मित्रो अगस्त के महीने में कुछ दिन के लिए अपने पहाड़ गया तो कई बरस बाद “हल” देखने और छूने का मौका मिला। मौसम नहीं था तब भी एक छोटे सीढीदार खेत में उतर गया। कई बरस बाद बैलों से उनकी भाषा में बोलने का दिन एक बार फ़िर मेरे जीवन में आया। उस दिन की स्मृति में अपनी एक पुरानी कविता लगा रहा हूँ।
उसमें बैलों की ताक़त है और लोहे का पैनापन
एक जवान पेड़ की मज़बूती
किसी बढ़ई की कलाकार कुशलता
धौंकनी की तेज़ आंच में तपा लुहार का धीरज
इन सबसे बढ़कर परती को फोड़कर उर्वर बना देने की
उत्कट मानवीय इच्छा है उसमें
दिन भर की जोत के बाद
पहाड़ में
मेरे घर की दीवार से सटकर खड़ा वह
मुझे किसी दुबके हुए जानवर की तरह लगता है
बस एक लम्बी छलाँग
और वह गायब हो जायेगा
मेरे अतीत में कहीं।
2004
achchhi kavita hai. badhaai.
दुनिया भर के कारपोरेटियों के चेहरे पर ताजा जुताई जैसी लकीरें देख कर कहीं यह भी लग रहा है कि क्या पता दीवार से लगी दुबकी इस हिरन जैसी आकृति जिसे गिर्द एक पूरी संस्कृति घूमती थी और वह किसी का असलहा भी था- का जमाना लौट न आए। सुदूर भविष्य में उछलने को न तैयार हो कहीं वो, क्या पता।