____________________________________________________________________
काम पर जाती घरेलू औरतें
अपने बच्चों को दुनिया में उतार आयी हैं
वह दुनिया जिस पर वे भरोसा करना जानती हैं
घर से निकलती हैं रोज़ सुबह फोन पर
सखियों को बुलाकर
इकट्ठे ही चढ़ेंगी 9:32 की लोकल में
उनके हाथों में फाइलें नहीं
अपनी-अपनी परेशानियां और उन पर सबकी साझा राय होती है
उनके साथ अकसर होतीं हैं टिफिन बॉक्स के अलावा कुछ डिब्बियां भी
जिनमें हल्दी कुमकुम और शगुन की चीज़ें होती हैं
बांटती हैं अखंड सुहाग, संतति और शुभ की कामना घर से दफ्तर के बीच लोकल ट्रेन में
दफ्तर में भी वही धुन चलती रहती है
बॉस और फाइलों के बीचोंबीच
वे फिल्मों के किस्से और पतियों की बातें करती हैं
अंताक्षरी खेलती,गाती हुई घर लौट जाती हैं पिसकर अपनी दुनिया में पिसने
पिस पिस कर और भी महीन हुआ जाता है उनका धीर
ऐसे ही उनका होना संसार में घुल जाने को तैयार होता है
वे खतरनाक जंगलों से एक साथ गुज़रती हैं
मशाल उठाए
अपनी देह से ढक देती हैं दूसरों की लाज
बिना जाने उसका कुनबा
नाचती रहती हैं सुरसा के मुंह में
पीड़ाओं के बीच उनका होना अनवरत उत्सव है
साझा साझा होने का
वे कबीर की बेटियां हैं
वे सूफियों की सन्तानें हैं
जो अपना संसार उठाए पुरुषों की दुनिया में
आ जाती हैं
वे मुहम्मद का पैग़ाम हैं
जो जेहादियों को जेहाद का मतलब बता रही हैं !
मुझे भरोसा है
मैं प्रक्षिप्त शब्द !
मृत्यु के नाचते पैरों के बीच
अन्त का मुकम्मल अन्त
कलम से पूछता हूं
एक पन्ना कहीं उड़ कर पूरी दुनिया छाप लाता है
और उसमें दुनिया भर की क़ब्रें होती हैं
मुझे नहीं चाहिए ये क़ब्रें ये नक्शे
क्योंकि अभी भी दुनिया को हाथों की ज़रूरत है
पहचान को ज़बान की ज़रूरत है
हवस के चेहरों पर फलसफों के मुखौटे
ध्वस्त मुंडेरों पर नाचने वाले
अपने ही गिद्धों से परेशान होते हैं
और
चुप कर दिए गए लोग
बस देखते रहते हैं
उनके सन्नाटों में कोई चीखता है
पुकारता है
उनकी व्यस्तताओं के बीच
मुझे भरोसा है उसी बस्ती का
जहां लोग बोलना भूल गए हैं !
जिन्न
जरूरत नहीं है
फिर भी मुझे चाहिए
मैं हिस्सा हूं हवस का
कुरेदा तो निकला
मेरी तहों से
जिन्न
आकाश में दौड़ता हूं
सड़कों पर तैरता हूं
जड़ नहीं शाखा नहीं
किसी आकाशीय तल पर रहता हूं
वहीं से मारता हूं गोता
और निकाल लाता हूं कल्पना भर सामान
नए असन्तोष
मुझे सपनों में कोई गांव नहीं पुकारता
नहीं दुलारते हैं पूर्वज
दंतकथाओं का कोई सिरा नहीं जुड़ा है मेरे पोर से
अणु परमाणु अस्तित्व का
मेरे चंद ही हैं सरोकार
मैं क्लोन हूं
नई सोच का
फायदे का गणित सीखता
सेंसेक्स की सीढ़ियों पर ही सोता हूं
गर्भाशय बदलता हूं जब चाहे
ठेल कर तुम्हारी कायनात
अपनी सृष्टि खड़ी कर रहा
नींद में चलता
सपने में बड़बड़ाता
मैं आदमी हूं नई सदी का !
___________________________________________________________________
पुनश्च : ये पोस्ट लिखे जाने तक तुषार का शहर अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमले का शिकार हो चुका है और तुषार ने बताया कि वो किसी तरह बच- बचा कर घर वापस आया है ! हालाँकि फ़ोन पर आशल – कुशल मिल चुकी है, तब भी मैं उसके लिए चिंतित हूँ।
ये पोस्ट ऐसी सभी मानवद्रोही गतिविधियों का विरोध करती है !
_____________________________________________________________
गुज़रे मालेगांव से लेकर आज की मुम्बई तक के सभी गुनहगारों को धिक्कार ! तुषार जी की कविताएं खुद व्यक्त कर पाने में समर्थ लगीं पर उन पर क्या कहूं अभी तो मुम्बई हावी है!
धन्यवाद पढ़वाने के लिए। बस यही कहूंगा – अभी भी दुनिया को हाथों की जरूरत है।
पढकर तो तुरंत ही तुषार जी से बात करने का मन है। पर नम्बर नही मिल रहा है। वो कुशल से है ये पता होते हुए भी मन कर रहा है कि बात करूँ। खैर हम भी उनके लेखन के मुरीद है।
आह!