अनुनाद

कोरियाई कवि कू सेंग की कविताओं का सिलसिला / दूसरी किस्त

बूढ़े बच्चे
(कविता से कुछ हटकर)

अपनी पिछली कविता में
मैंने सपने में कोरिया का सी0आई0ए0 प्रमुख बन बैठने का जो बखान किया था
उसे मेरे एक मित्र ने
बूढ़े बच्चों के हमारे समूह की एक बैठक में
मुद्दा बना दिया

इस बारे में सबके पास कुछ न कुछ था
कहने को

– “क्या तुमने बेकसूर जेल जाने के लिए बिना कुछ सोचे-समझे ही
यह सब लिखा है?”

– “प्यारे क्या तुम इतना चुक गए हो कि ऐसी बकवास पर उतर आए?”

– “एक कवि और सी0आई0ए0 प्रमुख?
अच्छा विचार है !”

– “अगर यह सिर्फ सपना है तब भी निहायत ही बेहूदा है!”

– “इसे इस तरह कविता में लिखना – शर्म आनी चाहिए तुम्हें!”

– “तथाकथित कवि !
दरअसल यही अंत है तुम्हारा !
तुम भी अब इतना उलझ गए हो? “

– “इसका यह मतलब तो नहीं
कि ऐसा संसार असंतोषजनक है? “

इतनी अलग-अलग प्रतिक्रियाओं से गुज़रते हुए भी
मैं सिर्फ हंस ही सकता था
उस बच्चे की तरह
जिसे बहुत मज़ा आ रहा है
क्योंकि
एक तरकीब थी जो काम कर गयी
और लोग फंस गए थे उसमें!

( बूढे बच्चे – कवि के हमउम्र लेखकों का एक सामाजिक समूह।)

तस्वीर और याद

एक दिन
सोलहवीं सदी के यूरोपियन चित्रों का एक संग्रह पलटते हुए
मैंने एक चित्र देखा
– एक आदमी
जिसकी एक बांह बंधी हुई थी एक बड़ी चट्टान से
और दूसरी
उठी हुई
एक डैने की शक्ल में

मुझे यह सब बहुत जाना-पहचाना सा लगा
और संजीदगी से सोचने-विचारने पर
जो कुछ प्रकट हुआ
वह तब की बात है
जब मैं पाँच या छह बरस का था –

” गाँव में
ठीक पड़ोस वाले घर का बिना बाड़ का अहाता
पुआल की चटाइयों पर सुखाने के लिए फैलाए गए अनाज से ढंका था
और उस घर के लोग शायद बाहर गए थे कहीं
लेकिन बाहरी कमरे का दरवाज़ा खुला था
और इसके ठीक सामने के सन्नाटे में
बेबस फड़फड़ा रही थी
एक मुर्गी
जिसकी पतली-चपल टांग
सुतली के ज़रिए
एक भारी पत्थर से बँधी थी

कुछ देर इधर-उधर ताकने-झाँकने और यह इत्मीनान कर लेने के बाद
कि कोई देख नहीं पाएगा मुझे
मैंने वह रस्सी काट दी और तेज़ी से भाग आया वापस
अपने घर में
बाक़ी का दिन मैंने अपने कमरे में
छुप कर ही बिताया

शाम होने पर निकला बाहर और उस अहाते में झाँकने पर पाया
कि मुर्गी दोबारा फड़फड़ा रही है वहीं
उसी तरह
बंधी हुई एक भारी पत्थर से “

इस एक अटपटी याद से गुज़रते हुए
मुझे महसूस होना शुरू हो रहा है कि दरअसल मेरा पूरा वज़ूद भी तो
दरअसल
लगभग इस तस्वीर के जैसा है

बिलकुल
पत्थर से बँधी उस मुर्गी के जैसा!


कवि के परिचय और अनुवादक के पूर्वकथन के लिए यहाँ क्लिक करें !



0 thoughts on “कोरियाई कवि कू सेंग की कविताओं का सिलसिला / दूसरी किस्त”

  1. यही वजूद होता है ………जिन्दगी की तरह सच ………. क्या बात है ……इतना सच की अब शब्द नही है कि बयाँ कर पाऊँ कुछ भी …..रचना के लिये शुक्रिया

  2. मूळ प्रवृत्ति ( आध्यात्मिकता और धार्मिकता ) शायद् हम सब का वास्तविक स्वरूप है मगर इस से परे जाने औरवहां से बहल कर बार बार वापस उसी आसरे तक आने के लोभ से मुक्ति कहाँ ? …. अनुवाद मन भा रहे हैं …बहुत कुछ नया …..

  3. सुंदर कविता. सुंदर अनुवाद. ये सिलसिला बहुत अच्छा शुरू किया है. आगे की कविताओं का इंतज़ार रहेगा पर थोड़ा रुक-रुक कर लगाइए. हमें ठहर कर पढ़ने का मौका दीजिए!

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top