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‘तुम झूटे ओ’
यही कह रही बार-बार प्लेटफारम की वह बावली
‘शुद्ध पेयजल’ के नलके से एक अदॄश्य बर्तन में पानी भरते हुए.
घंटे भर से टोंटी को छोड़ा नहीं है उसने
क्या वह सचमुच मुझसे कह रही थी
या सचमुच लगातार बहते हुए उस नल से?
‘शोषिता और व्याभिचारिता’
जैसे मैल की एक परत लिपी हुई है
उसके वजूद पर.
वह भी पैदा हुई थी एक स्त्री के पेट से
उसका भी घर होना था
अभी तो अपना कण्टर बजाता
शकल से ही मुश्टण्ड
एक दूध वाला
जा रहा है उसकी तरफ़
चेहरे पर शराब भरी फुसलाहट लिए.
***
मक्खियां उड़ रहीं
अंतिम फ़रवरी की धूप में
चारबाग़ लखनऊ के प्लेटफ़ार्म नं. सात पर बेशुमार मक्खियां
हवा में अभिनीत होते एक विलक्षण समूह नृत्य में तल्लीन.
सर्दियों ने बहुत सताया उन्हें
उनके अल्पपारदर्शी डैनों की सूक्ष्म तंत्रिकाओं में
निस्तब्ध जमी रही ठण्ढ
अब जाकर आया है उनकी मुक्ति का अस्थाई पर्व
और उनका भी
जो महीनों बाद बिना गले-ठिठुरे
अपने से दूने आकार के रासायनिक टाट के
सफ़ेद थैले लेकर
लाइनों के बीच के मल और पार की हरी दूब को लांघते हुए
बटोर रहे कांच-प्लास्टिक की ख़ाली बोतलें
थैलियां-गत्ते- काग़ज़ और पन्नियां.
मक्खियों के साथ इन आबाल-वृद्ध नर-नारियों का
एक अत्यन्त घनिष्ठ किंवा रहस्यपूर्ण रिश्ता है
जो दरअसल रहस्य नहीं भी है.
***
प्लेटफ़ार्म नं. सात है यह, उत्तर रेलवे की सारी उपेक्षित
रेलगाड़ियों का कटरा
एक आत्मीय हिकारत के साथ ‘गदहा लाइन’
नाम दिया है इसे
कुलियों, रेल के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों
और चारबाग़ के उचक्के एवम निरीह
दोनों प्रकार के स्थाई नागरिकों ने.
किंतु रहो हे!
रसज्ञों के हृदय को विचलित कर देने वाली
यह घिसी-पिटी घृणास्पद दृश्यावली अवांछित है
जबकि उतरा है सुमधुर वसन्त
अवध की बच रही घनी अमराइयों में
और दशहरी की सद्यःप्रस्फुटित
आम्रमंजरियों की सुगंध में
घोली जा रहीं
मादक, तीव्रगंधा आधुनिकतम कीटनाशी दवाएं
कृषि साधन सहकारी समिति से
कर्ज़ में लेकर
सो रहो-रहो अवधेश्वरी कण्टर बजने दो!
वसन्त यदि समग्र है
तो ये पुष्पवल्लिकाएं उन
कीट-फतंगों के लिए भी
जिनके नाम केवल नकलची वनस्पतिशास्त्रियों को पता हैं
अथवा उनके देशज संस्करण
अध्यवसायी भूमिहीन कृषि कार्यकर्ताओं को
थोड़ा उन वानर यूथों के लिए भी यह वसन्त
जिन्होंने काफ़ी तंग किया
नागरजनों को कटु हेमन्त में
जब किंचित आहार भी एक असीम अनुकम्पा था
जहां से भी वह मिले उस की.
और नरम गन्ने, पके कदलीफलगुच्छ, अथवा अनान्नास का
रसपान करने को आतुर
हाथियों के उन गठे हुए समूहों के लिए भी यह,
जिन में से एकाध को खेद लिया जाना था
बांस की कोंपलों से ढंके उस गहरे खड्ड में
झिलमिलाती लालटेनों और ब्रह्मपुत्र जैसे विस्तीर्ण-लहराते भटियाली गान गाते
अंधेरे में खेदा लगाने वालों के करुण कंठ-स्वरों की पृष्ठभूमि में:
‘ये कहां भेज दिया तूने, हे मांss’
सदा ही अपने तर्कों के प्रतिकूल जाता है यह वसन्त
यही उसका जटिल सौन्दर्य है
वह सदा हमें समूह से विलग करने वाले
फ़रेब लालच और पराजयों के कातर
आर्तनाद से सचेत करता है
और कुछ उधर ही को धकेलता भी है.
***
प्लेटफ़ार्म नं. सात है यह
उत्तर रेलवे की सारी उपेक्षित रेलगाड़ियों का कटरा
मेलें, राजधानियां, शताब्दियां चूमती हुई जा रहीं
नवाबों की सरज़मीन लखनऊ की
बुर्जियों मीनारों महापुरुष प्रतिमाओं और
अहर्निश विलास निद्रा में डूबे उन महापुरुषों को भी
जिनमें कोई वाणी का जादूगर कानून का महारथी
कोई चापलूसों का सिकन्दर
जीवनी लेखक
कोई आंकड़ों का उस्ताद
भू-माफ़िया ड्रग-तस्कर भूतपर्व बन्दूकबाज़
किसी ने जीवन ही समर्पित कर दिया कथक के लिए
तो कोई अक्षत यौवना किशोरियों और उम्दा ज़र्दा-पानमसाला का शौकीन
कोई क़्त्लो-ग़ारत में ऐसा निष्णात
कि अपनी भंगेड़ी मुस्कराहट के साथ
कुच देते-बांटते भी
आहिस्ता से जानें ले लेता है.
अंधेरा नहीं है
कोई जुलूस भी नहीं
एक विशालकाय स्टेडियम है मधुमास भरा
और सुसज्जित दर्शकदीर्घा में बैठे
प्रतिस्पर्धी खिलाड़ी मुदित भाव से देख रहे
मैदान में लठ्ठम-लठ्ठा होती
कंगलों की टोलियों को
‘शायर हो मत चुपके रहो
इस चुप में जानें जाती हैं’ कहते थे उस्ताद
मीर तक़ी मीर
सो चारबाग़ स्टेशन की गदहा लाइन पर
मन ही मन यही दोहराते
मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं
बरेली मुग़लसराय पसिंजर की
जो अनिश्चितकालीन विलम्ब से है।
***
पेप्पोर रद्दी पेप्पोर
पहर अभी बीता ही है
पर चौंधा मार रही है धूप
खड़े खड़े कुम्हला रहे हैं सजीले अशोक के पेड़
उरूज पर आ पहुंचा है बैसाख
सुन पड़ती है सड़क से
किसी बच्चा कबाड़ी की संगीतमय पुकार
गोया एक फ़रियाद है अज़ान सी
एक फ़रियाद है एक फ़रियाद
कुछ थोड़ा और भरती मुझे
अवसाद और अकेलेपन से
***
चारबाग़ का ज़िक्र देखकर रुक गई। वैसे प्लेटफॉर्म नंबर सात को गदहा लाइन कहा जाता है, मैंने नहीं सुना।
कल ही एक प्लेटफार्म की सुदर तस्वीरें देखने को मिली। आज उससे उऊट खबर पढ़ने को मिली।
बरेली मुग़लसराय पसिंजर की
जो अनिश्चितकालीन विलम्ब से है.
भारतीय ट्रेनों की ये स्थायी स्थिति है।
सदा ही अपने तर्कों के प्रतिकूल जाता है यह वसन्त
यही उसका जटिल सौन्दर्य है================
बहुत गहरी…प्रभावशाली प्रस्तुति.
कलम की खामोशी में बेचैनी की
धुन छेड़ती……
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lambi kavitaen likh rahe hain aajkal. shandaar kavi, shandaar manushy