प्रदीपचन्द्र पांडे की ये बड़ी अर्थच्छवियों से घिरी छोटी-छोटी कविताएं एक 56 पृष्ठीय पतले-दुबले संकलन के रूप में मुझे एक पारिवारिक मित्र और प्रदीप की रिश्तेदार श्रीमती गीता पांडे ने पढ़ने के लिए दीं।
इस संकलन को 1994 में मध्यप्रदेश साहित्य परिषद, भोपाल के सहयोग छापा गया और इसकी संक्षिप्त-सी भूमिका हमारे समय के सुपरिचित लेखक श्री लीलाधर मंडलोई ने लिखी है।
इन कविताओं से गुज़रते हुए मुझे लगा यह कवि सम्भावनाओं की सभी कसौटियों पर बिलकुल खरा उतरता है। लेकिन यह जानना भी उतना ही दुखद है कि इतनी बड़ी सम्भावनाओं वाला ये कवि अब कभी कुछ नहीं लिखेगा। कोई दस बरस पहले म0प्र0 के छतरपुर शहर में उनका देहांत हो गया।
मां की नींद
बंदूक की गोली से भी
ऊंची भरी उड़ान
पक्षी ने
देर तक
उड़ता रहा आसमान में
सुनता रहा बादलों को
देखता रहा
चमकती बिजलियां
उस समय
घूम रही थी पृथ्वी
घूम रहा था समय
ठीक उसी समय टूटी
बूढ़ी मां की नींद
क्यों टूटी
बूढ़ी मां की नींद?
उसका हरापन
सूखी लकड़ी
दिन-रात
पड़ी रही पानी में
फिर भी
हरी नहीं हुई
गल गई
धीरे-धीरे
पानी के ऊपर
तैरने लगा
उसका हरापन !
सोलहवीं मोमबत्ती
सोलहवीं मोमबत्ती
के होते हैं
पंख
वह फूंकने से बुझती नहीं
उड़ने लगती है
जहां-जहां टपकती हैं
उसकी बूंदें
वहां कुछ जलता नहीं
सिंकता-सा है
और सुरक्षित रहता है
सब कुछ
बूंद के नीचे !
उसकी आंखों में
काली लड़की के पास
काला कुछ नहीं
वह करती है
रंगों से बहुत प्यार
बर्दाश्त नहीं कर पाती लेकिन
आकाश का
ज्यादा नीला होना
पृथ्वी का ज्यादा हरा होना
बादलों का ज्यादा काला होना
उसके कैनवास में हैं
नपे-तुले रंग
रंगों के संतुलन पर उसकी आंखों में
टिका है इंद्रधनुष !
behad sunder
सुंदर अभिव्यक्ति…पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.
बहुत बढिया कवितायें, खासकर तीसरी(यह मैं केवल अपनी पसंद की बात कर रहा हूं) बहुत दिन हुए अब कोई अपनी कविता लगाओ शिरीष!