नैनीताल में दीवाली
ताल के ह्रदय बले
दीप के प्रतिबिम्ब अतिशीतल
जैसे भाषा में दिपते हैं अर्थ और अभिप्राय और आशय
जैसे राग का मोह
तड़ तडाक तड़ पड़ तड़ तिनक भूम
छूटती है लड़ी एक सामने पहाड़ पर
बच्चों का सुखद शोर
फिंकती हुई चिनगियाँ
बगल के घर की नवेली बहू को
माँ से छिपकर फूल झड़ी थमाता उसका पति
जो छुट्टी पर घर आया है बौडर से
***
कुछ कद्दू चमकाए मैंने
कुछ कद्दू चमकाए मैंने
कुछ रास्तों को गुलज़ार किया
कुछ कविता टविता लिख दीं तो
हफ्ते भर खुद को प्यार किया
अब हुई रात अपना ही दिल सीने में भींचे बैठा हूँ
हाँ जीं हाँ वही कन फटा हूँ हेठा हूँ
टेलीफोन की बगल में लेटा हूँ
रोता हूँ धोता हूँ रोता रोता धोता हूँ
तुम्हारे कपडों से ख़ून के निशाँ धोता हूँ
जो न होना था वही सब हुवां हुवां
अलबत्ता उधर गहरा खड्ड था इधर सूखा कुआँ
हरदोई मे जीन्स पहनी बेटी को देख
प्रमुदित हुई कमला बुआ
तब रमीज़ कुरैशी का हाल ये था
कि बम फोडा जेल गया
वियतनाम विजय की ख़ुशी में
कचहरी पर अकेले ही नारे लगाए
चाय की दुकान खोली
जनता पार्टी में गया वहाँ भी भूखा मरा
बिलाया जाने कहॉ
उसके कई साथी इन दिनों टीवी पर चमकते हैं
मगर दिल हमारे उसी के लिए सुलगते हैं
हाँ जीं कामरेड कज्जी मज़े में हैं
पहनने लगे है इधर अच्छी काट के कपडे
राजा और प्रजा दोनों की भाषा जानते हैं
और दोनों का ही प्रयोग करते हैं अवसरानुसार
काल और स्थान के साथ उनके संकलन त्रय के दो उदहारण
उनकी ही भाषा में :
” रहे न कोई तलब कोई तिश्नगी बाकी
बढ़ा के हाथ दे दो बूँद भर हमे साकी “
“मजे का बखत है तो इसमे हैरानी क्या है
हमें भी कल्लैन दो मज्जा परेसानी क्या है “
अनिद्रा की रेत पर तड़ पड़ तड़पती रात
रह गई है रह गई है अभी कहने से
सबसे ज़रूरी बात।
***
वीरेन जी ने नैनीताल की दीवाली एक ख़ास तरीक़े से विजुअलाइज करा दी. कविता पढ़वाने के लिए शुक्रिया. गुरु कुछ अपनी कविताएं भी चिपकाओ जल्दी से. ब्लॉग की दुनिया में तुम्हारे दर्शन पाकर हम धन्य हुए.
विरेद दा की इन बेहतरीन कविताओं की याद दिलाने का शुक्रिया। लेकिन `बड़े भाई´ संबोधन कुछ हजम नहीं हुआ। `बड़ा´ तो मैं कभी था ही नहीं और `भाई´, बाप रे बाप!