर ऐसी कविता हो जाए जो बौद्धिक हो जाय. दोनों ही ढंग के किसी फार्मूले के साथ तो कूड़ा ही लिखा जायेगा, चाहे वो आसां हो या जटिल.
    हाँ एक कवि को आलोचकीय और स्वीर्क्ति और आत्ममुग्धता को लेकर सशंकित अर्हना ही चाहिए.

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