अनुनाद

अरुण शीतांश की कविताएं

बहुत दिनों बाद अनुनाद पर एक साथ इतनी कविताएं लग रही हैं। यह उपहार हमें मिला है हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि अरुण शीतांश की ओर से। अरुण ऐसी कविताअों के कवि हैं, जिनकी आधारभूमि पर खड़े होकर एक कवि गर्व से कह सकता है कि ‘उस जनपद का कवि हूं’। अनुनाद पर अरुण शीतांश पहली बार छप रहे हैं, दस वर्ष से इस यात्रा में रहते हुए भी वाक्य में ‘पहली बार’ आना हमारी इतने वर्षों की कोताही भी है। अरुण जी का अनुनाद पर स्वागत और कविताओं के लिए शुक्रिया।
 
बाबूजी 
किसी
विज्ञापन के लिए नहीं आया था यहां
धकेल
दिया गया था गले में हड्डी लटकाकर
विष्णुपुरा
से आरा
महज
संयोज नहीं था
भगा
दिया गया था मैं
बाबूजी
आपकी
याद बहुत आती है
जब
एक कंधे पर मैं बैठता था
और
दूसरे कंधे पर कुदाल
रखे
हुए केश को सहलाते हुए चला जाता था
खेंतों
की मेड़ पर गेहूं की बालियां लेती थीं हिलोरें
थके
हारे चेहरे पर तनिक भी नहीं था तनाव
नईकी
चाची चट पट खाना निकाल जमीन को पोतते हुए
आंचल
से सहला देती थी गाल
आज
आप पांच लड़कों पांच पोतों और दो पोतियों के बीच
अकेले
हैं
पता
नहीं आब आप क्यों नहीं जाते खेत
क्यों
नहीं जाते बाबा की फुलवारी
फिर
ढहे हुए मकान में रहना चाहते हैं
और
गांव जाने पर काजू-किशमिश खिलाना चाहते हैं
आप
अब नहीं खिलाते बिस्कुट
जुल्म
बाबा की दुकानवाली
जो
दस बार गोदाम में गोदाम में या बीस बार बोयाम में हाथ डालकर
एक
दाना दालमोट निकालते जैसे जादू
सुना
है उस जादूगर की जमीन बिक गई
अनके
लड़के धनबाद में बस गए
वहां
आटा चक्की चलाते हैं
बाबूजी
आपकी याद बहुत आती है
मधुश्रंवा
मलमास मेला की मिठाई
और
परासी बाजार का शोभा साव का कपड़ा
आपके
झूलन भारती दोस्त
सब
याद आते हैं
सिर्फ
याद नहीं आती है
अपने
बचपन की मुस्कान….
***
साइकिल 
घर
में

साइकिल है 
पहले
दुकानदार रखा था
आज
मेरे पास है
 
पैसे
वैसे की बात छोङ दीजिए
 
साइकिल
है मेरे पास
 
रोज़
साफ करता हूँ
 
उसपर
हाथ बराबर रखता हूँ
 
सुबहोशाम
निहारता हूँ
 
साइकिल
को धोता हूँ
 
चलाता
नहीं हूँ
 
रोज़
उसपर बैग टंगे रहते थे
बाजार
से लौटती थी
तो
घर लौट आता था
अब
नहीं जाती
एक
सब्जी भी लाने
टिफ़िन
के रस नहीं लगते चक्के में
 
वह
चुपचाप खङी है
 
उसे
गाँव नहीं जाना
हवा
से चलती
और
उङती साइकिल

हवा से ही बातें करती रही
साइकिल  की पिछले सीट पर एक कागज की खङखङाहट सुनाई दी
उसमें
लिखा था- पापा !इस साइकिल को बचाकर रखना
किसी
को देना नहीं।
 
 साइकिल को बारह बजे रात को भी देखता हूँ 
कल
डब सैम्पू से नहलाऊँगा
तो
साइकिल कम बेटी ज्यादा याद आयेगी
 
इसलिए
आज फिर देखकर आता हूँ- आपके पास।
थोङी
देर हो चुकी है
 
एक
खिलौना को रखने में
 
वह
खिलौना नही जीवन है
जीवन
की साइकिल है ..
l
***
रास्ता 
रास्ते
में सब जातें हैं
 
पांव
मेरे लड़खड़ाते हैं
किसान
रास्ता नहीं नापता
नेता
रास्ते पर दाँव लगाते हैं
पत्नी
रास्ता देखती है
 
प्रेमिका
रास्ते पर आँख बिछा देती है
माँ
रोज़
रास्ता देखती है
पिता
पैसे का राह देखतें हैं
 
बेटा
रास्ता में खेलता है
 
बेटी
रास्ते भर रोती रहती है
मित्र
रास्ते में काट फेंकतें हैं
 
मुझे
और रास्ते को ..
दुनिया 
बिन
रास्ते की हो गई है
 
कोई
बताए नया रास्ता सही सही
 
जहाँ
भूलकर मिल जाए सभी.
***
पकड़ौवा  बिआह 

पहले
भी पेड़ों की शादियाँ होती थी
 
पहले
भी लोग रोते थे
जैसे
आज रोते हैं
अब
लड़कियाँ ससुराल जाते कम रोती हैं
बाप
ज्यादा रोतें हैं
 
माँ
मित्र संगी साथी सब रोते हैं
 
बिआह
में गीत गाए जाते थे
गाली
के गीत थे
सब
गीत भूल गई बहने
एक
बिआह से दूसरे बिआह में जाते थे
क्या
लू क्या बारिश क्या ठंढक सब ताक पर रख बारात कर आते थे
 

होटल

न बोतल 
प्रश्न
परिक्षाओं की तरह पूछे जाते थे
ढेले
में सो जाना
 
और
लौंडे नचनिया को देख रात कट जाती थी
तब
उस समय एक महान कवि भिखारी ठाकुर की पार्टी थी
 
गाँव
जवार टूट पड़ता था देखने
इस
बीच अपनी लड़की के लायक लड़के को जबरन उठाकर घर ले जाते लोग और अपनी लड़की के साथ
एक रुम में बंद कर देते
 
दूसरे
दिन उसी बारात के साथ दो दुल्हे और दो दुल्हन को भेज देते
वह
भी समय था गाँवों का
आज
पुरा समय गाँव शहर की तरह हो रहा है
बदल
रहा है
जो
मुंम्बई में

साबून मिलता है वह गाँव में उपलब्ध है
केवल
विकास नहीं है

जाने कितनी पकड़ौवा शादी हुई
एक
मेरे गाँव में भी हुई जब मैं छ: साल का था
उनका
नाम राधेश्याम दूबे था
 
अब
वे पटना में हैं गाँव छोड़कर
अब
चिटिंयो या चूटों की तरह झूण्ड में नहीं जाते बारात
लेकिन
अब भी भोजपुर में चलती हैं
आँगन
से शामियाने तक गोलियाँ तड़ तड़ तड़ …
जैसे
कोई विधायक या सांसद की जीत पर चलती हैं
 
हम
देशजवासी मनुष्यवासी कम हो रहें हैं
बावजूद
आज भी सूरज लाल उगा है
कल
भी उगेगा…
***
जिनके
लिए
समय
को बांधो
 
और
फेंक दो सूर्य पर
समय
का क्या करेंगे हम
समय
में इतने प्रधानमंत्री
 
राष्ट्रपति
न्यायधीश बन रहे हैं
 
हत्याएँ
समय में हो रहीं हैं
समन्दर
में समय को फेंको
वृद्ध
समय
में बहुत कम बचे हैं
प्रेमिका
समय से भाग रही है
पर्वत
उठाओ और समय को ढक दो
 
तीन
तह नीचे
 
समय
में आग लगी हुई है
कवि
सरकार से खुश नहीं हैं
इस
समय दिल से कह रहा हूँ
हर
समय को मुस्कान में बदल दो
हर
जगह
 
और
हर नागरिक के आँखों में झाँकों
देश
खाली मिल रहा है हर समय….
***
बहन
बहनों
के बहाने छला गया हूँ
 
कोई
बात नहीं
बहन
का प्रेम पत्र कैसा होता
होती
तो!
कितने
लड़के मरते उस पर!!
प्यारी
थी बहुत
दुऩिया
से ज्यादा
पृथ्वी
पर तीन माह रुकी
मुझे
छोड़ गई
 
निपट
अकेला
 
बनावटी
बहनें धोखा दे रही हैं
इतिहास
सूखे का बना रहा है
खोखा
लेकर कहाँ फेंकूँ
चाँद
देख रहा है
हवा
में

प्यार है
जीवन
में धार है
पेंड
के पौधे की तरह जन्मी
और
दुख से टूट गई
वह
आँखों से खपरैल

घर देखती रही
ढेंकी
जाँता सिलवट -लोढा रेहट कूड़ी
लाठी
खूरपी कूदाल बैल हेंगा हल
 
गाय
का दूध भैस का पाड़ा -पाडी़
दादी
की किवाड़ी
वह
धीरे धीरे ओझल होती गई-
आजतक! 
और
जिंदा बने रहने की ताकत
 
मेरे
अन्दर बनाती गई.
वह
दुलारी थी बाबा की
और
न्यारी थी
होती
तो
सबकुछ होता
 
बची
नहीं
जिससे
कुछ होता
 
बहन!
वह
दुनिया नहीं रही
जिस
दुनिया में तू आई गई ..
***
१८
हजार साल की बात
 
वह
पृथ्वी की कोख से निकली
और
फैल गई
 
खेतों
में बगानों में चाँदनी रातों में
 
वह
फैलती गई और इतनी फैली की सारे लोगों के आँसू से
 
पौधे
पटते गए खिलते गए फूल
वह
सुगंध लौंग इलाइची तेजपत्तों और थोड़ी कस्तूरी की तरह
 
यह
खेल नहीं था
 
बेल
की गंध सा सराबोर था
और
इतना तीव्र गंध की
 
भूख
मर गई
जैसे
बंजारे खेत में उसकी हँसी
कई
बेहोश हुए
कई
बीमार
कई
गिरी सरकार
कई
ने भिड़ाई तलवार
वह
जंग जितती गई
पर
क्या कहूँ पास जाने पर हल्का हो जा रहा हूँ
दूर
रहने पर आँखें भारी
यह
समय
 
यह
काल
यह
पल
यह
क्षण
 
सब
मिलकर रो क्यों रहें हैं
यह
गलत बात है
उसे
खुश रहने दो शहजादी की तरह
जिसकी
पल्लू में अतिरिक्त सलवटें किसी ने देखी नहीं
 
मैंने
गुस्सा नहीं किया
नहीं
दिखाया प्रेम
 
वह
न जाने कब आ गई
मेरे
अन्दर वह भी एक
 
पुरुष
के माध्यम से
जिसने
प्यार से बिछा दी थी
चटाई 
अब
उसे सोने दो चैन से
उधार
की नींद नहीं चाहिए उसे
वह
आथाह गहरे सागर में जा समाई है
 
कोई
तिनका का दबाब न दे
उसे
हमें
इंतजार है लौट आने की
 
जहाँ
गौरैया गीत गायेगी
 
कबूतर
फर्र फर्र उड़ेगें
बंदर
कूदेगे धड़ाम
लो
! वो बोलीं
 
शीतांश
शीतांश..
***
मेका
चढ़ो
और चढो़
 
उड़
जाओ आसमान में
 
यह
शोभनीय है चाँद सितारों-सा
वैज्ञानिक
एक दिन खोज करेंगे इस अदा पर
कैसे
चढ़े पेड़ के शाखा पर
एक
दिन उत्तर भारत की बकरियाँ सोचेंगी कि
हम
भी पैदा हुए थे भारत में
 
भारत
में आग लगी हुई है
यह
पेड़ यह मेका यह आसमान यह दृश्य कैसे बच गया तिरुपति के रास्ते
 
खगोलवेत्ता
निहारेगे
एक
साथ भारत में कई तस्वीरें बदल रहीं हैं
एक
साथ कई नारे लग रहें हैं
एक
साथ कई हत्याएँ हो रही हैं
एक
साथ बच जा रहें हैं हम
 
समय
का संगत करते हुए
 
हमने
कई कई क्षेत्रों में कई कई बार सोचा कि
दुनिया
बदल रही है
राजनीति
बदल रही है
सोच
बदल रही है
 
यह
मेका क्यों नहीं बदल रहें हैं
 
क्या
एक दिन इनकी भी हत्या होगी
क्या
यह भी घास के शौकीन हो जाऐगे
हमने
सोचना छोड़ दिया है .
हम
देश प्रेमी है
देश
पर सोचेगे
मेका
पर माथा कौन खपायेगा
?
पेड़
पर चढ़े
या
घास खायें !
दुनिया
बदल रही है जरुर
दुनिया
बच रही है
 
मेका
से….
***
लोटा
धुँए
से कुचला हुआ
 
आदमी
उठ नहीं पाता
हवा
की मार से
 
कराह
उठता है आदमी
आग
का जलना ही काफी है
प्रेम
की लगन
दरद
देती बेहोश हो उठता है आदमी
देश
का मारा कहाँ जाएगा
मिट्टी
की कोख बहुत प्यारी होती है
हर
तरह के रंग मिलते हैं वहाँ
सवाल
है कोई भूखा कैसे रह सकता है
शरीर
और पेट से
मेरे
जैसा व्यक्ति कब्र से उठ आएगा
और
माँ से लोटा का लोटा माँगकर
भर
पेट
जल 
ढकेल
जाएगा
मेरा
समय मुझमें अट रहा है
मन
डंट रहा है….
***
शुद्धता
की खोज में
 
आना
जाना लगा रहता है
  
जाना
आना भी
मनुष्यता
का खोल उतार दी है
सबने
मानवता
का चोल फेक दिया है
सबने
हमने
इक इंच पवित्र मिट्टी खोजा पटना में
 
नहीं
मिला
कहा
सबने
सबने
सामूहिक गान की
खाई
कसम
 
सबने
कुछ
कवि के जो पैर पड़े थे जहाँ जहाँ
 
वहाँ
शुद्धता बची थी
 
यह
बात गिलहरी के पँजों को देखकर पता चला
आना
जाना लगा रहता
 
आरा-पटना
पटना-
आरा
 
दोस्तो
!
हाथ
बढ़ाओ …
***
अग्नि
पुराण
जंगल
की आग
 
अग्नि
पुराण से ज्यादा पुराण है
 
आग
ही नहीं होती तो अग्नि पुराण कहाँ होता

कोई बिल्डिंग या मकान होता
 
मार्कण्डेय
पुराण बाचते है तो हवन में अग्नि होती है
श्रीमद्
भागवत पुराण नहीं होता
 
समस्त
देवताओं के काल से निकलकर बाराह पुराण कविता मे नहीं रची जा सकती
 
पत्थरों
पर पुराण लिख दिया जाए
पत्थर
की टकराहट ही पुराण की अग्नि है
 
नेट
लहक दहक जाए
नेट
के गुगल सर्च पर पुराण

मिल सकतें हैं 
अंतत:
पुराण को नेट मे आग लगने से कौन रोक सकता है
भले
वो सईबर क्राईम मे तब्दिल हो केस
पुराण
पुराना जरुर है
अग्नि
से पुरान नहीं है
पुराण
….
***
चोंप 
पारिस्थितिकी
संतुलन के लिए हर घर मे
 
एक
बागीचा चाहिए
पेडो़ं
में फल हो
 
छोटे
पौधों मे फूल
 
रोज़
नई घटना की तरह
 
बना
रहे सुंदर पर्यावरण
जंगल
की तरह घेरे में पक्षियों के कलरव
 
घोड़ों
का टॉप सुनाई दे
ठक
ठक ठक ठक
शुद्ध
हवा में
 
कोई
माउस लैपटॉप न हो और मोबाईल
बस
संवाद
हो निश्चल हँसी के साथ भरपूर
आम
का पेड़

खूब हो 
जिस
पर बैठकर ठोर से मारे मनभोग आम पर
 
एक
दिन गिरे तो चोंप कम हो
 
धोकर
खा जाँए सही सही
 
मुँह
में चोंप का दाग हो कोई बात नहीं
 
हर
भारतीय को नसीब कहाँ
 
बाल्टी
में भरकर खा लें भरपेट आम
कुत्ता
बेचारा खा नहीं सकता देखता है कातर नज़र से
बच्चे
हुं हां करते ओ ओ ओ
 

आ आ आ आ
दौड़ते
भागतें भैंस गाय के साथ चिलचिलाती धूप में
 
माँए
गाली देती
 
अरे
अरे ! खा ले खा ले लू लग जइहें
 
महुआ
को पसारती
 
सुखाती
भांड़ी में रख आई
नयका
चाउर के भात का माड़ कुत्ता खाता
 
चपर
चपर चपर
 
चमकती
बिजली की तरह टाल का खेत
कौंधती
धमकती आँच लहकती सी देह
 
तप्त
पसीने से सराबोर
 
पेंड़
की छाँव हीं काम आया
 
गमछी
बिछाकर ..
दू
बात सबसे करके
 
सानी
पानी गोबर डांगर सब निफिकीर
 
पीते
हुए पनामा सिगरेट
जो
पनामा नहर को याद दिलाती है किसानो को
 
कल
पेड़ और खेत के गीत गाए जाऐगें
रोपे
जाऐगे फ़सल
 
रात
भर भरे जाऐगें
 
खेत
….
***
पांगना
गाछ
कल ही लगाया था
समुद्र
में नहीं
 
नदी
में नहीं
तालाब
में नहीं
 
पोखर
में नहीं
बस
यूँ ही लगा दिया था
मनुष्य
के लिए
कब
गांछ ने पृथ्वी के सहारे कंठ गिला कर लिया
 
पूरी
दुनिया को पता नहीं चला
उस
जानवर को पता चला जब सुकोमल पौधे को खा गया
समन्दर
से
 
नदी
से
 
पोखर
से
 
तालाब
से
आकर 
खाकर
कब डकार गया
पता
नहीं चला
मनुष्य 
जानवर
से छोटा हो गया है
 
मनुष्य
खून और उत्तेजना से लैस रहना चाहता है
यह
सब देख सून
 
एक
बच्चा हँस रहा है

(समन्दर के यात्रियों के लिए )
***
खण्डहर
रात
में रंगरेज रंग रहा है कपड़ा
रौशनी
है
रौशनी
का पीलापन कौन रंग रहा है रंगरेज
कमरे
में अचानक अँधेरा
 
अँधेरा
कौन रंग रहा रंगरेज
आवाज
जोर से निकली
 
बचा
लो कबीर!
मुँह
से थूक निकल आया
थूक
का रंग किसने कब रंगा रंगरेज
मेज
पर फूल और फल देख रहा हूँ
फूल
और फल को किसने रंगा रंगरेज ….
***
कवि-
परिचय
अरुण
शीतांश
जन्म  ०२.११.१९७२अरवल जिला के विष्णुपुरा गाँव में 
शिक्षा
-एम ए ( भूगोल व हिन्दी)एम. लिब. साईंस
, एल एल बी पीएच-डी 
कविता
संग्रह
  
1
) एक ऐसी दुनिया की तलाश में (वाणी प्रकाशन
दिल्ली)
2
हर मिनट एक घटना है (बोधि प्रकाशन जयपुर)
3 )
पत्थरबाज़  शीघ्र प्रकाश्य
आलोचना
1)  शब्द साक्षी हैं (यश पब्लिकेशन दिल्ली)
संपादन
1)
पंचदीप (बोधि प्रकाशन )
2)
युवा कविता का जनतंत्र (साहित्य संस्थान
गाजियाबाद )
3)
बादल का वस्त्र (प्रगति प्रकाशन, सोनपत)
4)
विकल्प है कविता (प्रगति प्रकाशन,
सोनपत)
सम्मान

* शिवपूजन सहाय सम्मान 

* युवा शिखर साहित्य सम्मान

पत्रिका

*देशज नामक पत्रिका का संपादन 
संप्रति 
शिक्षण
संस्थान में कार्यरत
संपर्क
:
मणि भवन,
संकट मोचन नगर, आरा भोजपुर, ८०२३०१
मो ०९४३१६८५५८९

0 thoughts on “अरुण शीतांश की कविताएं”

  1. बाबूजी और साइकिल शीर्षक कविताएँ संवेदना के स्तर पर काफी प्रभावित करती हैं। कवि अनुभूतियों के आकाश में निरंतर विचरते हुए भाषिक व भाव संरचना के विखराव के खतरे उठाता है। कवि को बधाई !

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top