(इस कविता को वेणुगोपाल के लिए भी मेरी एक श्रद्धांजलि मानें , जो कुमार विकल के समानधर्मा कवि थे।)
सभी कुछ रंगीन था जब तुम गए
और इन रंगों का हिसाब रखते पृथ्वी के चारों ओर
बहुत तेज़ी से घूम रहे थे इंसानी इदारे
तुम्हारी मौत उतनी रंगीन नहीं थी
और उस दिन अख़बारों में बहुत कम जगह बची थी
वे भी अब रंगीन हो चले थे
पैदा हो चुका था इलेक्ट्रॉनिक मीडिया
हालांकि
ख़बरों के लिए उसने गली-गली घूमना शुरू नहीं किया था
सबसे तेज होने में अभी कुछ देर थी
पीने की चीज़ों में तुमने शायद शरबतों के नाम सुने हों
वे सब भी रंगीन थे
अब तो ख़ैर दिखते ही नहीं ठंडी बोतलों के घटाटोप में
मेरे सपने तो होने ही थे रंगीन
चौबीस-पच्चीस की उम्र में
मैंने पढ़ीं तुम्हारी कवितायें
और यह भी कि कवि से ज़्यादा
तुम्हारा
शराबी होना मशहूर था
मैंने देखा
मेरी उम्र वाले लड़कों की तरह तुम भी दुनिया की
ख़ाली जगहों में
अपने रंग भर रहे थे
और हमारे रंग दुनिया के रंगों में इज़ाफ़ा कर रहे थे
अपने सबसे चमकीले दिनों की धूप में मैंने तुम्हें ढूंढा
जिसके लिए मेरे पास था तुम्हारी कविताओं का
एक आधा-अधूरा इलाक़ा
और धूप तो हम दोनों ही पर बराबर पड़ती थी
वो इलाके़-इलाक़े में भेद नहीं करती थी
मेरे भी बन चले थे बहुत सारे साथी
उन दिनों तुम्हारी तरह मैं भी
मुक्ति की वह अकेली राह अपना चुका था
ये अलग बात है
कि इस राह पर तुम मुझसे बहुत आगे खड़े थे
बहुत कठिन हो चली थी दुनिया
तुम्हारे लिए
और मैं तो अभी आँखें ही खोल रहा था
मैंने तुम्हें वक़्त और दुनिया के साथ
खुद से भी लड़ते देखा था
कविताओं में ही सही
लेकिन बहुत कुछ अटपटा करते देखा था
ओ मेरे पुरखे बुरा मत मानना
पर मुझे लगता है
कि बहुत रंग-बिरंगी थी ये दुनिया
तुम्हारे भी वास्ते
इसे तुमने खुद ही चुना था
और ये हक़ीक़त तुम भी जानते थे
जी रहे थे इन्हीं रंगों के बीच
इन्हीं की बातें करते थे और इन्हीं से भाग जाना चाहते थे
ओ मेरे पुरखे!
आख़िर क्या हो गया था ऐसा
कि अपनी आखिरी नींद से पहले तुम दुनिया को
सिर्फ़ अपनी उदासियों के बारे में बताना चाहते थे
और भी बहुत कुछ होता है ज़िन्दगी में
उदासियों के अलावा उदासियों से बेहतर
बताने को
लेकिन अब तुम कुछ भी नहीं बता पाओगे
इस सबके बारे में अब तो बतायेंगीं सिर्फ तुम्हारी कवितायें
जिन्हें
अपनी घोर असमर्थता में भी इतना सामर्थ्य दे गए हो तुम
कि जब भी
रंगों के बारे में सोचें हम और उन्हें कहीं भरना चाहें
तो हर जगह झिलमिलाते दिखें तुम्हारे भी रंग
और हमें तुम्हारी याद आए।
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कुमार विकल के आधार प्रकाशन से छपे अंतिम कविता संकलन का नाम है –
निरूपमा दत्त मैं बहुत उदास हूं !
bhasha men hm purkhon ko is trah bhi yaad kar sake hain…bharhal, ambujji ki kaviatayen bhi doonga…devi prasad ki bhi…unki mahtwpurnta se bhala kise inkar hoga…
५ दिन की लास वेगस और ग्रेन्ड केनियन की यात्रा के बाद आज ब्लॉगजगत में लौटा हूँ. कल से नियमिल लेखन पठन का प्रयास करुँगा. सादर अभिवादन.
एक अच्छी कविता इसी तरह अपने पहले के कवि को याद करती है। अनुरागजी ने ठीक ही लिखा है कि इस तरह से भी अपने पुरखों को याद किया जा सकता है।
कविता बहुत अच्छी लगी शिरीष जी।
शिरीष,
अच्छी कविता
kumar Vikal ko nashe me ,roondhti awaz me kavita paath karte dekh 1984 ki vo sham yaad hai mujhe, jab mmaine kavita karne ka faisla kiya tha……maha kavi ko isee tarah yaad kiya ja sakta hai !
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