अनुनाद

आभासी संसार में छपी मेरी नई कविताएं : सब एक जगह : 2012

मेरी इस पोस्‍ट का मक़सद बस इतना है कि इधर लिखी हुई कविताएं सब एक जगह हो जाएं और कभी वक्‍़ते-ज़रूरत या कहिए कि वक्‍़ते-ज़ुर्रत काम आएं। इन सभी ब्‍लाग्‍स/ ई-पत्रिकाओं का आभार, जहां ये गुज़रे दिनों लगीं। इन्‍हें अपनी जगहों में जगह देनेवाले साथियों के मुखड़े और उनकी जगहों के लिंक्‍स भी दे रहा हूं। 




जीवन के
तलघर में

अपने बेटे
की आंखों में चमकता हूं मैं
कभी मुस्‍तक़बिल
तो कभी
अतीत बनकर
उसे मेरी
ज़रूरत है
उसकी
ख़ातिर मेरे हाड़-मांस को अभी
बचे रहना
है भरपूर

पत्‍नी की
आंखों में भर आता पानी
मेरा प्‍यासा
कंठ जब पुकारता है उसे
मेरी ऐंठती
मांस-पेशियों को
अपनी असम्‍भव
कोमल उंगलियों से
राहत देना
चाहती है वह
जोड़ना
चाहती है
टूटती-छूटती
सांसों को
उसकी
समकालीन कोशिशों में
धीरे-धीरे
कराहता है मेरा आगत
विगत विकट
चिंघाड़ता है

मेरे कुछ
नहीं कर रहे हाथों को
अकथ-अबूझ
प्‍यार में बंद आंखों के साथ
लगातार
चाटता है मेरा कुत्‍ता
जिसे मैं
पता नहीं कैसे और कब
छोटा बेटा
कहने लगा हूं

जीवन होता
जा रहा निजी इतना
कि भुतहा
होने के क़रीब

तय कर दी
गई दिनचर्या के तहत
जब मैं सो
जाता हूं
एक मृत
शरीर की गंध आती है मुझसे

रात मर
जाने के बाद
सुबह मैं
जी पाता हूं
संसार में
जाता हुआ कुछ उम्‍मीदों-सम्‍भावनाओं से लदा

जीवन के
तलघर में विकल पुकारती है मेरी आत्‍मा –


चमड़ी बदल पाना अब मुमकिन नहीं तुम्‍हारे लिए
मुमकिन है
तो बस गए
दिनों की ग़र्द झाड़ देना
और कपड़े
बदल लेना जो दुनिया ने दिए तुमको
***

रास्‍ता
बनवाने वाले रास्‍ता बनाने वाले

रास्‍ता
बनवाने वाले
रास्‍ता
बनवा रहे हैं

रास्‍ता
बनाने वाले
रास्‍ता
बना रहे हैं

बनवाने
वाले रास्‍ते से दूर खड़े हैं
मिट्टी-गिट्टी-डामर
वगैरह कच्‍चे माल से उन्‍हें कपड़े गंदे होने
और चोट
लगने का ख़तरा है

बनाने वाले
रास्‍ते में धंसे पड़े हैं
किसी-किसी
के पाँव में पट्टी बंधी है
गर्म डामर
का धुंआ पी रहे हैं 
कितनी
विचित्र और सार्थक बात है यह
कि कहीं न
जाते हुए
वे अपना
जीवन
रास्‍ता
बनाने में जी रहे है

ऐसे ही
बनवाए जा रहे और बनाए जा रहे
कुछ रास्‍तों
से गुज़रता मैं
दरअसल अब
महीनों से स्‍थगित अपनी कविता की तरफ़
लौट आने के
बारे में सोच रहा हूं

लिखवाने
वाले बैठे हैं
दूर
टेलीविज़न स्‍टूडियो के सोफ़ों पर
समारोहों
में सभाध्‍यक्षों के आसन पर
विचार और
संवेदना की वाहक कहानेवाली पत्रिकाओं के
पन्‍नों पर

वे लिखवा
रहे हैं
भले
मुग़ालता हो उन्‍हें पर वे लिखवा रहे हैं

लिखने वाले
परेशान हैं
एक ही रास्‍ते
को बार-बार खोदते
तोड़ते-बनाते
वे कहीं
पहुंच नहीं रहे है
मुझ जैसे
कुछ तो पहुंचना भी नहीं चाहते कहीं
आख़िर  को कविता
कहीं से
निकलकर
कहीं पहुंच
जाना भर तो नहीं

अभी
इस रात की
जिस मेज़ पर
मैं अपनी
कविता की तरफ़ लौट आने के बारे में सोच रहा हूं
वहां भूरी-भूरी
ख़ाक-धूल
   और स्‍याही ताल   के बीच
कुछ रफ़ू
कुछ थिगड़े
 पर
एक बड़ी-सी
लाल चींटी है
अपने बेटे
के मैग्‍नीफाइंग ग्‍लास से देखता हूं उसे मैं
उत्‍सुकता
से भरकर

उसके अगले
पैर उठे हुए हैं
थराथरा रही
हैं दो पतली सूंड़ें
कठोर है
उसका कब्‍ज़े जैसा जबड़ा
वह बेहद
लाल है
और काट भी
सकती है
अपनी तरफ़
बढ़ते किसी भी
गुस्‍ताख़
हाथ पर।
****

नए मठों
में  नए गढ़ों में

नए मठों
में
मेरे भीतर
उलझनों के कई पुराने चेहरे हैं
कुछ नए
आकार ले रहे हैं

नए गढ़ों
में  
मेरे भीतर
हिम्‍मत के भी चेहरे हैं अनेक
अजेय
मित्र-मेधाएं
रक्‍तालोक
स्‍नात अगुआ कुछ

कुछ उठे
हुए हाथ
तनी हुई
मुट्ठी
वो भी अपने
गढ़े तीन सितारों की छांव तले
बरसों पहले
की गहराती रातों में
सफ़ेद
दीवारों पर ये सब बनाता घूमता था मैं

बरसों बाद
मुझे इस
सबके सपने आते हैं

असेम्‍बलिंग-डीअसेम्‍बलिंग
कंस्‍ट्रक्‍शन-डीकंस्‍ट्रक्‍शन
का काम नहीं है यह

समूचे को
रचने और बचाने की सबसे कठिन-कोमल लगातार जद्दोजहद है एक
जितनी प्‍यारी
उतनी कठोर

इधर देखता
हूं
अभिव्‍यक्ति
के मठों और गढ़ों में घुसकर
वहां
झिलमिला रहे
कितने ही
कम्‍प्‍यूटर
कितने ही
सजे-बजे कमरों में
कितनी ही
सजी-धजी मेज़ों पर

समझाते हैं
मिल-जुल कर
हम जैसों
को –


चेहरे नहीं, उठे हुए हाथ नहीं,
तनी हुई मुट्ठी नहीं
विचार के
अब गुप्‍तांग निकल आए हैं
बहस उन पर
होनी चाहिए

***

उसे देखते
हुए देखा

उसे देखते
हुए देखा
कि वह
जितनी सुन्‍दर है उतनी दिखती नहीं है

उसे देखते
हुए देखा
कि उम्र
दरअसल धोखा है
चेहरे का
हाथों से अधिक सांवला होना भी
एक सरल
द्विघातीय समीकरण है
देह का

उसे देखते
हुए देखा
कि बोलना
भी दृश्‍य है और उस दृश्‍य के कुछ परिदृश्‍य भी हैं

उसे देखते
हुए देखा
कि मेज़ पर
भरपूर फड़फड़ा रही किताब ही किताब नहीं है
भारी गद्दे
के नीचे सिरहाने छुपाई गई डायरी भी किताब है

उसे देखते
हुए देखा
कि जो
प्रकाशित है वह अंधेरा भी हो सकता है
और जो
अंधेरा है उसके भीतर हो सकता है
उजाला
लपकती हुई
लौ सरीखा

उसे देखते
हुए देखा
कि वह बहुत
दूर बैठी है विगत और आगत में कहीं
बहुत सारे
लोग हैं संगत में
मैं नहीं

उसे देखते
हुए देखा
कि बीमार
का हाल अच्‍छा है
अब भी
उसके देखे
से आ जाती है मुंह पर रौनक 
ढाढ़स
बंधाता
बल्‍लीमारां
के महल्‍ले से कहता है कोई 
ये साल अच्‍छा
है
***

एक शोक प्रस्‍ताव
(ग्‍वालियर
वाले अशोक कुमार पांडेय के लिए…)

हिंसा के
नए और नायाब रूप सामने हैं
मर रही
मित्रताएं घुटने टेकतीं अनाचारियों के आगे
खा रहीं
लात पिछवाड़े

उमस और
गर्मी से भरे रिश्‍तों के वर्षावन में
चींटियों
की भूखी क़तार
जाती हुई
हमारे दिमाग़ों के पार

कुछ
दर्द-सा होता शरीर में कहीं तो लगता सब अंग अब नासूर हो जाएंगे
धमनियों
में रुकने लगता प्रवाह
बिला जाते
समर्पण और प्रतिबद्धता
जबकि
इतनी  भर ज़िद मेरी कि न्‍यूनतम मनुष्‍यता
तो होनी ही चाहिए

हम बहुत
साथ रहे आंखों में निचाट सूनेपन के बावुजूद
दिल तो भरे
थे शायद भरे हों अब भी
लड़ाई
अकेले की हो ही नहीं सकती इन सूरतों के साथ अन्‍तत: जाना है हमें वहीं
अपने
लुटते-पिटते अनगिन जनों के बीच 

यक़ीन जानो
इस टुकड़ा-टुकड़ा होती हिंदी के ग़मगुसारो
कभी न कभी
इक आह सी
उट्ठेगी ज़माने भर से
तब नज़र
आएंगे हम बहुत छोटे अपने ही बनाए क़द से
****

पुराना बक्‍सा

पुराने
काले वार्निश से रंगा
कभी अचानक
दिख जाता कम आवाजाही वाले कमरे के
कोने में
धरा
कभी अतीत
के अंधेरे में लोप हो जाता

इसके
पुरानेपन में आख़िर कितना पुरानापन है
पचास-पचपन-
साठ साल हो
शायद इस
पुरानेपन की उम्र 
यह मुझसे
तो बहुत पुराना है
पर पिता से
थोड़ा कम  पुराना
पुरानेपन
को समझ पाने के
कोई सीधे
नियम  नहीं है मेरे बेटे के वक्‍़त में अब
इसका
घरों में
आना ही बंद हो चुका है 

किसी फ़ौजी
ने बेचा था इसे रिटायरमेंट के तुरत बाद
वह शायद
मुक्ति चाहता था
पिता ने
ख़रीदा ज़रूरत थी उन्‍हें सीलन में ख़राब हो रही
किताबों को
सहजने के
वास्‍ते
अब तक उस
फ़ौजी का पहचान नम्‍बर लिखा है इस पर
मुक्ति न
उसकी हो सकी न इसकी

जिस बक्‍से
में कभी वर्दी और शायद बारूद रखी गई
उसमें
किताबों को जगह मिली

तेरह बरस
पहले मैं नौकरी पर चला तो मेरे साथ आया
मैंने भी
कुछ ज़रूरी किताबें रखीं
कुछ पुराने
कपड़े -कुछ मोटी चादरें-कम्‍बल 
कुछ छोटे
बरतन भी
सफ़र में
इसने तंग किया
कुली
नाख़ुश था ….
उसे अब नए
तरह के लगेज़ मैटेरियल को
पहियों पर
घसीट कर ले जाने की आदत हो चली थी
और इसे सर
पे ढोना पड़ता था

पुलिस के
सिपाही ग़ौर कर रहे थे उस पर डंडे से
बजाते उसे
मैं उन्‍हें
अपना आई
.डी. कार्ड दिखाता रहा
वह सीट के
नीचे नहीं आया तो हमसफ़र भुनभुनाये –
वी.आई.पी. नहीं ख़रीद सकते क्‍या
लम्‍बा
सफ़र किया इसने नए घर तक आया
कुछ दिन
बैठक में रहा मेज़ की तरह
फिर पैसा
आया तो अन्‍दर गया सोने के कमरे में बिस्‍तर
रखने के
वास्‍ते
फिर और अन्‍दर
…इसके भीतर आई चीज़ों ने घर में
अपनी दूसरी
जगहें भरपूर सम्‍भाल लीं
यह ख़ाली
ही था बेकार
सोचा अब
कबाड़ में बेच दें इसे
इस
बाज़ारकाल में कुछ भी बेच देने के बारे में
सोचना सरल
है 

तब उस चीज़
ने बचाया इसे जिसे अब हम
अतीत कहते
हैं 
द्वन्‍द्व
कहते हैं 
इतिहास
कहते है
हम जानते
नहीं थे पर बक्‍से की अपनी भी
एक
पालिटिक्‍स थी
यह समूचा
था और इस समूचेपन को कबाड़ी ख़रीदते ही
तोड़ना
चाहता था
वह एक
तीसरे यथार्थ में देखता था इसे
धातु के
टुकड़ों की तरह बिकता हुआ
जैसे पाठ
और अर्थ जिन्‍हें ढोने में भी सहूलियत
जबकि यह
महज यथार्थ था संभवत:
शीतयुद्ध
के ज़माने का
विखंडन हम
भी नहीं चाहते थे 
इसे रहने
दिया
फिर पुरानी
किताबें भरी इसमें कुछ किताबों में तो
वाकई
पुराने वक्‍़तों का बारूद था

गृहस्‍थन
ने किताबों के ऊपर
बाक़ी बची
जगह पर बढ़ते हुए बेटे के छोटे पड़ते कपड़े
रखने शुरू
कर दिए
इस तरह
पुराने बक्‍से में अब नई स्‍मृतियां हैं
मैं भी इधर
ज्‍़यादा ध्‍यान देने लगा हूं उस पर
खोलता हूं
कभी कभार
कुछ
किताबों को देखने 
और कुछ
बेटे की बढ़ती उम्र के निशान उसके
छोटे पड़
गए कपड़ों में तलाशने के वास्‍ते

इस बिखरते
समय में बहुत उदास होने पर कभी वो मुझे
किसी
पुराने आख्‍यान की तरह लगता है
जो महज
सामान को नहीं मेरी गुज़रती उम्र को भी
ढंकता
है 
****

  
बारिश के भीतर बारिश है

पानीदार लगभग कुछ नहीं है
न आंखें
न चेहरे
न हथियारों की धार
न किरदार
मेरे आसपास पानीदार लगभग कुछ नहीं है

एक ऐसे समय में कह सकते हैं
सूखा है
अकाल है

पपड़ाई मिट्टी के ढूहों से
बिलखती निकलती हैं चींटियां
दिमाग़ में रेंगती
अचानक पानी की उम्‍मीद में उग आए कोमल पंखों को
हिलातीं
थोड़ा उड़तीं इधर-उधर
फिर दिमाग़ के कोटर में ही
गिर जातीं

एक ऐसे समय में कह सकते हैं
सूखा है
अकाल है

पक्षियों की महान उड़ानों के झड़े हुए पंख
धूल में भटकते बच्‍चों को मिल जाते हैं
खेलने के काम आते हैं
पक्षी जो उड़ गए पानी की तलाश में
साधारण थे
महान थीं उड़ानें
आकाश के सूनेपन को सरापती
अब न जाने कहां होंगी

एक ऐसे समय में कह सकते हैं
सूखा है
अकाल है

पेड़ों पर बंधे हुए फलों में सूख गया रस
अब लगे रहें बेशर्मी से कि झड़ जाएं की उनकी कशमकश
पहाड़ी नदियों के तल में रेत ही रेत
गो हर देश और काल में अपने उद्गम से लगभग
पहाड़ी ही होतीं हैं वे
लाश की तरह नोचते उन्‍हें माफिया
पानी न होने का सुख सम्‍भालते
इधर लोग पुकारते व्‍याकुल कराहते
बोलते तो मुंह से झरती रेत

एक ऐसे समय में कह सकते हैं
सूखा है
अकाल है

जंगलों से भाप की जगह निकलता धुंआ
धूप के साथ आग
चांदनी के साथ राख
हर तरफ़ झुलसे हुए छोटे-छोटे जीवों और कीड़ों के
अदृश्‍य शव
इधर पिटती हुई झील के किनारे
समृद्ध पर्यटकों का कलरव
हाहाकार पहाड़ों के दिल का अनसुना ही रह जाता है
बेवक्‍़त की इस अजब-सी बादे-बहार के बीच 

एक ऐसे समय में कह सकते हैं
सूखा है
अकाल है

कहां है बारिश
बारिश कहां हैं
पुकारते हैं पहाड़
कराहता है भाबर
पानीदार कुछ भी नहीं अब तो बताओ
बीते जा रहे चौमासे के महीने रीते के रीते 
कहां है बारिश
बारिश कहां हैं

कैसे न कैसे एक दिन तो वह आएगी
तर-ब-तर हो जाएंगे पहाड़
पानी इतना आएगा
कि सरकार को दैवीय नज़र आने लग जाएगी हर आपदा

पर आंखें सूनी रह जाएंगी मेरे जनों की
चेहरे वैसे ही सूखे
बेपानी इठलाते रहेंगे जनप्रतिनिधियों के किरदार
क्‍या हमेशा कुंद ही बनेगी रहेगी विचारों के हथियारों की धार

बारिश कहां है
कहां है बारिश

एक ऐसे समय में कह सकते हैं
सूखा है
अकाल है

जानता हूं मैं यह बारिश जिसकी बरसों से तलाश है
क़ैद है दूसरी बारिश के भीतर
इस बारिश के भीतर दुबक गया है
एक बहुत बड़ा संसार
एक बारिश छुप गई है बारिश के भीतर
आपदा के भीतर उर्वरता
सरकार के भीतर जनता

एक ऐसे समय में कह सकते हैं
सूखा है
अकाल है 

किसी भी समय में कवि यदि कवि है तो
उम्‍मीद नहीं छोड़ता
जानता है
अपने हारते हुए दिल से भी मानता है
एक दिन बारिश को बारिश का डर न होगा
इतनी बढ़ जाएगी आपदा
कि दुबक जाने को कोई घर न होगा

आंख मलते जन सड़कों पर होंगे
बारिश होगी
जल होगा
भले ही एक विशाल आज में घुटकर रह गए हों हम
पर सरल बात है यह – कल होगा

एक ऐसे समय में जब कहना पड़ता है
सूखा है
अकाल है
बात का यूं उम्‍मीद के मोड़ पर ख़त्‍म हो जाना ही अच्‍छा 
यही एक शरण्‍य है
बाक़ी तो सब जीवन फ़िलहाल हताश धुकधुकियों का
एक सिलसिला है
भय है ।
***

कवि की मेज़
(दो प्‍यारे दोस्‍तों याने अर्थात माने गिरिराज किराड़ू और व्‍योमेश शुक्‍ल
के लिए)

एक ज़िंदा पेड़ की महक सूखी-तराशी हुई लकड़ी से आ रही है
एक किताब के कवर पर लगभग अमूर्त हो चुकी
चिड़िया भी गा रही है

मसली हुई तम्‍बाकू के कण
काफी के गहरे दाग़
कितना निकोटिन-कैफ़ीन है यहां

यह
छात्र-जीवन के पुराने रेस्‍टोरेंट की उस मेज़ की तरह
लगती है
जिस पर कितनी बहसें हुईं
सिगरेटें बुझाई गईं क्रोध से भरकर
कुछ झड़पें भी हुई
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे  वालों के साथ
जबकि ज़मीने-हिंदोस्‍तां प्‍यारी थी हमें उनसे भी ज्‍़यादा
हम उस पर अपने करोड़ों कुचले कराहते जनों की
बसासत देखते थे
धर्म-मज़हब के फ़रेब से दूर
इंसान की मुक्ति
मेहनत की क़द्र करने वाले विचारों में खोजते थे 

आज भी इस पर विचारों की भरमार है
दिशा वही है समय भी वही है

यहां वाल्‍टर बेंजामिन मार्टिन हाइडेगर  को घूरते हैं
देरिदा  कोने में पड़े
रहते हैं उत्‍तरआधुनिकता की
भंगमुद्राओं का परीक्षण करते सोकल
उनका नाम तक नहीं लेते हैं
यहां आज भी
एक घमासान मचा रहता है
ऐसे में कविमन कहां बचा रहता है

पर यह कोई बौद्धिक चीज़ नहीं है
ज्ञानात्‍मक संवेदना और भावानात्‍मक संवेदना की
प्राध्‍यापकीय कारीगरी की ज़द से बाहर है
इसका शिल्‍प –
बहुत ठोस
चार खड़े डंडों पर एक पटरा
नीचे डंडों के बीच दो-एक आड़ी लकडि़यां
सहारे के वास्‍ते….
बस्‍स..इतना भर…बाक़ी तो सब कला है
अगर उसमें कुछ श्रम है तो मज़ा है

कई परिवर्तनशील युगों में इसके इतिहास के बारे में
मेरे पास दो सरल वाक्‍य हैं

1- इसने ख़ुद को कुछ ख़ास नहीं बदला है
2- हमने इसको कुछ ख़ास नहीं बदला है

पहला कवि का वक्‍तव्‍य है
और दूसरा बढ़ई का
जाहिर है बढ़ई वाले में विचार ज्‍़यादा है
और विचार सिर्फ़ मूल ढांचे के बारे में है

बाक़ी तो सब कला है …
अगर इसमें कुछ श्रम है तो मज़ा है

कुछ कवि मेज़ नहीं तिपाई रखते हैं सिरहाने
उनकी कविता के बारे में
इतना तो कहना ही होगा 
कि एक पाँव कम होने से सौन्‍दर्य और कला
कुछ बढ़ जाते हैं
पर तिपाई कमज़ोर होती है मेज़ से

मेज़ में
अपने सीमित आकार के बावज़ूद विस्‍तार बहुत है
इस पर हाथ रखकर सोचता बैठा
या लिख-पढ़ रहा आदमी
भटक सकता है रात-रातभर के लिए
खो भी सकता है
और कितनी कोमल बात है
कि लौटकर आए तो सो भी सकता है
उसी पर सिर टिकाए

समकालीन समय में
ज‍बकि टी.वी. स्‍टैंड से उठकर दीवार पर चिपक गए हैं
रेडियो खो गए हैं कहीं
अब उनकी आवाज़ भी नहीं आ रही है
तब भी
इस मेज़ से एक ज़िंदा पेड़ की महक आ रही है
एक अमूर्त चिड़िया इस पर गा रही है 

रागात्मिका वृत्ति है यह हमारी
जो हमें
मनुष्‍यों और दूसरे जीवों के अलावा
चीज़ों से भी जोड़े रखती है
और चीज़ें आख़िर चीज़ें ही हैं
अकसर इस्‍तेमाल भर का होता है
उनका मोल

पर किताबों के बोझ से सजी
कुछ अनदेखी सम्‍भावनाओं से दबी यह मेज़…
इसका मामूलीपन कुछ ख़ास ज़रूर है
इस मामूलीपन से ही जन्‍मती है दुनिया हमारी
लगातार फैलती हुई
चौतरफ़ा ख़ासुलख़ास होती हुई 

कुछ और पुरानी ख़स्‍ताहाल होने पर भी पड़ी रहेगी
घर के किसी कोने में
कवि भले कवि न रहे पर उसकी स्‍मृतियों में यह तब भी
कवि की मेज़ रहेगी

कभी बहुत क्रूर आया समय तो जाड़ों की किसी रात
अहाते में
बच्‍चों के हाथ सेंकने की ख़ातिर लहक कर जलेगी

यूं सर्द सफ़ेद चांदनी के बीच
इससे एक लाल गर्म दहकती हुई-सी कविता बनेगी

उफ़…कितनी तुकें मिलाने लगा हूं मैं
हर बार की तरह
मेरा कवि होना
असफल होने लगा है
इस बार तो लकड़ी की एक मामूली-सी मेज़ के सामने 
जिससे फ़िलहाल
एक ज़िंदा पेड़ की महक आ रही है
एक लगभग अमूर्त हो चुकी चिड़िया जिस पर
अभी अकेले ही गा रही है ..
घुप्‍प रात और राजनीतिक अचेतन के अंधेरे में
उजाले की अगवानी का कर रही है अभ्‍यास 
जिसकी उम्‍मीद धीरे-धीरे जाती रही
लोगों के मन से

विचारों का ये घमासान बता रहा है
दूसरी चिड़ियें भी हैं अनगिनत घरों में क़ैद अमूर्त होती हुई
ख़तरे में आ पड़ेगी जब जान
मिलकर गाएंगी वे भी

एक दिन
सामूहिक होता जाएगा ये मुक्ति का गान
***

पन्‍द्रह की उमर में एक तुकान्‍त प्रेम 

बीच राह की बहुत देर की गपशप से थकी हुई-सी
वह जाती थी सिर पर आटे का थैला लादे
थोड़ी शर्मायी-सी
घर को
अम्‍मा देती आवाज़ दूर से उसको

उसी सांकरी प्रिय पगडंडी पर
किलमोड़े* के फल के गाढ़े गहरे लाल रंग से
अपने अंग्‍गूठे पर मैंने
झूटा  नकली घाव बनाया

लग जाने का अभिनय कर उसे बुलाया

वह पलटी
रक्‍ताक्‍त अंगूठा देख तुरत ही झपटी
अपने सर्दी से फटे होंट पर धर कर
छोटी-सी गरम जीभ से
जैसे ही अंगूठा चूसा
खट्टा-कड़वा स्‍वाद झूट का उसने पाया

झट से प्रेम समझ में आया
हाय, क्‍यों
झूटा घाव बनाया
देखा कितनी-कितनी बार
मगर फिर अपने निकट न उसको पाया

इतने बरसों बाद
अब भी जीवन है भरपूर
और प्रेम भी है जीवन में
पर झूट धंसा है
गहरा कहीं रक्‍त–सा रिसता है मन में।

* एक पहाड़ी झरबेरी

***




सारा
ज्ञान कर्मों में समाप्‍त हो जाता है 
(सर्वं
कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते को खेदसहित याद करते हुए)

मुझे
उस लड़ाई में लड़ना पड़ा
जो
मेरी नहीं थी

मुझे
किसी और को सुलाने के वास्‍ते
ऐसे
क़िस्‍से गढ़ने पड़े कि ख़ुद जाग रहा हूँ  
वर्षों
से

मुझे
कभी हरियाई ज़मीन बनकर बिछना पड़ा
कि
कोई पांव ले सके

कोई
देख सके बहुत ऊपर
पक्षियों
की पांतों का आना-जाना
कुछ
नीचे
तितलियों
का अपने रंगीन हल्‍के पंख हिलाना
मुझे
एक छोटा आसमान बनना पड़ा

जिसे
गिर पड़ना है शायद
एक
दिन
मेरे
ही ऊपर

मुझे
कुछ नहीं कई-कई शब्‍द लिखने पड़े
कि
कोई चाहता था
मेरे
जीवन को पढ़ना
पर
कितने ही हिज्‍जे ग़लत हो गए
जो
लिखा उससे जीवन कुछ और बन गया
किसी
को पढ़ना था कुछ पढ़ कुछ और गया
आजकल
मैं सड़कों पर चलते हुए बीच में पड़े पत्‍थर हटाता हूँ  
सावधानी
से कीलें और कांच की किरचें उठाता हूँ  

कुछ
खा़स नहीं करता हूँ  
तब
भी कई सारे उम्‍मीद भरे नौउम्र चेहरे मेरा इन्‍तज़ार करते हैं
मैं
वेतन लेता हूँ  अमीरी रेखा का
और
एक सरकारी कमरे में ग़रीबी रेखा को पढ़ाने जाता हूँ  
***

जागना
सोना होना

जब
मैं जाग रहा हूँ  कोई न सुलाए मुझको
जागता
हूँ  तो जिन्‍दा हूँ  

उम्र बढ़ती है मेरी न शरीर सिकुड़ता है

जब
मैं सो रहा हूँ  कोई न जगाए मुझको
मृत्‍यु
तक जाती है मेरी नींद
अपने
पूरे सपनों और अज़ाब के साथ

छिहत्‍तर
का हूँ  कि अड़तीस का
मालूम
नहीं

मालूम
है तो इतना
कि
अपनी
समकालीन
उम्र में
मैं
एक ही साथ
जागता
और सोता हूँ  

ग़म-ए-हस्‍ती
का … ओ पुरखे मेरे
किससे
हो जुज़ मर्ग इलाज 
देख
कि यां तक न होना था
मुझको
 
पर
होता
हूँ  ।
***

दंतकथा

प्राचीन
मिस्‍त्र के राजाओं-रानियों की
ममियों
में दंतक्षय की शिनाख्‍़त कर ली गई

पता
कर लिया गया कि क्लियोपेट्रा से सहवास के दिनों में
जूलीयस
सीज़र के दांतों की हालत ख़राब थी

सिकंदर
महान की तो भरी जवानी में दुखती थी दाढ़
मिस्वाक
बहुत था
पर
ऑटोमन साम्राज्‍य के शासकों के दांतों में
फिर
भी रहता था दर्द

चन्‍द्रगुप्‍त
मौर्य के दांत स्‍वस्‍थ और मज़बूत थे
पर
पता नहीं क्‍यों एक साथ झड़ गए
सड़सठ
की उम्र में

देवानांप्रिय
अशोक के दांतों से ख़ून रिसता था
पता
नहीं ख़ुद का या कलिंग का

पृथ्‍वीराज
चौहान शरीर और इरादों से तो
बलशाली
था
पर
आचरण और दांतों से कमज़ोर

यूं
सत्‍ताओं और सभ्‍यताओं के दांतों की भी एक कथा भयी
मनुष्‍यता
की रातों में कभी सुनाई गई
कभी
छुपाई गई

इधर
भरपूर पैने और चमकीले हुए हैं दांत
और
भरपूर से भी अधिक विकसित ज्ञान
कई-कई
सुविधाजनक स्‍तरों वाला यथार्थ

हज़ारों
साल पुरानी सांस्‍कृतिक विरासतें
अब
चबा ली गईं  
खा
लिया गया इतिहास
के-नाइन
और मोलर के बीच की दरारों में
कहीं
अब
भी फंसे हैं इराक़ और अफ़गानिस्‍तान

उधर
एक मुख है क्‍यूबा का
सिगार
के धुंए से पीले पड़े दांतों के साथ
विहंसता
ही जाता है

उसे
यथार्थ के किस स्‍तर पर रखें
सुघड़
सुफ़ैद उन दांतों की समझ में नहीं आता है।  
***

एक
सुंदर
छछूंदर
कथा

रात्रिभोज
कब का ख़त्म हो चुका था
मांजे
जा चुके थे बरतन
अर्थ,
धर्म, काम, मोक्ष सब बिला चुके थे
पहाड़ी
सर्दी के गर्म गुदगुदे बिस्‍तर में

बेटे
की काफ़ी देर पहले बंद हो चुकी
प्‍यारी-सी
पटर-पटर के बाद
अब
एक अजीब-सी खटर-पटर
हड़कम्‍प-सा
कुछ
किंचित
रहस्‍य भरा

एक
छोटा भूचाल-सा उठा रसोई की ओर से  
जहां
अब जूठन भी नहीं बची

वो
उठी थोड़ा डरी पर अलसा गई  
उचटी
नींद और ढहते हुए सपने के साथ टार्च जला देखने गया मैं

लौटा
मुझे अचानक दे दिए गए साम्राज्‍य की पर्याप्‍त जांच-पड़ताल के बाद
जागा
पूरी तरह हंस कर बोला –
कुछ
नहीं… छछूंदर थी..बस्‍स…!
 


देखा
उसने भी
नींद
के लिहाफ़ से बाहर निकल
बोली
–  अब छछूंदर ही थी तो फिर इतना हंसने
की
क्‍या
बात ?
 


ओह…
दिन
भर के न जाने किन-किन कामों और निरर्थक बहसों से थके
अब
तक थे हम दोनों ही
सोते
हुए

एक
बजे की नीरव निस्‍तब्‍ध निशा के छेकानुप्रास में
अनायास
ही बरबाद था जीवन

उसको
एक
छछूंदर ने फिर आबाद किया
***

जीवन
में ख़तरा है भी एक ज़रूरी कथा है

कितने
बस
इने-गिने पन्‍द्रह घरों का था हमारा गांव
उसमें
भी आखिरकार
खुल
गया हमारे ही दुतल्‍ला घर के नीचे के अंधेरे कमरों में
बैंक….पंजाब
नेशनल… आए मैनेजर और कैशियर पहने कपड़े क्रीज़दार 
कुछ
दिन पहले तक गायें बंधती थी वहां
गांव
का ही आवारा छोकरा एक
चपरासी
बना
लगा
एक छोटा-सा भोंपू दरवाज़े पर
जिसके
नीचे कुछ अंग्रेज़ी में छपा था
गांव
के इकलौते ज्ञानवान ताऊ जी ने पढ़े वो आखर  
Siren….सायरन
ताऊ
जी ने बताया ख़तरा होने पर बजेगा ये
पूरे
गांव को करता हुआ ख़बरदार

हम
बच्‍चों ने पूछा खतरा क्‍या होता है – बाघ जो रात को गांव में कुत्‍ते और गायें
मारने आता है
ताऊ
जी ने बताया – नहीं, उससे भी बड़ा
जब
जीवन भर का संचित धन एकदम लुट जाता है
फिर
पता नहीं क्‍यों कहा उन्‍होंने कि धन सिर्फ़ रुपया-पैसा नहीं होता
आदमी
से आदमी का अच्‍छा व्‍यवहार और ईमानदार होना भी धन की श्रेणी में आता है
 

हम
बहुत छोटे गवारूं थे तब भी चूंकि ताऊ जी ने कुछ कहा था इसलिए हमने ध्‍यान से सुना
भाषा
समझ भले न आई हो पर अवचेतन में कुछ गुना

सब
बच्‍चों ने मिलकर बैंक पर लगे उस भोंपू का नाम खतरा है  रखा

किसी
के खेल में बेईमानी करने या गाली बकने पर हम चिल्‍लाते थे ज़ोर से –
खतरा
है
  
और
मामला अपने आप सुलट जाता था

लेकिन
बचपन की पूंजी चुक गई बहुत जल्‍दी गांव में कभी खतरा है  बजा ही नहीं
हम
बड़े हुए
लिखने-पढ़ने
और नौकरियों पर गए शहरों में
तितर-बितर
हुए
दिमाग़
में कहीं घर बनाए रहा वो चोंगा छोटा-सा
हम
शब्‍दों में नुक्‍़ता लगाना सीख गए  
पर
बिना किसी नुक्‍़ते के कहीं दबी रह गई एक आवाज़ –  खतरा है

उस
छूटे हुए गांव से कहीं ज्‍़यादा मकानों और बैंकों वाली जगहों में
हमारे
घरबार हुए
गांवों
के रिश्‍तों में एक-दूजे की खोज-ख़बर लेना कम होता गया

मैंने
दुनिया- ज़माने के ग़म देखे
देखी
लूटपाट
अनाचार-
शोषण
पागलपन-
उन्‍माद
ख़ुश्‍बुओं
भरा पर कूड़े के ढेर-सा गंधाता अपराधी बाज़ार
कोशिश
भर लड़ा सबसे
सड़कों
पर  
काग़ज़
पर
 
कभी
पीटा
कभी
पिटा
पर
खतरा है  नहीं बजा

फिर
अचानक प्रेम हुआ … लोगों ने किया बहुत ख़बरदार
तब
भी खतरा है  नहीं बजा
मैं
आश्‍वस्‍त रहा
नौकरी
लगी, शादी हुई, हमारे प्रेम जितना ही सुन्‍दर, स्‍वस्‍थ और बलवान बेटा हुआ
केक
पर लगी मोमबत्तियां बुझाता बढ़ता रहा
होते-होते
अब है ग्‍यारह बरस का ….

सब
कहते हैं उसे समृद्ध जीवन मिला है
इकलौती
संतान
पिता
का अच्‍छा वेतन मां का भरपूर दुलार
हर
इच्‍छा होती है पूरी

आज
बाज़ार से आते और अपनी पसन्‍द की सारी चीज़ें घर लाते
एक
सहपाठी दोस्‍त के अत्‍यन्‍त धनवान पिता की करोड़ से ऊपर की कोठी को निहारते
आह-सी
भरकर बोला-
बब्‍बा,
काश ऐसा घर हमारा भी होता
फिर
सामने से आते बारिश में भीगे
कीचड़
में सनी गंदी सरकारी स्‍कूल की यूनीफार्म वाले बच्‍चे को देख मुंह बनाया –
कितना
गन्‍दा बच्‍चा है … हाऊ अनहाइज़ेनिक

पहली
बार आयी वह आवाज़ बहुत तीखी
कानों
को सुन्‍न करती-सी जिसका कभी अपने बचपन में बेहद उत्‍सुक इंतज़ार था
पर
अवाक् हूँ  अब
दिल
है कि बेतरह धड़घड़ाता है

खतरा
है
खतरा
है
खतरा
है

मैं
क्‍या करूं
क्‍या
करूं इसका जो जीवन में कभी नहीं बजा अब लगातार बजता ही जाता है

हवा
में खोज रहे हैं मेरे हाथ कहां से बंद होता है ये
मुझे
कोई बटन नहीं मिल रहा
बेलगाम
होती जा रही है मेरी सांसें

बरसों
का छूटा वो गांव
और
वो बचपन
और
वो खेल
और
वो भोंपू महान
मेरी
ही सांसों के ज़ोर से आंखों के आगे सब कुछ
अचानक
गुब्‍बारे की तरह फूल गया है

ज्ञानी
थे ताऊ जी पर जाहिल निकला ख़ूब पढ़ा-लिखा भतीजा उनका
जो
बेटे को शहर के सबसे बड़े स्‍कूल में भेजते हुए भी
उसके
जीवन में कहीं पर
वो
एक बेहद ज़रूरी खतरा है  लगाना
भूल गया है।   
*** 

0 thoughts on “आभासी संसार में छपी मेरी नई कविताएं : सब एक जगह : 2012”

  1. शिरीष जी…फेसबुक के जरिये आपकी कुछ कविताओं को पहले पढ़ा है…अभी बाकी भी पढ़ी…खूब उम्दा हैं सभी की सभी…मुझे दांत-कथा विशेष पसंद आई….बधाई एवं शुभकामनायें….

  2. कुछ कवितायेँ पहले पढ़ी थीं उन्हें दुबारा पढ़ा ,कुछ मेरे लिए नयी हैं ! आपकी कविताओं के बारे में क्या कहना ,वे तो अच्छी ही होती हैं ! बधाई !

  3. जीवन के तलघर में …..एक अ'शोक प्रस्ताव ….पुराना बक्सा …अच्छी लगी ….अनुनाद के बारे में सुना था ….पढा आज पहली बार ….बाकी पोस्ट पढ़ने का प्रयास रहेगा ….अच्छा प्रयास ….बधाई के साथ शुभकामनाएं ….

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