माँ के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविता
अमर चींटियों का एक दस्ता मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
माँ वहाँ हर रोज़ चुटकी-दो चुटकी आटा डाल देती है
मैं जब भी सोचना शुरू करता हूँ
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज़ मुझे घेरने लगती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊंघने लगता हूँ
जब कोई भी माँ छिलके उतार कर
चने, मूंगफली या मटर के दाने नन्ही हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर थरथराने लगते हैं
माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिए
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया
मैंने धरती पर कविता लिखी है
चन्द्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगा
माँ पर नहीं लिख सकता कविता
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चित्र : शांते यंग / गूगल से साभार
माँ का इतना विशाल आसमां होता है जिस पर सच ही कविता करना कठिन है
बहुत अच्छी प्रस्तुति
jindagi ke safar men har chij se chhilke utar kar raah dikhane wali maa ke liye is se shreshth aur imandar shraddhanjali kya ho sakti hai…sir jhuka ka naman…maa ko aur hindi ke is anuthe kavi ko….yadvendra
bahut sundar kavita hai, chitiyon ko pisan dalne ki sarthakta ko bhi paribhasit krti hui. aabhar shirish bhai.
hoon , SACH TO YAHEE HAI, BHALE HEE DUNIYAABHARMEN SAB SE ADHIK KAVITAAYEN MAAN PAR HEE LIKHEE GAYEEN HON.
हर चीज़ के छिल्के उतारे…… ! कवि कितना कुछ झेल लेता है….. भीतर !
बहुत सुंदर
behad khoobsoorat!!!