व्योमेश शुक्ल की यह प्रश्नोत्तरी सापेक्ष के आलोचना महाविशेषांक से – दूसरी तथा अन्तिम किस्त |
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आपकी नज़र में समकालीन लेखन की बुनियादी पहचान क्या हो सकती है?
अगर एक वाक्य में कहना हो तो समकालीन लेखन एक ऐसा लेखन होगा जो अपने वक्त के साथ अपनी भाषा के रिश्तों को अधिकतम सम्भव संिश्लष्टता और गहराई के साथ आभ्यंतरीकृत और अभिव्यक्त कर रहा होगा।
रचना के कथ्य और शिल्प में आप किसे महत्वपूर्ण मानते हैं?
कथ्य और शिल्प में कोई द्वैत देख पाना अव्वल तो मेरे लिए सम्भव नहीं है और यह इतिहास की गति के खिलाफ़ भी होगा। असल में नामावलियाँ और परिभाषाएं बदल दी जानी चाहिए – मसलन मैं कभी – कभी सोचता हूँ कि जिस चीज़ को कथ्य कहने का हमारे यहाँ चलन है उसकी बजाय उस तथाकथित कथ्य के साथ कलाकार के ट्रीटमेंट को अगर कथ्य कहा जाय, और जिसे हम सब शिल्प कहते हैं उसकी जगह पाठक की चेतना पर पड़ रहे असर के मानचित्र को अगर शिल्प कहें तो ज्यादा युक्तिसंगत होगा। लेकिन ऐसा सोचना तो ख़याल ही है।
क्या आप रामचन्द्र शुक्ल को आलोचना के सिद्धान्तों और मूल्यांकन के मानदण्डों का प्रवर्तक मानते हैं?
रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना-पद्धति में अतीत की संस्कृत परंपरा और पाश्चात्य आलोचना सरणियों के अनेक सूत्र मौजूद हैं। उनका हस्तक्षेप अनिवार्य है लेकिन उन्हें प्रवर्तक कहना अतिरंजना होगी।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना-पद्धति क्या प्रासंगिक है?
इस सिलसिले में मुझे समकालीन हिन्दी कविता की एक महत्वपूर्ण एंथोलोजी – `दस बरस´ की भूमिका में लिखी असद ज़ैदी की वह बात याद आती है कि आधुनिक हिन्दी कविता रामचन्द्र शुक्ल के `इतिहास´ को बंद करने के बाद शुरु होती है।
क्या आप मानते हैं कि रामचन्द्र शुक्ल के बाद हिन्दी आलोचना का विकास हुआ है?
रामचन्द्र शुक्ल के बाद हिन्दी आलोचना अनेक आयामों में विकसित हुई है और उसके भीतर परस्पर संघर्षरत अनेक गतियाँ हैं। एक मुकम्मल सूची अगर बनाई जाय तो वह एक व्यापक स्तर सूची होगी। उसमें सैकड़ों लोगों के नाम आएंगे।
अपने समकालीन आलोचकों से आप कितने प्रभावित हैं? किन आलोचकों को आप अपना सहयात्री मानते हैं ?
आलोचना में कई उम्रों के और कई अनुभव-स्तरों के लोग एक साथ सक्रिय हैं। उनमें पर्याप्त वैमिन्य है लेकिन मतभेद विकसित होने की बजाय भुला दिये जाते हैं। इसलिए जिन मुद्दों पर विधिवत विचार हो चुका है, उन्हीं पर फिर से वैसे ही विचार होने लगता है। यह कहना कि आलोचना है ही नहीं , बहुत आसान है, लेकिन एक सार्थक आलोचनात्मक निबन्ध लिख पाना या अच्छे-बुरे के भीषण गड्डमड्ड और समसामयिकता के अंबार में से श्रेष्ठ आलोचना को निकालकर सामने ले आना चैलेंजिंग कार्यभार है। रघुवीर सहाय ने एक जगह पर लिखा है कि जब हम यह कहते हैं कि सब बेईमान हैं तो हमारी यह बात एक ही ईमानदार आदमी के होने से निरस्त हो जाती है। अपनी मृत्यु के तथ्य को पार करते हुए विजयदेव नारायण साही, मलयज और देवीशंकर अवस्थी एक युवा आलोचक के समकालीन हो सकते हैं- विष्णु खरे, अशोक वाजपेयी, मंगलेश डबराल, असद ज़ैदी, मनमोहन का आलोचनात्मक लेखन हमारे सामने है – उसके परिमाण की अल्पता से आप कभी कभी खिन्न् हो सकते हैं लेकिन उसकी गुणवत्ता उसकी रचनात्मकता उसकी अपील अनिवार्य है। बाद के लोगों में पंकज चतुर्वेदी, वीरेन्द्र यादव, विजय कुमार, प्रणय कृष्ण, प्रियम अंकित, आशुतोष कुमार का काम हमेशा ज़रूरी लगता रहा है। इनसे सहमत होना नहीं है( बल्कि इनमें से कई के साथ एक विवादपरक संवाद में भी कुछ दूर तक शामिल हूँ। लेकिन हस्तक्षेप तो अपनी जगह है।
आप प्रगतिशील विचारधारा के साथ सौन्दर्यशील मूल्यों की रचना को ज़रूरी मानते हैं या वैसी रचना को जो प्रगतिशील न भी हो।
प्रगतिशीलता और सौन्दर्यशीलता में एक द्वंद्वात्मक संबंध का ही पक्षधर हुआ जा सकता है। अपने अत्यन्त सीमित अनुभव और अध्यवसाय में मैं यह नहीं समझ पाता कि कोई रचना सुन्दर तो है, लेकिन प्रगतिशील नहीं है, या उसमें प्रगतिशीलता के तत्व तो हैं लेकिन सौन्दर्य नदारद है।
पुरस्कारों का रचनाकारों और आलोचकों पर क्या प्रभाव पड़ता है?
मेरे अग्रज मित्र आलोचक-स्तम्भकार रवीन्द्र त्रिपाठी अक्सर कहते हैं कि पुरस्कृत आलोचना एक संदेहास्पद प्रत्यय है। शायद वह यह कहना चाहते हैं कि कोई जायज़ आलोचना आखिर कैसे साहित्यिक सत्तातंत्र को पसंद आ सकती है? इस धारणा में शक्ति है- और यह आपको सच बोलने की, वह कितना भी विध्वंसक या कटु क्यों न हो, चुनौती देती है। हालाँकि यह भी है कि पुरस्कार-वगैरह एक माहौल बनाने का काम करते हैं और अन्यथा संवादहीन हिन्दी साहित्य संसार इस अवसर पर पुरस्कृत आलोचक और उसके सरोकारों पर चर्चा वगैरह कर लेता है। लेकिन पुरस्करणीय आलोचना या रचना लिखने का दबाव एक लेखक को किस तरह से और इन स्तरों पर प्रभावित करता है यह हमारी जाँच का प्रमुख मुद्दा होना चाहिए । एक पुरस्कृत लेखक किस तरह प्रतिनिधिक हो उठता है – और सफलता को मूल्य मानने वाले विमर्श में ज़रूरी हो जाता है – कैसे वह ज़्यादा धन्य और सार्थक मान लिया जाता है – कैसे कुछ लोग लगातार इन प्रक्रियाओं का नियमन करते रहते हैं, इन सब सवालों को कतई साहित्यिक आलोचना के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता- इनका सामना किये बगैर आलोचना अधुनातन नहीं हो पायेगी।
वर्तमान परिस्थितियों में आलोचक का धर्म क्या है?
वर्तमान परिस्थितियों में आलोचना या आलोचक का धर्म क्या है- इसके पहले यही तय करना होगा कि वर्तमान परिस्थितियाँ क्या हैं। इस सवाल का जवाब ज़ाहिर है कि कई तरीक़ों से दिया जा सकता है। एक जवाब बहुत विस्तृत हो सकता है, दूसरा अत्यन्त क्षिप्र, लेकिन यह तय जानिये कि हम एक असहिष्णु, चंचल और मुग्ध समय में हैं। सरलीकरणों और विस्मरण का बोलबाला है और ज़रूरी चीजे़ं नष्ट कर दी गई हैं या उन्हें आद्यन्त बदल दिया गया है। विचार और स्मृति का निरादर सही समय बताती घड़ी की तरह लगातार है। ताक़त की लालसा और कब्जा कर लेने के षड्यन्त्र लगातार हैं और सभी दृश्य एक जैसे दिखाई दे रहे हैं। वहीं हाशिये पर से आती आवाज़ों का दखल भी बड़ा है और इंसान सम्भव – असंभव तरीक़ों से विरोध कर रहा है। जो लोग विचारधारा (मार्क्सवाद ) के अंत की बात कर रहे थे वे ही राज्य के पैसे से अपने-अपने शेयर बाज़ारों को ज़िंदा करने की कोशिश कर रहे हैं।
विश्व में आज यदि कोई सम्पूर्ण वैज्ञानिक दर्शन है तो मार्क्सवाद। क्यों?
यही वर्तमान परिस्थिति बता रही है कि मार्क्सवाद कितना वैज्ञानिक, इतिहाससिद्ध और अनिवार्य दर्शन है, वह लौटता है और ख़ुद को दुहराता है – कभी त्रासदी की तरह, कभी प्रहसन की तरह। 1990 में वह त्रासदी की तरह विदा हुआ था( आज जब अमेरिका स्थित दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक संस्थाएं दिवालिया हो रही हैं और मंदी की वजह से मरणासन्न अपने अर्थतन्त्र को बचाने के लिए वहाँ की सरकार राजकोष का रुपया बाज़ार में झोंक रही है( इस भागमभाग में शामिल रहे लोगों को एक बेहद करुण लेकिन दिलचस्प प्रहसन का हिस्सा बनाता हुआ मार्क्सवाद लौट रहा है।
लघु पत्रिकाओं की क्या भूमिका है?
रचना और आलोचना में लघु पत्रिकाओं की भूमिका इतनी विराट है कि उसके मूल्यांकन के लिए अनेक शोधग्रन्थ दरकार हैं। पहल के विभिन्न आयोजनों पर ग़ौर कीजिए। इसी तरह तद्भव है। उद्भावना साहित्य की ऑफबीट पत्रिका है। उसने कितने श्रेष्ठ विशेषांक निकाले हैं। युवा कवि गिरिराज किराडू की एक द्विमासिक द्विभाषिक पत्रिका है, प्रतिलिपि – उसके 5 ही अंक आये हैं जो बहुत अच्छे हैं। इस सिलसिले में किसी का भी नाम छोड़ना धृष्टता है। पहल की ही बात करें – यह पत्रिका छोटी पूँजी और बहुत बड़े ख़्वाब, बहुत बड़े बलिदान का प्रतिफल है। एक बिल्कुल भिन्न तरह की, अनुशासित पत्रिका रंग प्रसंग प्रयाग शुक्ल के संपादन में आ रही है। कुछ रद्दी, फूहड़ और महत्वाकांक्षी पत्रिकाएं भी हैं – लेकिन वे अपवाद हैं।
लेखक संगठन एकदूसरे पर आरोप् लगाते रहते हैं। क्या इन संगठनों को साथ-साथ आगे बढ़ाया जा सकता है?
नए साहित्यिक संगठनों की ज़रूरत है। क्योंकि अगर आरोप- प्रत्यारोप ही करना है, तब भी, पक्ष और प्रतिपक्ष पचास साल पुराने कैसे हो सकते हैं? साहित्यिक संगठनों की हस्तक्षेपीय भूमिका से इंकार नहीं है, लेकिन इस बात पर शोध होना चाहिए कि लेखक संगठनों के नियामक खुद कितने लेखक हैं।
नए लोगों के बारे में आपकी क्या राय है?
मैं खुद ही अभी-अभी आया हूं – और ज़्यादातर साहित्यिक मेरे काम से परिचित नहीं हैं जो स्वाभाविक है, इसलिए नए लोगों पर जो भी कहूंगा वे छोटे मुंह बड़ी बात होगी, फिर भी 2000 के लगभग या उसके बाद कविता की दुनिया में आए लोगों ने मुझे सुन्दरचंद ठाकुर, आर चेतनक्रान्ति, शिरीष कुमार मौर्य, गिरिराज किराडू, विशाल श्रीवास्तव, गीत चतुर्वेदी, तुषार धवल और हरेप्रकाश उपाध्याय की कविताएं अच्छी लगती हैं।
साहित्य संगठन कैसे हों? राजनीतिक संगठनों का हस्तक्षेप उनमें किस सीमा तक हो?
दरअसल राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप बंद होना चाहिए – वे अधिकांशत: समझौतापरस्त और यथास्थितिवादी हैं- शायद एक ऐसी सूरत वांछित है जिसमें राजनीति तो हो लेकिन राजनीतिक दल न हों।
पुस्तकों के मूल्य के बारे में आपकी राय। वे पाठक और आम जनता तक कैसे पहुँचाई जा सकती हैं?
मेरा मानना है कि रचनाकार कभी भी लोकप्रिय हो जाने का स्वप्न नहीं देखता, लेकिन पुस्तकों का मूल्य हिन्दी के निम्नतर वर्गं की पहुँच में – जो हिन्दी के लेखक और उसके पाठक का वर्ग है, रहना चाहिए। नहीं तो, यह एक ऐसी विडंबना होगी जिसे संभालना दुश्वार होगा। अभी परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ ने असद ज़ैदी और विष्णु खरे के कविता-संग्रह प्रकाशित किये हैं। उनकी साज-सज्जा हिन्दी के सर्वोत्तम प्रकाशनों से मुकाबला करती है और दाम भी बहुत कम हैंं। इस प्रकाशन समूह की नियामिका हिन्दी की विरल कवि कात्यायनी हैं और यह आयोजन मुख्यत: वैचारिक पहलकदमी है। ऐसे ही वैकल्पिक प्रयत्नों से पुस्तकों का मूल्य हिन्दी पाठक के नियन्त्रण में रखा जा सकता है।
असद ज़ैदी को सही ही उद्धृत किया है। मनमोहन तो आलोचना के क्षेत्र में मुक्तिबोध की फुटकर टिपण्णियों को अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हैं।
…प्रगितशीलता औऱ सौंदर्यशीलता के संबंध में भी ठीक ही कहा गया है। प्रगतिशीलता से मुंह चुराने वाले जिस सुंदर भाषा का जिक्र करते हैं, वह अक्सर सारहीन होने की वजह से किस काम की रह जाती है (कृष्ण बलदेव वैद वगैरह की भाषा)।
vomesh ki aalochna bhi unki kavita jitni hi mahtwpurn hai…unki aalochna men purwacharyon se bahstalab baten aur naveen prasthapnayen hain…yuwa aalochna ko bahut jimmedar aur daitwabodh se prerit hokar unhone badhaya hai…yah saakshatkar is baat ki taaid karne ko paryapt hai ki we kis kadar chaukanne aur pratibaddh hain…
vyomesh ka aalochanaatmak ya vaichaarik gadya unki kavita ki hi tarah vishisht, kalpanasheel aur sarvatha navya hai—-isiliye har baar wah ek sukhad acharaj se bhar deta hai. unka srijan unke vyaktitva ki hi maanind zindaadil, taazadam, jujhaaroo, udaatta aur paardarshi hai. usmein aisi tamaam avismaraneeya, adbhut aur moolyavaan baatein hain, jo use hamaare waqt mein kisi muktikaami ya pragatikaami vimarsh ko aage barhaane ke maqsad se behad aham, praasangik, balki zyaada sach to yah hai ki aparihaarya bana deti hain. bahut kam samay mein vyomesh ne apani rachanaaon ke liye yah anivaaryata arjit kar li hai, jisse mujhe tulsi ki hi pankti yaad aati hai—-gurugriha parhan gaye raghuraayi/ alpakaal vidya sab aayi ! mera yaqeen hai ki wah ram ki hi tarah yashashwi honge ! kripaya is ehsaas ko theth secular maani mein hi tasleem keejiyega ! chalte-chalte fir wahi baat dohra doon ki unke yahaan prastut gadya ke adhikaansh ko aap kavita agar nahin maanenge to kis tark se ?
—pankaj chaturvedi
kanpur