विचित्र लेकिन बहुत सुन्दर है आज की, अभी की हिंदी कविता का युवा संसार….कितनी तरह की आवाज़ें हैं इसमें….कितने रंग-रूप…कितने चेहरे…अपार और विकट अनुभव, उतनी ही अपार-विकट अभिव्यक्तियां। इस संसार का सबसे बड़ा सौन्दर्य यही है कि यह बनता हुआ संसार है…इसमें निर्मितियों की अकूत सम्भावनाएं हैं। यहां गति है, कुछ भी रुका-थमा नहीं है। यह टूटे और छूटे हुए को जोड़ रही है। इसमें पीछे खड़े संसार के प्रभाव कम, अपने अनुभवों पर यक़ीन ज़्यादा है। अनुनाद पर आज लगाई जा रही विपिन चौधरी की कविताएं और वक्तव्य, दोनों ही इस दृश्य के लिखित प्रमाण हैं। मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि विपिन अपनी कविताओं में डिस्कोर्स करती नज़र नहीं आतीं…वे बहस छेड़ती हैं…सीधी टक्कर में उतरती हैं। अभी के भारतीय समाज में गहरे तक व्याप्त सामंतवाद से लड़ती हैं। ये सजगता का निषेध और पीछे छोड़ दी गई सहजता का स्वागत करती कविताएं हैं। डिस्कोर्स के छिछले और उथलेपन के बरअक्स यहां गहरे ज़ख़्मों को कुरदने का साहस है। कविता में निजी लगने वाली पर दरअसल जनता के पक्ष में निरन्तर जारी रहनेवाली इस लड़ाई का अपना एक अलग सौन्दर्यशास्त्र है।
इन बिलकुल नई अप्रकाशित कविताओं के प्रथम प्रकाशन के लिए अनुनाद को जगह के रूप में चुनने के लिए विपिन चौधरी को शुक्रिया।
***
***
विपिन चौधरी
आत्मकथ्य : कविता की रोशनी हमारे दायें कंधे से होकर गुज़रती हैं
विपिन चौधरी |
जिस तरह रिश्तों की उलझने सामाजिक व्यवस्था को समझने का बहाना बनती हैं उसी तरह भीतर की उठा–पटक रचनात्मक उर्जा का निर्माण करती हैं. लेखन अपने साथ अकेलापन ले कर आता है तब खुद से लड़ने– भिड़ने की गुंजाइश बढ़ जाती है.
अपनी रचना प्रक्रिया पर सजग हो कर लिखना काफी कठिन है. एक अत्यंत निजी और दुनियादारी से परे का काम लेखन और जब कोई अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में कुछ कहता हैं तो बस स्थूल सा वर्णन ही सामने आता है. लेकिन ज़रा गौर करें तो हर घटना के पदचिन्ह हमारे मन पर जरूर पड़ते हैं उसी तरह हम अपनी रचना में हम स्वयं का लघु अंश छोड़ते जाते हैं, हमारे जीवन का निचुड़ा हुआ अतीत, हमारी रुचियों की लपटें, हमारे प्रेम की अनगिनत तहें, हमारी कुलबुलाती महत्वकाक्षाएं जिनसे हमारा अवचेतन मन का काफी बड़ा हिस्सा घिरा रहता हैं धीरे–धीरे ये चीजें इकट्ठा हो कर ही कविता में रंगीन मेला सजाया करती हैं.
कविता की गहन गुफा में बैठ कर ही हम ख़ुद से गुफ़्तगू करने की तमीज़ सीखते हैं. सारी दुनियादारी से फारिग हो जब हम कविता के पायताने बैठते हैं, तब कविता से उसी जीवन की बातें करते हैं, जिसका पानी रिस–रिस कर हमारे मन के भीतर की बावड़ी में इकट्ठा होता आया हैं, क्योंकि उसे कहीं बाहर का रास्ता नहीं मिल सका है . इसमे हमारी अनगिनत बेबसियाँ भी शामिल है, जो सिर्फ़ कविता में अपनी ज़ुबान खोलती है.
अपनी कल्पनाशक्ति से हम अतीत के घटनक्रम, वर्तमान के संकल्प और भविष्य के मंसूबों पर पानी चढाते हैं. विडम्बना ही है कि हमारे जीवन में इतनी जटिलताएं हैं कि जीवनशक्ति उसी में खप जाती है. क्लासरूम में विज्ञान की बारीकियों को समझने में मदद मिली और घर में माँ और उनकी सहेलियों के जीवन संघर्ष से जीवन का ताना–बाना समझा. माँ–पिता के बीच अलगाव, अपने प्रिय मामा का युवा अवस्था में देहांत, प्रिय लेखक का गुमशुदा हो जाना इन घटनाक्रमों ने मस्तिष्क में भीतर के सीधे–सरल प्रवाह में अवरोध उत्पन्न कर दिया और फिर उसी अवरोध की धार को कुंद करने को शायद कविता अस्तित्व में आयी.
उसी चिर-परिचत दुनिया से लड़ते हुए ही बड़ी हुयी. उसी प्रेम में लगातार गोता खाया, जिसमें ज़रुरत से कही ज़्यादा फिसलन थी. जीवन की यही छोटी-मोटी व्याधियां रहीं, जो पाँव में आज भी उलझी हुयी हैं.
इसी समाज से कविता के लिये कच्चा माल लेकर, अपने भीतर की भट्टी में उसे पका कर थोडे से चतुर–सुजान शब्दों में सजाना भर ही कविता नहीं है…. वह इससे आगे की चीज़ हैं. कविता का प्रभाव ही इतना प्रबल है कि धीरे–धीरे कविता हमारे मस्तिष्क की महीन मांसपेशियों की ख़ुराक बनती जाती हैं. वह हमारे ध्यान के समय में उतरी हुई दुर्लभ चीज़ है, जिसे हमने दुनियादारी से छान कर अपने बगल में रख लिया है. हम दिन भर मक्कारी करते घूमें और फिर अपने भीतर को झाड़–पोंछ कर कविता लिखने बैठ जाएँ, यह संभव ही नहीं हो सकता, क्योंकि अंततः कविता एक आईना है, जिसमें हमें अपनी ही शक्ल देखनी है.
मेरे लिये कविता हमेशा खुद से खुद की यात्रा ही रही. तमाम एशो–आराम की चीज़ें जुटाने के बाद भी जीवन सिगरेट का जला हुआ वह हिस्सा ही है, जो अब गिरा तब गिरा की अनिश्चित स्थिति में है फिलहाल. एक मनुष्य होने के नाते मेरी नियति भी उन पुरानी धारणाओं के पाठ्यक्रम को लगातार दोहराते जाना है और जीवन के हर पड़ाव में इन्ही के दरकने-टूटने से बचने में ही जीवन की अधिकाँश ऊर्जा नष्ट हो जाती हैं. ऐसे वक़्त में कविता की रोशनी ही ऐसी है जो हमारे दायें कंधे से आकर हमारी आँखों में प्रतिध्वनित होती है और हमें इस रोशनी की महत्वता पर नज़र रखनी होगी. तब मुझे
हमेशा विज्ञान में पढे ब्राउनियन गति* की
याद रहती है और मैं अक्सर उनकी तुलना समाज से करती हूँ जिसमे जीवन के उतार-चढ़ाव से
ही मेरे लेखन को गति मिलती
हैं.
कविता में डूबने के बाद कवि, कविता को इतनी करीब से महसूस करता है कि शरीर की त्वचा की तरह ही कविता को भी सर्दी–गर्मी लगनी शुरू हो जाती हैं. कविता के गुरुत्वाकर्षण के अधीन होकर हम अगर छपवाने, प्रशंसा बटोरने की जद्दो-जेहद में मशगूल हैं तो यह कविता में ही हमारी हार है, क्योंकि कविता स्वयं एक मुकम्मल साधना है, जिसे साधने के साथ–साथ हमारे भीतर का हरेक कोने को सफ़ेद चादर हो जाना चाहिये जिसमे हमारी आत्मा का एक छोटा धब्बा भी उजागर हो सके.
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*वह स्थिति, जब गैस या तरलता में तैरते निलंबित अणु या परमाणु बमबारी करते हैं और उनसे द्रव्य में गति उत्पन्न होती है।
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*वह स्थिति, जब गैस या तरलता में तैरते निलंबित अणु या परमाणु बमबारी करते हैं और उनसे द्रव्य में गति उत्पन्न होती है।
***
जिस घड़ी मैंने दीवार से प्रेम किया
सुख की नमी भी नहीं
दुःख का भारीपन भी नहीं
इंतजार भी नहीं
उम्मीद की लहर भी नहीं
नहीं था कोई जब आस – पास
लहर की तरह भीतर जगह बना चुकी इस दीवार ने बताया था
ये पीली पपड़ियाँ दरअसल उसका विद्रोह हैं
गहरी दरार जो
दीवार के बीचो–बीच उभर
आई है वह
उम्र का आईना नहीं
उम्र का आईना नहीं
उसके आंसू की चरमराती हुई लम्बी लकीर है
हम दोनों कितने अलग थे
दीवार हमेशा से जिद्दी धर्म की तरह स्थिर रही थी
और मैं इंसानियत की तह में गोता खा कर
पसीजी हुई एक आत्मा
फिर भी बरसों इस ने दीवार ने
मेरे मर्म की सीली भापों को सोखा
उन दिनों मेरे फूट–फूट कर रोने पर
इसकी मोटी आंखें भी सूज जाया करती
सिर्फ़ मुझे ही नहीं
जिन चींटियों को दुनिया ने दूर धकेल दिया था
उन तक को इन दीवारों ने अपने यहाँ
बांबी बनाने की सहज स्वीकृति दी थी
पर आज देख रही हूँ
दीवार अपने तन पर ठहरी
बांबी बनाने की सहज स्वीकृति दी थी
पर आज देख रही हूँ
दीवार अपने तन पर ठहरी
इन पपड़ियों से छुटकारा पाने को बैचेन हैं
यह ठीक है कि
कभी मैंने इस दीवार से मानुष प्रेम किया था
पर इस घड़ी
मैं इन झड़ती हुयी पपड़ियों के साथ हूँ
यह ठीक है कि
कभी मैंने इस दीवार से मानुष प्रेम किया था
पर इस घड़ी
मैं इन झड़ती हुयी पपड़ियों के साथ हूँ
***
प्रकृति और मैं
नहा कर अभी-अभी
नदी की सतह पर आयी बत्तख
अपने शरीर से पानी झटक रही हैं
सीप के भीतर बैठा बिना पीठ का जानवर
एक नाज़ुक अंगड़ाई लेने को तैयार हो रहा है
काई अपनी फिसलन की धार को तेज़ करने के लिये
एक और मखमली परत अपने ऊपर चढा रही हैं
चार फ़ाख़्ताओं के जोड़े
अपने पंखों से आसमान की पगडंडियों को हवा देते हुए
घोंसलों की ओर
लौट रहे हैं
प्रकृति के घने ऐश्वर्य के बीच मैं
अपने प्रेम का तर्पण करने में लगी हूँ
प्रक्रति यहाँ किसी तरह के मातम की इजाज़त नहीं देती
यहाँ प्रकृति मुझे अपने से अलग कर रही है
***
विचार वस्तु हैं
विचार
शिकारी बन
अंधेरी सुरंग में राह अपने लिए राह खोद रहे हैं
एक ना एक दिन जरूर वे अपने
जहरीले तीरों से कोमल खरगोशों को मार डालेंगे
विचारों में एक लाल कालीन
फैल रहा है
आकाश से सलोनी परियां उतर रही हैं
घोड़े के हिनहिनाने की
खबर है
कि एक राजकुमार ने दस्तक दी है
यह मत्स्यकन्या भी तो एक विचार है
जिसे प्रेम के भरोसे जिन्दा रखा गया
और यह गुडिया भी
जिसकी पलकें किसी इंतजार की आबरू में
एक पल को भी नहीं मुंदी
मेरे आस-पास चार दीवारें हैं
मेज़ के नज़दीक
पानी से लबालब भरी सुराही
एक फाउंटेन पेन
उदासी का गज भर लंबा कड़क चमड़ा
और अँधेरा भी
इनके अलावा वे विचार
मेरे पांवों में बिछे हुए हैं
पिछले २४ घंटे में जो मेरे नज़दीक आए
और आकर यहीं ठहर गये
इस कमरे में कदम धरने की
जगह नहीं हैं
‘ विचार सचमुच में वस्तु हैं’
***
पचहत्तर
साला वृद्धा की हंसी
उस तनाव भरे दिनों में
इस तनाव भरे दिनों में
इस औषधि की सबसे जायदा आवश्यकता थी
हज़ारों तोहमतें उन दिनों
दिमाग़ को भोथरा कर देती
उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता का ज्ञान तब भी था
पर इतनी मुक्त हंसी के नज़दीक जाना
मानो मधुमक्खी के छत्ते को हाथ लगाना था
तब सपनें, रंग, बरसात, आग
सभी
को बिना किसी टकराहट के एक साथ रहने का अनुभव हुआ करता
था
पर
एक खुली हंसी को इन सबके बीच टिकने की तिल्ली भर भी जगह नहीं थी
आशंका
हरपल द्वार खटखटाती
और उसकी युवा हंसी में हर बार एक चौड़ी दरार पड
जाया करती
आस
पास के लोग उसकी हंसी की खनक से परेशान होंगे
यह
सोच
उसकी हंसी का उद्गम लड़खड़ा जाता
उसकी हंसी का उद्गम लड़खड़ा जाता
अब
इस पचहत्तर साल की जर्जर देह में खिलखिलाती
दंतविहीन
हंसी से किसी को परहेज़ नहीं
और
यह बेशर्म हंसी भी तो चक्करघन्नी-सी
बिना
रोक-टोक दूर तक घूम आया करती है
***
मैं
बहुत बाद में आती हूँ
छम-छम
करती चली आती हैं अधजली स्मृतियाँ
कुछ
देर बाद उदासी की शैतान परछाइयां
फिर यादों के साये मस्तिष्क पर पड़ने लगते हैं
कुछ
रिश्तेदार देर से देहरी पर अटके हैं
कि
कुछ कहना है उन्हे
वे
आते दिखते है
लेकिन
देर से कहीं अटके हुए हैं
बारहमासा
की गुनगुनाती हुई रंगीनियाँ
साल
दर साल धमक आती हैं
रोशनी
के एक क़दम पीछे अँधेरा
चला आता है
एक
लाट साहब भी आने की तैयारी में
फीते
बाँधते दिखते हैं
‘भूख सबसे बड़ा गुनाह है‘
कहने
वाला नया राष्ट्रपति आता है
चौराहे
पर हरदम मौजूद रहने वाला
भिखमंगा
भी दरवाज़े पर बेखटके आ आता है
तयशुदा
कार्यक्रम के तहत
और
तयशुदा कार्यक्रम के बाहर
बारी-बारी
से सब बख़ूबी आते हैं
अपने-आप में उलझी
‘मैं‘
सबसे
बाद में आती हूँ
***
जब
लड़कियों के खेल में गोबर शामिल होता है
स्कूल
जाने वाली चंद सौभाग्यशाली
लड़कियां
आधी छुट्टियों में
स्टापू,
पकड़म-पकड़ाई, रस्सी, खो-खो
खेलती हैं
जानने
वाले जानते है
कि
लड़कियां जन्म से ही रचनात्मक होती है
वैसे
१००० के पीछे ८७७ में स्त्री : पुरुष के असंतुलित अनुपात वाले प्रदेश में
इस
तथ्य से इनकार करने वाले भी बहुतेरे हैं
गोबर
चुगना
गांवों
की हद में एक मूल्यवान काम है और
उसे
सहेजना
एक
आर्थिक निपुणता
जिसे
गांव-जवार की निरक्षर लड़कियों ने एक
चुस्त
खेल बना कर ही दम लिया है
तपती
बालू रेत में सलवार के पांयचे में उलझने से बचती
भागती
हैं ये लड़कियां
लोगों
की ढोर डंगरों के पीछे-पीछे
थक
जाने पर ही
ऊपर तक भरे गोबर के तसले का हिसाब–किताब करती हैं
काम
को एक खेल में तब्दील कर अपनी
सूझ-बूझ का अंगूठा लगाने के
इस
खेल में किसी और की दिलचस्पी हो ना हो
इसकी
उन्हें परवाह नहीं है
देश
के ग्रामीण विकास मंत्री को
गांवों
में इस कामनुमा खेल की कोई ख़बर कैसे हो जबकि
किसी
देश के खेल नक्शे में यह शामिल नहीं
अपने
यहाँ रोज़गार मंत्री
आंकड़ों
में मुँह घुसाये बिना यह नहीं बता सकता कि
देश
में कितने बेरोज़गार है
और
ग्रामीण मामलों का मंत्री
उस वक़्त लाजवाब कर देता है जब वह
अपना
यह ताज़ा बयान लेकर हाज़िर होता है कि
“सब ग्रामीण लड़कियां अब स्वावलंबी हो गयी हैं”
***
अपने लिए नहीं
तुम्हे मैं
अपने लिये नहीं मांग रही
मेरा निमंत्रण–प्रस्ताव उन हवाओं के लिये है
जो तुम्हारी आहट के बाद ही
अपने बदन में ख़ुशबू भरेंगी
मेरे अगल–बगल उगी उन शीतल स्फूर्तियों की चाहना है
कि तुम उनके भीतर लहलहाओ
और उनकी उर्जा की रोशनी में अपना चेहरे की दीप्ति देखो
उन तीन मौलिक रंगों ( लाल हरा, नीला ) को
तुम्हारी प्रतीक्षा हैं
तुम्हारी सुर्ख़ मुस्कान की सहमती के बाद वे
अपने भीतर कई और रंगों की आभा को उतारेंगे
मेरी चिंता को पानी के इसी तरंग में बहा दो
मेरा अपना तो
विलय की अंतिम कगार पर जा पहुंचा है
जिस तरह पानी बिना किसी आहट के
वाष्प में तब्दील हो जाता है
ठीक उसी की देखा देखी
मेरे तट भी अपने कछारों को छोड़ देंगे
और दुनिया को सिर्फ तुम दिखाई दोगे
मेरे नाम को अपने होटों में दबाये
***
मुन्नी बाई उर्फ़ घुंघरू टूट गए
मुन्नी बाई उर्फ़ घुंघरू टूट गए
हम जैसे ही शक्लो-सूरत वाले
लोगों ने इसके अलावा कोई रास्ता नहीं
रख छोड़ा था की
चार बर्ष की बच्ची
अपनी पालथी में ढोलक रख उसे थाप देती जाये
अपने कोमल पांवों में भारी घुंघरू बांधे
लचकती कमरिया में हज़ार घूमर डाले
बचपन में
‘नाच मेरी बुलबुल के पैसा मिलेगा‘ गीत
और जवानी में
‘शराफत छोड़ दी मैंने ‘पर
यह घंटों नाचती
इन दोनों वे के अंतराल में
वह जान गयी
उसका महीन गला और लरजती थरकन ही उसे रोटी देगी
वे दिन भी आये जब
वह अपनी ही झुर्रियों में
पूरी डूब गयी
चीकट से सनी दीवार
फ़र्श पर पान की पीकें
आले में रखा चीनी मिट्टी का एक मर्तबान
पुराना हारमोनियम
एक बड़ा-सा ताला लगा हुआ छोटा कनस्तर
समय के ज़ोर से पीली पड़ चुकी तवायफ़ ‘मुन्नी बाई‘ का कमरा
आले में रखा चीनी मिट्टी का एक मर्तबान
पुराना हारमोनियम
एक बड़ा-सा ताला लगा हुआ छोटा कनस्तर
समय के ज़ोर से पीली पड़ चुकी तवायफ़ ‘मुन्नी बाई‘ का कमरा
जंग लगी कहानी सुनाता हैं
यह दबंग महिला सिरे से भूल चुकी होगी पर
उन सिरफिरों को आज भी अपने गाल पर तमाचे की टीस याद होगी
जो तवायफ़ और वेश्या के बीच अंतर को ना समझते हुए
नशे में धुत इस कमरे में आये थे कभी
पूरी दुनिया को बेवफ़ा हुए बरसों हो गए
पर एक साजिंदा अब भी वफादारी का क़ायदा पढ़ने
रोज़ शाम यहाँ आकर सुरों की तान छेड
पान–बिल्लोरी की दक्षिणा ले लौट
जाता है
अब भी तय समय से रियाज़ करती है मुन्नी बाई
और रोज़ इस डर के साथ सोती है कि कहीं सुबह उसका गला ख़राब ना हो जाये
जबकि उसे किसी सभा में गाये बरसों हो गए
जीवन के इस छोर पर आ
मुन्नी बाई समझ गयी है
भेड़ियों के देश में देह की ज़रुरत तो हमेशा रहेगी
पर उसकी इस खनकती आवाज़ और सुस्त पड़ चुके घुंघरुओं का अब
यह दबंग महिला सिरे से भूल चुकी होगी पर
उन सिरफिरों को आज भी अपने गाल पर तमाचे की टीस याद होगी
जो तवायफ़ और वेश्या के बीच अंतर को ना समझते हुए
नशे में धुत इस कमरे में आये थे कभी
पूरी दुनिया को बेवफ़ा हुए बरसों हो गए
पर एक साजिंदा अब भी वफादारी का क़ायदा पढ़ने
रोज़ शाम यहाँ आकर सुरों की तान छेड
पान–बिल्लोरी की दक्षिणा ले लौट
जाता है
अब भी तय समय से रियाज़ करती है मुन्नी बाई
और रोज़ इस डर के साथ सोती है कि कहीं सुबह उसका गला ख़राब ना हो जाये
जबकि उसे किसी सभा में गाये बरसों हो गए
जीवन के इस छोर पर आ
मुन्नी बाई समझ गयी है
भेड़ियों के देश में देह की ज़रुरत तो हमेशा रहेगी
पर उसकी इस खनकती आवाज़ और सुस्त पड़ चुके घुंघरुओं का अब
कहीं कोई ठिकाना नहीं
***
फुटनोट
अब
सीधा-सीधा क्यों कहना
जब
छुप-छुपा कर गोल मटोल कहने की सहज सुविधा है तो
सुविधा
का इस्तेमाल तो इंसान ही करेंगे ना
खच्चर
कर सकते तो करते
कहते
हैं हर चीज़ का उत्स ऊपर ही टिका होता है
मलाई
भी तो ठीक ऊपर ही जमती है
और
बर्फ़ भी
और
बुद्धिजीवियों का दिमाग़ भी ऊपर ही तो फड़फड़ाता है
फिर
पाँव-पड़ी को तो जंज़ीर ही समझा-बूझा-माना जाता है
जबकि
नीचे की ओर आकर
मामला
विस्तार से जुड़ता है
छोटा
ही सही असर गहरा है
मुख्य
बात से जुड़ाव होना छोटा ही सही धारदार तो है
नीचे
उतरते हुए हर चीज़ कट-फट जाती है
उसके
टखनों में लहू चूने लगता है
तब
भी ‘फुटनोट’ चकाचक
पोशाक में टटका-सा दिख पड़ता है
ऊपर
की मोटी पंक्तियों का भार सह कर भी सौ प्रतिशत तंदरुस्त
समझदार
को इशारा काफी और
बेसमझों
को हर चीज़ में माफ़ी
क़ायदे
की बात कहते कलेजा मुंह को आने लगा है
पर
भीतर की तासीर बिगड़ने से पहले
स्वीकृत
कर लूं कि ‘फुटनोट’
कोई
धरती पर पड़ी चीज़ नहीं है
यह
हमारे आजू-बाजुओं के हाशियों का नुकीला प्रतिशोध है
जो
समय रहते इज्ज़त की मांग करता है
***
प्रेम के लिए माकूल तैयारी
प्रेम के लिए माकूल तैयारी
प्रेम जितना मथ सकता था मुझे
उतना ही उसने मुझे मथा तब
उतना ही उसने मुझे मथा तब
सारी
हलकी चीज़ें नीचे छूटती गयी
मक्खन
की तरह ऊपर इकट्ठा होती गयी मैं
तब
सुख-दुःख ने मिलकर
इस
तरह चौका-आसन बिछाया
कि
मेरी जीती जागती समाधी ख़ुद-ब-ख़ुद तैयार हो गयी
अब
मैं
पेड़ के उस मोटे तने के भीतर भी
पेड़ के उस मोटे तने के भीतर भी
प्रेम के विस्तार को नि:संकोच देख सकती थी
जो
हर साल यादों का एक घेरा अपने भीतर लपेट लेता था
जितनी
पुरानी याद
उतना
गाढ़ा घेरा
इस
तरह धीरे-धीरे ‘प्रेम का वनस्पति-विज्ञान‘ भी मेरी समझ में आने लगा
प्रेम
से सामना होते ही
मैं ‘एलिस‘ और ये समूचा
संसार ‘वंडरलैंड‘ में
तब्दील हो गया
मैं ‘दुनियादारी’ का एक पत्ता खाती और
बौनी होती जाती
‘प्रेम’ का
दूसरा पत्ता चबाती
तो बौनेपन से सीधे महानता के ऊँचे आसन पर चढ जाती
मेरे
हिस्से में
चार
पहरों वाले वही दिन
और रात थे
पर
हींग और लहसुन की ख़ुश्बू में जो अंतर
समझ में आता था
वो
सिरे से ही काफ़ूर हो गया
संसार
की रेत में लौटने का पुराना शऊर भूल गयी
मिट्टी
के लोंदे की अनगढ़ता
मेरा बाना बन गयी
दिशाओं
और मौसमों की परिक्रमा का भान मेरे हाथों से छूटता गया
वो
दिन भी नून-रोटी खा कर निपट गए
जब फिलिस्तीन सेना की आवाजाही और
सुनामी की ऊँची लहरें मेरी छाती पर आ चढती थीं
भोपाल त्रासदी की मुआवजे
करते लोगों मांगों ने
मेरे कानों पर अतिक्रमण करना छोड दिया
मेरे कानों पर अतिक्रमण करना छोड दिया
टॉम
फीलिंग के कैरी केचर
और अँधेरे की कालिमा अब मुझे शर्मिंदा नहीं करती थी
और अँधेरे की कालिमा अब मुझे शर्मिंदा नहीं करती थी
मुझसे
मेरा स्थायी सिरा ही छूट गया
प्रेम
का स्वभाव दुनिया की छाती पर पाँव रख कर सोचना था
उसकी
एक आँख देखने के लिए
और दूसरी
आंसुओं
के खारे पानी के लिए थी
फिर
भी
प्रेम
की हर अवस्था में मैं
चालीस
घर पार करने का साहस कर लिया करती थी
प्रेम
ने अपने स्वाभाव के चलते
दुनियादारी की आबो-हवा से
मुझे बहुत दूर रखा
और
अपना उल्लू सीदा करते हुए अपने काफी नज़दीक
वायुमंडल
के व्यापत सभी तरह के प्रदूषणों से मुठभेड़ करता हुआ
प्रेम
बिना इजाज़त मेरे भीतर सीधा प्रवेश कर गया
यक़ीन
मानिये
तब
तक मैने बिना पाँव-पंख के,
अशरीरी इस नए
मेहमान के लिये कोई माकूल तैयारी
भी नहीं
की थी
***
प्रेम कविता की खोज में
प्रेम कविता लिखने के नाम पर
एक दैत्यनुमा भय मन में घर बना रखा था
“नहीं लिख सकोगी तुम कभी एक मुकम्मिल प्रेम
कविता”
यह
प्रेम का ही उलाहना
था या कुछ और ?
यूँ प्रेम को कविता के
सांचे में ढालना
एक
आत्मा को शरीर देने जैसा काम था
पर
रचयिता बनने के इस अनोखी दिशा में कभी ध्यान भटका ही नहीं
प्रेम
को तलाशने, तराशने के लिए
कौन-सी वलय रेखा को पकडना है
किस कोण का उल्लंघन करना है
कौन-सी वलय रेखा को पकडना है
किस कोण का उल्लंघन करना है
मालूम
कतई नहीं था
फिर
प्रेम तो
स्याह रात में चमगादड़ की तरह
यादों
की अनगिनत शाखाओं पर उल्टा लटका होता है
या अक्सर अँधेरे को ढूँढने निकले जुगनू की नक़ल करते हुए
अकेले
में ख़ुद से साक्षात्कार करने दूर निकल जाया करता है
जब
चाँद अमावस्या के आवरण
में खो चुका होता है
नदियाँ समुद्र में विलीन होने को आतुर हो
अपने
तट छोड़ने लगती हैं
उस
वक़्त प्रेम
अपने अलौकिक विज्ञान का वज़नी सूत्र ले कर
किसी अनजानी खोह में गुम हो जाता है
अपने अलौकिक विज्ञान का वज़नी सूत्र ले कर
किसी अनजानी खोह में गुम हो जाता है
इस
तरह प्रेम
रूह
तक का अपना दुरूह सफ़र
ओट ही ओट में पूरा कर लेता है
ओट ही ओट में पूरा कर लेता है
इधर
मेरी लेखनी एक बिंदु पर ही ठहर जाती हैं
अंत
में
थक
हार कर
प्रेम
कविता की खोज में
मैं
सभी दिशाओं में तीर छोडती हूँ
सारे तीर एक एक कर आ गिरते हैं
औंधे मुंह
औंधे मुंह
मेरे
ही पांवों के नज़दीक
और
समाप्त हो जाती है
प्रेम कविता की खोज !
***
प्रेम कविता की खोज !
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'झड़ती हुई पपड़ियों के' साथ कवि का होना , जहाँ 'आसुँओं की चरमराती लम्बी लकीर ' अस्मिता का संघर्ष बनती है और कविता की रोशनी आँखों में प्रतिध्वनित होती है वह एक तरह का डिस्कोर्स ही है , जो किसी भी तरह के छिछलेपन व उथलेपन से बाहर है…अपने आसपास को संजीदा होकर देखता है "प्रकृति' से "मैं" फिर नदी की सतह पर आई बतख हो जाता है ,जो 'भीतर की बावड़ी' के जल 'इंसानियत की तह में गोता खाकर पसीजी हुई एक आत्मा ' बन चमक उठी है .'शीतल स्फुर्तियों' की 'ऊर्जा'और 'रोशनी' में 'अपने चहरे की दीप्ति ' से 'पालथी में दोलक रख उसे थाप देती जिन्दगी उथल -पुथल भरे जीवन की विडम्बना में जीवंत होकर उभरतीं 'मुन्नीबाई' 'पचहतर साला वृद्धा की हंसीं '..खेल ही खेल में गोबर में नरक होता लड़कियों का जीवन ..ऐसे यथार्थ को देखना और अपनी भाषा को किसी रहस्यमय लोक में ले जाने की बजाय साफ़ और सरलता के साथ प्रस्तुत करना .. यथार्थवादी सोच का ही परिणाम होता है, जिसमे एक व्यापक विचार निहित है . . विपिन जी में यह प्रचुर मात्रा में है……शायद वह सजक रूप में इसे स्वीकार नहीं करती ……
उनको बहुत बधाई देते हुए मैं ये कामना करता हूँ भविष्य में और भी सुंदर रचनाएँ उनकी लेखनी से आयें ….
छोटे ब्लॉग पर भारी कवयित्री की कविता…. !! ऐसी घोषणा कर दी आपने सम्पादक जी कि मेरी तो हिम्मत ही टूट गयी है.. ५ कवितायें धो-पोंछ के रखी थी अनुनाद के लिए बड़ा सम्मान मन में रखे हुए.. न कविता पढ़ पाया न आपकी टिप्पणी.. बस एक ही पंक्ति पर अटका पड़ा हूँ.. ['' अनुनाद को जगह के रूप में चुनने के लिए विपिन चौधरी का शुक्रिया'' ]..
अनुनाद को सुरक्षित रखा जाय ऐसी बेजा टिप्पणियों से.. :-))
एलीस जैसी ही लगी ये कवितायें ,
अपना शरीर मुकम्मल करने कि फिराक में जंगल जंगल !
मुख्तलिफ तिनके हैं इनमें फिलिस्तीनी नेता और सुनामी के बहाए हुए
सब चुन लेती है बिन किसी तैयारी के !
कैसी सादगी है यहाँ कि लहसुन और हींग कि खुशबू का अंतर काफूर होते ही दुनियादारी
कि हरपल सरकती रेत कि जगह मिटटी के लौंदे में लरज़ता फलसफा ज्यादा मुफीद ज्यादा मुआफिक लगता है !
प्यार, प्रेम कि खूब समझ है यहाँ, पर प्रेम कविता लिखना दुरूह भी !
यहाँ प्यार लिखता तो है अपने नोट्स, पर ओट ओट में लिखता है
ऐसे में प्रेम के लिए छोड़े गये तीर बार बार पास ही कहीं गिरते जाते हैं, निशाना नहीं ढून्ढ पाते !
विपिन कि कविता लहसुन और हींग के एरोमाज़ को जिस खूबी से पहचानती है उसी खूबी से
एक तवायफ और वेश्या के कास्ट्यूम भी तैयार करती है जानते हुए कि इनके चौगिर्द पूरी दुनिया बेवफा है
जहाँ देह रह जी तो सकती है पर उसपर पड़े घुंगरू इन कास्ट्यूमज़ के साथ अब मैच नहीं करते !
जहाँ एक बूढी हंसी उतनी बेचैनियाँ पैदा नहीं करती जितनी कि एक जवान लड़की की !
ये कवितायें दूरबीन कम माईक्रोस्कोप जैसी ज्यादा लगीं मुझे !
कहीं कहीं तो बैरोमीटर सी जो आपने आसपास की हरारतों को पढता दर्ज करता जाता है !
कोई शक नहीं की "दीवारों" से जुदा होती पपड़ियाँ कवि को ज्यादा अज़ीज़ !
स्टीरियोटाईप्स से कविता जुदा नहीं होगी तो और कौन ?
अच्छी हैं ये कवितायें क्योंकि जीने की औसत शर्तों से परे जाने की कुव्वत है इनमें,
एलिस की तरह ….
विपिन जी….
"जिस घडी मैंने दीवार से प्रेम किया"….
दीवारों से चाहे कितना भी अपना-पन रहा हो
फिर भी
पपड़ियों का साथ
कविता को गहरे में उतार रहा है
विद्रोह
हर तरफ है
एक कवियत्री का
विद्रोह का दामन पकड़ना
कविता के साथ
न्याय है……
——
एक बेहतरीन कविता….
ठूठ-दीवार के अंग-प्रत्यंगो में आपने जान डाल के रख दी….
ये दीवारों को अजर-अमर बनाने का प्रयास काबिले तारीफ़ है….
आज दीवारे भले आपका विरोध करें……..किन्तु कल यही दीवार आपको आने वाली शताब्दियों में ज़िंदा रखेगी…..
विपिन चौधरी जी…… गोबर में लकड़ी……..कैसा मंजर होता था….तालाब किनारे……और उस गोबर को कोई अन्य छूता तक नहीं था.
दुसरे के हिस्से पे काली नज़र नहीं रखी जाती थी.
और वो….
पानी से भरे बहुत सारे लोटे…..उनको गिराना….
कितना सुखद अहसास होता था उस ग्रामीण माहौल में…..
आपकी इस कविता ने उस गाँव की याद दिला दी…..जो हाथों से खिसकता जा रहा है.
विपिन की ये कविताएँ निश्चय ही उसकी सर्वश्रेष्ठ कविताओं में है. बधाई विपिन को दूँ या अनुनाद को?
Badhai Anunadko aur Vipin ko dhanyawaad! Bahut sundar kavitayein hain. Aapke permanent fanclub mein samil ho gaye hum. 🙂
अनुनाद ….का आभारी हूँ ,
जो विपिन चौधरी जी जैसी प्रतिभाशाली कवियित्री की रचनाओं को बाँचने का सुअवसर उपलब्ध कराया।
सभी कविताएं कुशल और विस्तृत सोंच कों अपनी प्रत्येक वर्तनी के माध्यम से प्रचुर विषयी ज्ञान का अनुभव करा देती हैं……कहीं पर भी कल्पना का अनावश्यक प्रयोग प्रतीत नही होता…किन्तु अधिक जरूर लगा…..
वास्तव में ये अधिकता अनुभवों से ही आती है….जो अच्छी है।
विपिन की ये कवितायें कवि के रूप में उनके प्रौढ़ होते जाने की सूचना देती हैं. उनके शुरूआती दोनों संकलनों से तुलना करें तो ये एक 'लीप फारवर्ड' जैसी लगतीं हैं. जो सबसे ज़रूरी बात इनके बारे में कहना चाहूंगा वह यह कि समकालीन समय के विमर्शीय दबाव में जो चीख पुकार आह कराह शोर ओ गुल चिल्ल-पों मची है और फार्मूला कविताओं के रूप में (जिनमें एक ऐसा यथार्थ परोसा जाता है जो न कवियत्रियों का है न ही किसी और का) इनकी जो भीड़ राजधानी और बाहर कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे कार्यक्रमों के माध्यम से सामने आ रही है, ये उस भीड़ में शामिल नहीं हैं. ये समकालीन कविता का ज़रूरी हिस्सा हैं, जिन्हें एक स्त्री ने रचा है. कम से कम मैं विपिन की ओर बहुत उम्मीद से देख रहा हूँ..
विपिन दो ही पढ़ पाया (अभी) क्योंकि दूसरी (प्रकृति और मैं) ने बाकियों के वक्त को अपने में मिला लिया…
प्रकृति के घने ऐश्वर्य के बीच मैं
अपने प्रेम का तर्पण करने में लगी हूँ
प्रक्रति यहाँ किसी तरह के मातम की इजाज़त नहीं देती
यहाँ प्रकृति मुझे अपने से अलग कर रही है
बाकी रचनाएँ पढूंगा और हो सका तो दोबारा (यहाँ) प्रतिक्रिया भी दूंगा
… भरत
बेहद महत्वपूर्ण कवितायेँ हैं ….सवाल उठती हैं …..बहस छेड़ती हैं …विपिन जी को बहुत बहुत शुभकामनाएं व अनुनाद का आभार !
आज जिन कुछ नामों को ढूंढकर पढ़ने की इच्छा रहती है , उनमे विपिन भी हैं …और क्यों , अनुनाद की इन कविताओं को पढकर जाना जा सकता है …उन्हें बहुत शुभकामनाये
VIPIN KI KAVITAON ME KE KASHIS HAY JO SEEDHE MAN KO CHOOW LETI HAY.