एक कविता जो पहले ही से ख़राब थी
होती जा रही है अब और ख़राब
कोई इंसानी कोशिश सुधार नहीं सकती
मेहनत से और बिगाड़ होता है पैदा
वह संगीन से संगीनतर होती जाती स्थायी दुर्घटना है
सारी रचनाओं को उसकी बगल से
लंबा चक्कर काट कर गुज़रना पड़ता है
मैं क्या करूं उस शिथिल
सीसे सी भारी काया का
जिसके आगे प्रकाशित कवितायेँ महज़ तितलियाँ हैं
और समालोचना राख
मनुष्यों में वह सिर्फ़ मुझे पहचानती है
और मैं भी मनुष्य जब तक हूँ तब तक हूँ !
होती जा रही है अब और ख़राब
कोई इंसानी कोशिश सुधार नहीं सकती
मेहनत से और बिगाड़ होता है पैदा
वह संगीन से संगीनतर होती जाती स्थायी दुर्घटना है
सारी रचनाओं को उसकी बगल से
लंबा चक्कर काट कर गुज़रना पड़ता है
मैं क्या करूं उस शिथिल
सीसे सी भारी काया का
जिसके आगे प्रकाशित कवितायेँ महज़ तितलियाँ हैं
और समालोचना राख
मनुष्यों में वह सिर्फ़ मुझे पहचानती है
और मैं भी मनुष्य जब तक हूँ तब तक हूँ !
असद जी की यह कविता उनकी नई कविता पुस्तक “सामान की तलाश” से साभार………
परिकल्पना प्रकाशन
डी – 68 , निराला नगर,
Lucknow -6
असद जी कविता पेश करने का आभार..अच्छा लगा पढ़कर.
बहुत अच्छी कविता है. आपके ब्लॉग में कई बेहतरीन कविताएं हैं बंधु. ग्रेट.
बहुत ही सुन्दर कविता है। पढ़कर बहुत अच्छा लगा
क्या बात है भाई. बहुत उम्दा. शुक्रिया इस रचना को हम तक पहुंचाने का.
Bhai,
Please visit http://www.pratilipi.in, a bilingual, bimonthly edited by me and a friend.
giriraj