मैं व्याख्या करता हूँ ये मेरे हाथ हैं
इन हाथों की
मैं नहीं जानता कहाँ से आती है आवाज़
कुछ चीज़ें चींटियों की तरह चल कर आती हैं
हाथ इंतजार में थक जाते हैं
कुछ चीज़ें तेज़ी से उड़ती हुयी ऊपर से गुज़र जाती हैं
हाथ देखते रह जाते हैं
मैंने देख कर सारी रफ्तारॅ देख ली है ज़माने की रफ्तार
मैं व्याख्या करता हूँ ये मेरी आँखे हैं
इन आंखों की
ये आँखे सब कुछ देखने को तैयार हैं
देखिये ये आँखे देख रही हैं – समय का चक्का घूम रहा है
मैं नहीं जानता कहाँ से आती है आवाज़
मैं व्याख्या करता हूँ देखिये ये मेरा गला है
मैं यहाँ से बोलना चाहता हूँ
पर यह गला बहुत डरता है अपने ही हाथों से !
इन हाथों की
मैं नहीं जानता कहाँ से आती है आवाज़
कुछ चीज़ें चींटियों की तरह चल कर आती हैं
हाथ इंतजार में थक जाते हैं
कुछ चीज़ें तेज़ी से उड़ती हुयी ऊपर से गुज़र जाती हैं
हाथ देखते रह जाते हैं
मैंने देख कर सारी रफ्तारॅ देख ली है ज़माने की रफ्तार
मैं व्याख्या करता हूँ ये मेरी आँखे हैं
इन आंखों की
ये आँखे सब कुछ देखने को तैयार हैं
देखिये ये आँखे देख रही हैं – समय का चक्का घूम रहा है
मैं नहीं जानता कहाँ से आती है आवाज़
मैं व्याख्या करता हूँ देखिये ये मेरा गला है
मैं यहाँ से बोलना चाहता हूँ
पर यह गला बहुत डरता है अपने ही हाथों से !
” बहनें तथा अन्य कवितायेँ ” से
यह गला बहुत डरता है अपने ही हाथों से ! अच्छी कविता ।
शिरीष – आराम से पढने पर यह कविता कल्पना को बड़े अलग अलग सिरों से एक साथ खोलती है, डर को भी और लाचारी को भी, द्रोह को और तकलीफ़ को – एक सवाल – क्या ये कविता किसी और दिवंगत कवि के ऊपर भी तो नहीं लिखी गई है ? – खासकर “आवाज़” से परेशान ?] – मनीष
मनीष जी आपने कविता को खूब समझा है !