अनुनाद

तापस शुक्ल की दो कविताएं

कविता में जब नई आवाज़ें शामिल होती हैं तो यह उन आवाज़ाें के औपचारिक स्वागत से ज़्यादा कविता के मौजूदा स्वरूप को खंगालने का मौका होता है। अर्जित या उधारी के मुहावरों के बीच स्थापित चेहरों के बरअक्स एक मौलिक अनगढ़ता की चमक अचानक मिल जाती है, फिर उस चमक के पीछे की रोशनी दिखाई देती है, जिसे प्रेरणा कह सकते हैं। पता नहीं इस पर कितना काम गंभीरता से किया गया है पर हमें सोचना चाहिए कि कविता में कवि की उम्र कितना बोलती है, कितना उसे बोलना चाहिए? 
 
तापस शुक्ल हिंदी के चर्चित रंगमंडल रूपवाणी के सक्रिय सदस्य हैं। रंगकर्मी के रूप में उनकी पहचान बन रही है। हिंदी कविता परम्परा की कुछ बड़ी कविताओं के मंचन उन्होंने जिए हैं। उनकी दो कविताएं कई दिनों से मेरे पास हैं, जिन्हें मैंने बार-बार पढ़ा है और सोचा है कि यह नौउम्र रंगकर्मी-कवि अपने समय की कविता में कितना ख़लल और दख़ल संभव कर रहा है। प्रतिक्रियाओं के लिए ये कविताएं पाठकों को सौंप रहा हूं। 
 
आज तापस का जन्मदिन भी है, उन्हें ख़ूब मुबारकबाद और अनुनाद पर उनका स्वागत। 
 
मौत 
रोने की आवाज़ भर गयी है कमरे
में ज़रा खिड़कियाँ खोल दो !
किसी से उम्मीद मत रखो
ज़्यादा
 
हड्डियों को कंपकपाने का मौका
तो दो
 
नही तो ध्वस्त हो जायेंगी वे 
अपनी त्वचा को कर दो किसी और
के हवाले
अपनी आँखों को बंद कर लो
हमेशा के लिए
 
अपने कानों को अब मत लगाओ
दीवारों पर
अपना बोलना थोड़ा कम कर दो 
ज़्यादा सोचो भी मत , सपने देखना तो एकदम बन्द कर दो
, हँसना तो एक रोग है एक नशा है इसे भी छोड़ना है दोस्त.
 प्रेम
करना छोड़ दो ! हाथ जोड़ कर विनती है प्रेम करना छोड़ दो ! वो कौन है उससे कहो कि वो
तुम्हें छोड़ दे !
 
यक़ीन करो मेरा तुमको मौत
अच्छी आएगी !
डायरी 
अजीब क़िस्म की दिखने वाली
डायरियां और कॉपियां पढ़ने को आकर्षित करती है ।

बिना पूछे किसी डायरी को  चुपके से पढ़ना
अपराध है
, फिर भी ख़ुद को रोकना मुश्किल हो जाता है
आलमारी में दबी डायरियाँ ढूढ़ने पर मिलती नहीं
और अचानक किसी घर वाले के हाथ लग जाती हैं
डायरी में लिखित जो कुछ होता है वो सोखता है मन
हीरे की तरह चमकने वाली आंखें उस वक़्त पत्थर में तब्दील हो जाती है
.

डायरी जो कई हिस्सों में अलग-अलग जगहों पर है
मैं किसी भी डायरी में कहीं भी नहीं लिखा जा रहा हूँ .
फट्टे पन्नों की ख़ुशबू तैरती है लंबी अवधि तक .
सुंदर लिखा-जोखा जो है
उसपे ढाई अक्षर के शब्द बार-बार भटकते रहते हैं.
1995 की शाम अधजगी आंखें न जाने कहाँ और न जाने किसको ढूंढ रहीं।
डायरियाँ सोचती हैं की कब दोबारा उनका इस्तेमाल होगा ।

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