अनुनाद

रात में शहर

दिन की सबसे ज़्यादा हलचल वाली जगहें ही
सबसे ज़्यादा खामोश हैं अब

चौराहे पर अलाव जलाये
पान की दुकान के बन्द होते समय नियम से सुरक्षा शुल्क में
मिलने वाली सिगरेट फूँकते हैं
पुलिस बल के दो महाबली सिपाही

एक गठीला गोरखा भी है वहाँ
जो अकेला ही `जागते रहो´ पुकारता घूमता है
पास ही नेपाल में
राजा की सुलायी सदियों पुरानी नींद से
अकबका कर जाग रही
अपनी शानदार जनता से बेखबर
वह फिलहाल
रानीखेत की सर्द अक्टूबरी रात और उसके जादू में कहीं
पोशीदा घूमते
लुटेरों और सेंधमारों से खबरदार भर करता है

आसमान के सीने पर टिमकते हैं तारे
कभी-कभी
टिमकती हैं यादें उस गोरखे के सीने में भी

गाता है जिसके लिए
वह अपना बेहद पसन्दीदा मगर गूढ़ नेपाली गाना
दूर कहीं वह एक लड़की है बहुत सुन्दर
फूलों वाला रिबन बाँधे
कच्चे दुर्गम पहाड़ी रास्तों से गुज़रती
क्या उस तक भी पहुंचती होंगी ये बेतरतीब
मगर मदमस्त स्वरलहरियाँ
दिन भर की सख़्त मेहनत के बाद बमुश्किल नसीब
अपनी थोड़ी-सी नींद में भी
जो न जाने किस बेचैनी में रह-रहकर
करवटें बदलती है ?

चीड़ों और बाँजों और देवदारों और ढेर सारी
पहाड़ी इमारतों पर पसरे
अंधियारे में
उसका यह अबूझ गान ओस की बूँदों-सा साफ़ चमकता है
और कहीं जुड़ता है मेरी भी आँखों से
जिन्हें मैंने अभी-अभी पोंछा है

यह मेरा ही शहर है
जिसे मैं बहुत कम देख पाता हूँ
मैं नहीं देख पाता वो रस्ते जिनसे रोज़ गुज़रता हूँ
नहीं मिल पाता उनसे
जिनसे मैं रोज़ मिलता हूँ
उस चौराहे को तो मैं सबसे कम जानता हूँ
रहता हूँ ऐन जिसके ऊपर बने
अपने घर में

यह जानना कितना अद्भुत है कि उजाले में छुप जाती हैं
कई सारी चीज़ें
और अंधेरा उन्हें उघाड़ देता है

इस रास्ते पर एक पागल सोया है ऐसी पुरसुकून नींद
जो होश वालों की दुनिया में
किसी को
शायद ही मिलती हो इस क़दर

वह मानो
हर चीज़ से फ़ारिग है
उसके सोये चेहरे पर मैल की कई परतों के नीचे
मुस्कुराता है एक बच्चा
वह नींद में भी अपने हाथ बढ़ाता है
मगर कहीं कोई नहीं है
उसके लिए
माँ की कोई गोद नहीं
और न ही आगोश किसी प्रेयसी का
जो है तो बस यही रस्ता
जिस पर से मैं रोज़ गुज़रता हूँ

उस परिचित को हृदयाघात हुआ था
जिसे मैं
अभी छोड़कर आया अस्पताल तक
यह मालूम होते हुए भी
कि दरअसल इस शहर का सबसे
हृदयहीन आदमी है वह

जानता हूँ
मेरा भी हृदय अब उतना सलामत नहीं रहा
उसमें भी आने लगी हैं खरोंचें
उसके और दिमाग़ के बीच तनी हुई
कई-कई
धमनियों और शिराओं में लगातार जारी है
एक जंग
तभी तो मेरी सूजी हुई कनपटियों के भीतर
किसी गुहा में
कोई रह-रहकर चौंकता हुआ-सा
कहता है –

खोजो !
खोजो उसे……………… वो शिरीष
यहीं तो रहता है !

अपने ही शहर की
एक अनदेखी रात के बीचोंबीच
ख़ुद को ही खोजता
भटकता
सोचता हूँ मैं
कि ऐसा ही होता है लगातार खुलती हुई दुनिया
और बन्द होते जीवन में
यह बेहद दुखद
लेकिन
एक तयशुदा तरीका है
रोशनी से भरे किसी भी दिल के
अचानक भभक कर
बुझ जाने का!

(“पृथ्वी पर एक जगह” में संकलित….)

गिरिराज किराड़ू की प्रतिक्रिया

बहुत एकांत में घटित होती हुई और अकेली करती हुई कविता है बावजूद इसके कि इसकी अंतर्मुखता को घेरे है दो सार्वजनीन महाबली। मुझे ६-७ सात पहले मेरी एक कविता में नामालूम तरीके से प्रवेश कर गया एक गोरखा याद आया जो शायद अपने देश से उतना ही बेखबर रहता था लेकिन हमेशा ऐसा लगता था की चाहे चौकीदारी ‘हमारे’ मोहल्ले की करता है पर रहता किसी और देश में ही है. तुम्हारी कविता में कभी कभी यह जो अवसाद घटित होता है एकांत में, दिल और दिमाग, धमनियों और शिराओं के तनाव में वह, कैसे कहूं कि ‘अच्छा’ लगता है !

मार्च 22, 2009 2:26 PM
पंकज चतुर्वेदी की प्रतिक्रिया
रागिनी जी के कमेन्ट से बहुत ज़्यादा सहमत हूँ और प्रभावित भी। यह रिस्पोंस कितना मैच्योर और इनलाइटेंड है। आपकी कविता समकालीन मनुष्य की बेचैनी का आख्यान है, इस मानी में अच्छी है। अगर उसकी समस्या की बात करें तो वह बेचैनी के सन्दर्भ को लगातार शिफ्ट करती रहती है, जिस वजह से उसके न्यूक्लियस को लोकेट कर पाना कुछ मुश्किल हो जाता है। दिल के भभक – कर बुझ जाने के भौतिक अंधेरे के पार कोई रौशनी नहीं है क्या ? शायद इस महाजीवन की अनश्वरता की रौशनी? अगरचे पागल का वर्णन मार्मिक है और उजाले के जिस अन्धकार की अपने बात की है, उसके रचनात्मक तर्क से ही यह जाहिर है कि अंधेरे के भीतर छुपे उजाले से भी आप बखूबी वाकिफ हैं …… कविता के रूप में बेचैनी के इस मार्मिक आख्यान के लिए मेरी भी बधाई स्वीकार करें !

0 thoughts on “रात में शहर”

  1. आपकी ये बात कि
    उजाले में छिप जाती है कई सारी चीजें
    और अँधेरा उन्हें उघाड़ देता है
    ने ज्यादा छुआ

  2. खुदा करे कोई भी रोशनी से भरा दिल कभी भी यूं भभक कर न बुझे- हमेशा जलता रहे! मैंने एक रूसी कहानी पढ़ी है जलते हुए दिल के बारे में, जिसे मशाल की तरह हाथ में उठा एक अंधेरा जंगल पार किया गया! क्या आपके आगे भी ऐसा ही जंगल है?

  3. raagini ji ke comment se bahut zyaada sahmat hoon aur prabhaavit bhi. yah response kitna mature aur enlightened hai ! aapki kavita samkaaleen manushya ki bechaini ka aakhyaan hai. is maani mein achchhi hai. agar uski samasya ki baat karen, to wah bechaini ke sandarbh ko lagaataar shift karti rahti hai, jis wajah se uske nucleus ko locate kar paana kuchh mushkil ho jaata hai. dil ke bhabhak-kar bujh jaane ke bhautik andhere ke paar koi roshani nahin hai kya ? shaayad is maha-jivan ki anashwarta ki roshani? agarche paagal ka varnan maarmik hai aur ujaale ke jis andhakaar ki aapne baat ki hai, uske rachanaatmak tark se hi yah zaahir hai ki andhere ke bhitar chhupe ujaale se bhi aap baqhoobi waaqif hain !
    kavita ke roop mein bechaini ke is marmasparshi aakhyaan ke liye meri bhi badhaayi sweekaar keejiye !

    ——pankaj chaturvedi
    kanpur

  4. दो तीन बार इसी ठिकाने पर आकर कविता को पढ़ चुका हूँ. और हर बार रात के थियेटर के इतने दृश्यों में कोई एक, और हर बार कोई अलग, ज्यादा साफ़ चमकता है. कभी गोरखा, कभी पागल,और कभी पुलिस के दो महाबली. और आज, रात के अँधेरे को और गाढा करता जीवन से दूर धकेलता अवसाद.
    एक लम्बी यात्रा का सा अहसास होता है कविता से गुजरकर.

  5. jab charon aur ujale ka ekadhikar ho, wahan jindagiyon se ubhar rahe andhere main asli roshni ki samvedansheel goonj hi kavita honi chahiye. Is nukte ko khoob sadha hai Shireesh. badhai.

  6. कविता पढ़ना बार-बार टालता रहा, जाने दिल क्यों बचता रहा कोई लोड उठाने की आशंका भांपकर। अब पढ़ गया। कुछ टिप्पणियां भी। फिलहाल कुछ कहने की हालत नहीं। फिलहाल ये दिल पर है और कुछ देर इसे यहीं रहने दें…

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