अनुनाद

रक्तचाप – पंकज चतुर्वेदी

कू सेंग की कविताओं के सिलसिले को एक बार और तोड़ा जा रहा है। कारण है हमारे समय के बहुत ज़रूरी कवि पंकज चतुर्वेदी की उतनी ही ज़रूरी कविता। हमारी दिनों-दिन क्रूर होती स्थानीय तथा वैश्विक जीवन-स्थितियों की पड़ताल करती और उनके बीच घुटते-जीते समकालीन मनुष्य के भीतर को बाहर से जोड़ती ऐसी कविता हिंदी में पहली बार आई-सी लगती है। अनुनाद इस कविता के लिए पंकज जी का आभारी है।

रक्तचाप जीवित रहने का दबाव है
या जीवन के विश्रंखलित होने का ?

वह खून जो बहता है
दिमाग़ की नसों में
एक प्रगाढ़ द्रव की तरह
किसी मुश्किल घड़ी में उतरता है
सीने और बाँहों को
भारी करता हुआ

यह एक अदृश्य हमला है
तुम्हारे स्नायु-तंत्र पर

जैसे कोई दिल को भींचता है
और तुम अचरज से देखते हो
अपनी क़मीज़ को सही-सलामत

रक्तचाप बंद संरचना वाली जगहों में–
चाहे वे वातानुकूलित ही क्यों न हों–
साँस लेने की छटपटाहट है

वह इस बात की ताकीद है
कि आदमी को जब कहीं राहत न मिल रही हो
तब उसे बहुत सारी ऑक्सीजन चाहिए

अब तुम चाहो तो
डॉक्टर की बतायी गोली से
फ़ौरी तसल्ली पा सकते हो
नहीं तो चलती गाड़ी से कूद सकते हो
पागल हो सकते हो
या दिल के दौरे के शिकार
या कुछ नहीं तो यह तो सोचोगे ही
कि अभी-अभी जो दोस्त तुम्हें विदा करके गया है
उससे पता नहीं फिर मुलाक़ात होगी या नहीं

रक्तचाप के नतीजे में
तुम्हारे साथ क्या होगा
यह इस पर निर्भर है
कि तुम्हारे वजूद का कौन-सा हिस्सा
सबसे कमज़ोर है

तुम कितना सह सकते हो
इससे तय होती है
तुम्हारे जीवन की मियाद

सोनभद्र के एक सज्जन ने बताया–
(जो वहाँ की नगरपालिका के पहले चेयरमैन थे
और हर साल निराला का काव्यपाठ कराते रहे
जब तक निराला जीवित रहे)–
रक्तचाप अपने में कोई रोग नहीं है
बल्कि वह है
कई बीमारियों का प्लेटफ़ॉर्म
और मैंने सोचा
कि इस प्लेटफ़ॉर्म के
कितने ही प्लेटफ़ॉर्म हैं
मसलन् संजय दत्त के
बढ़े हुए रक्तचाप की वजह
वह बेचैनी और तनाव थे
जिनकी उन्होंने जेल में शिकायत की
तेरानबे के मुम्बई बम कांड के
कितने सज़ायाफ़्ता क़ैदियों ने
की वह शिकायत ?

अपराध-बोध, पछतावा या ग्लानि
कितनी कम रह गयी है
हमारे समाज में

इसकी तस्दीक़ होती है
एक दिवंगत प्रधानमन्त्री के
इस बयान से
कि भ्रष्टाचार हमारी ज़िन्दगी में
इस क़दर शामिल है
कि अब उस पर
कोई भी बहस बेमानी है

इसलिए वे रक्त कैंसर से मरे
रक्तचाप से नहीं

हिन्दी के एक आलोचक ने
उनकी जेल डायरी की तुलना
काफ़्का की डायरी से की थी
हालाँकि काफ़्का ने कहा था
कि उम्मीद है
उम्मीद क्यों नहीं है
बहुत ज़्यादा उम्मीद है
मगर वह हम जैसों के लिए नहीं है

जैसे भारत के किसानों को नहीं है
न कामगारों-बेरोज़गारों को
न पी. साईंनाथ को
और न ही वरवर राव को है उम्मीद
लेकिन प्रधानमन्त्री, वित्तमन्त्री
और योजना आयोग के उपाध्यक्ष को
बाबा रामदेव को
और मुकेश अम्बानी को उम्मीद है
जो कहते हैं
कि देश की बढ़ती हुई आबादी
कोई समस्या नहीं
बल्कि उनके लिए वरदान है

मेरे एक मित्र ने कहा :
रक्तचाप का गिरना बुरी बात है
लेकिन उसके बढ़ जाने में कोई हरज नहीं
क्योंकि सारे बड़े फ़ैसले
उच्च रक्तचाप के
दौरान ही लिये जाते हैं

इसलिए यह खोज का विषय है
कि अठारह सौ सत्तावन की
डेढ़ सौवीं सालगिरह मना रहे
देश के प्रधानमन्त्री का
विगत ब्रिटिश हुकूमत के लिए
इंग्लैण्ड के प्रति आभार-प्रदर्शन
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए
वित्त मन्त्री का निमंत्रण–
कि आइये हमारे मुल्क में
और इस बार
ईस्ट इण्डिया कम्पनी से
कहीं ज़्यादा मुनाफ़ा कमाइये
और नन्दीग्राम और सिंगूर के
हत्याकांडों के बाद भी
उन पाँच सौ विशेष आर्थिक क्षेत्रों को
कुछ संशोधनों के साथ
क़ायम करने की योजना–
जिनमें भारतीय संविधान
सामान्यत: लागू नहीं होगा–
क्या इन सभी फ़ैसलों
या कामों के दरमियान
हमारे हुक्मरान
उच्च रक्तचाप से पीड़ित थे ?

या वे असंख्य भारतीय
जो अठारह सौ सत्तावन की लड़ाई में
अकल्पनीय बर्बरता से मारे गये
क़र्ज़ में डूबे वे अनगिनत किसान
जिन्होंने पिछले बीस बरसों में
आत्महत्याएँ कीं
और वे जो नन्दीग्राम में
पुलिस की गोली खाकर मरे–
अपना रक्तचाप
सामान्य नहीं रख पाये ?
यों तुम भी जब मरोगे
तो कौन कहेगा
कि तुम उत्तर आधुनिक सभ्यता के
औज़ारों की चकाचौंध में मरे
लगातार अपमान
और विश्वासघात से

कौन कहता है
कि इराक़ में जिसने
लोगों को मौत की सज़ा दी
वह किसी इराक़ी न्यायाधीश की नहीं
अमेरिकी निज़ाम की अदालत है

सब उस बीमारी का नाम लेते हैं
जिससे तुम मरते हो
उस विडम्बना का नहीं
जिससे वह बीमारी पैदा हुई थी
——————-
फ़ोन-(0512)-2580975
मोबाइल-09335156082
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युवा कवि-आलोचक व्योमेश शुक्ल की लम्बी प्रतिक्रिया
पंकज पर लिखने के लिए कोई और ही कलम चाहिए थी जो नहीं मिली. उन पर, यानी उनकी कविता और उनकी आलोचना पर कितने धैर्य कितनी तबीयत कितनी पाकीज़गी से लिखा जाना था. लेकिन जीवन ‘ रक्तचाप ‘ जैसा था जहाँ जीवित रहने का दबाव और जीवन के विश्रंखलित होने का दबाव एक ही वस्तुएँ थीं. पंकज का जीवनशिल्प हमारे चारों ओर मौजूद जल्दबाजी, आपाधापी, बेईमानी, लालच, हिंसा और कायरता से जितना आहत है, उसके खिलाफ उससे कहीं ज्यादा बौद्धिक और नैतिक ऊर्जा के साथ एक असंभव अभियान में लगा हुआ है. इसलिए वह इतने अधिक मोर्चों पर युद्ध करते हैं. उतने ही अधिक संस्तरों पर, और हर जोखिम की उससे भी बड़ी कीमत चुकाते हैं. और ज़्यादा पारदर्शी और ईमानदार और लथपथ होकर सामने आते हैं हर बार. दोस्तो ! यह बात याद रखनी चाहिए, भले ही इसे बार-बार कहना अच्छा न हो कि पंकज जैसे कलाकार अपने होने में खुद को इतना समाहित कर देते हैं कि वह हमेशा एक जैसा परफार्म नहीं कर सकते, हमेशा सफल और सार्थक नहीं हो सकते. सफलता उनका अभीष्ट भी नहीं होती हालाँकि. उन जैसे लोग खर्च और ख़त्म हो जाते हैं, उन्हें मार डाला जाता है या अकेला कर देने के षड्यंत्र किये जाते हैं उनके साथ. यह साहित्यसंसार का जायजा है. यहाँ मरण से मूल्यांकन होता है. सत्ताएँ खून पीना चाहती हैं और विरोध पर टूट पड़ती हैं. पंकज के साथ बीते दिनों हुई बदतमीज़ियों का लेखाजोखा अगर तैयार किया जाए तो हिंदी की दुनिया में सक्रिय वर्चस्वशाली पशुबल का सही अन्दाज़ा किसी को भी लग जायेगा. यह हिंदी में कायम दास-संस्कृति का एक ख़ास गुण है. यह संस्कृति अवदान को निरस्त कर देना चाहती है भले ही अवदानों को ऐसे निरस्त न किया जा सकता हो. ऐसी बातें बहुतों को कविता से भिन्न लगती हैं और लगेंगी. ऐसे लोगों के सामने हम कुछ कर नहीं सकते. हम लाचार हैं. हम उनसे प्यार करते हैं और करते रहेंगे लेकिन काव्यमय बातें पंकज के प्रसंग में शोभा नहीं देंगी. उन पर बात करना अपनी पॉलिटिक्स तै कर लेना है पार्टनर. उन पर संघर्ष,यथार्थ और मृत्यु के शिल्प में ही बात संभव है. आखिर उनके जैसा मृत्युबोध किस समकालीन कवि में है ?
April 18, 2009 11:52 PM

0 thoughts on “रक्तचाप – पंकज चतुर्वेदी”

  1. Shireesh Bhai kavita behad tanav paida kartee hai yani uchh Raktchap ka khatra. Murkh Ummeed mein jeene wale Fake umeedwaron se lekar kai alochkon ko naraj karne ka khatra bhee. Abhi apko ek alochak ne tareef ke saath salah dee thee ki galat sangat se bacho par aap Sherish bhai sudhroge nahi

  2. धीरेश भाई ! सलाह के बारे में आपको भी पता है यह जानकार बहुत ख़ुशी हुयी! रही बात सुधरने की तो वो सही कहा आपने कि मैं कभी नहीं सुधरूंगा. थोडा ज़िद्दी तो मैं भी हूँ ही. आपकी टिप्पणी से मज़ा आ गया !

  3. अच्छी कविता है। एक मित्रवत सलाह कि कुछ विवरणों को कम कर देने पर कविता का प्रभाव, जो उठे सवालों की तिव्रता में काफ़ी साफ़ है, बचा रहे।
    बहुत ही महत्वपूर्ण इन पंक्तियों को यहां इस लिए रख रहा हूं कि देखिये अपने आपमें पूर्ण है-
    तुम कितना सह सकते हो
    इससे तय होती है
    तुम्हारे जीवन की मियाद

  4. पंकज पर लिखने के लिए कोई और ही कलम चाहिए थी जो नहीं मिली. उन पर, यानी उनकी कविता और उनकी आलोचना पर कितने धैर्य कितनी तबीयत कितनी पाकीज़गी से लिखा जाना था. लेकिन जीवन ‘ रक्तचाप ‘ जैसा था जहाँ जीवित रहने का दबाव और जीवन के विश्रंखलित होने का दबाव एक ही वस्तुएँ थीं. पंकज का जीवनशिल्प हमारे चारों ओर मौजूद जल्दबाजी, आपाधापी, बेईमानी, लालच, हिंसा और कायरता से जितना आहत है, उसके खिलाफ उससे कहीं ज्यादा बौद्धिक और नैतिक ऊर्जा के साथ एक असंभव अभियान में लगा हुआ है. इसलिए वह इतने अधिक मोर्चों पर युद्ध करते हैं. उतने ही अधिक संस्तरों पर, और हर जोखिम की उससे भी बड़ी कीमत चुकाते हैं. और ज़्यादा पारदर्शी और ईमानदार और लथपथ होकर सामने आते हैं हर बार. दोस्तो ! यह बात याद रखनी चाहिए, भले ही इसे बार-बार कहना अच्छा न हो कि पंकज जैसे कलाकार अपने होने में खुद को इतना समाहित कर देते हैं कि वह हमेशा एक जैसा परफार्म नहीं कर सकते, हमेशा सफल और सार्थक नहीं हो सकते. सफलता उनका अभीष्ट भी नहीं होती हालाँकि. उन जैसे लोग खर्च और ख़त्म हो जाते हैं, उन्हें मार डाला जाता है या अकेला कर देने के षड्यंत्र किये जाते हैं उनके साथ. यह साहित्यसंसार का जायजा है. यहाँ मरण से मूल्यांकन होता है. सत्ताएँ खून पीना चाहती हैं और विरोध पर टूट पड़ती हैं. पंकज के साथ बीते दिनों हुई बदतमीज़ियों का लेखाजोखा अगर तैयार किया जाए तो हिंदी की दुनिया में सक्रिय वर्चस्वशाली पशुबल का सही अन्दाज़ा किसी को भी लग जायेगा. यह हिंदी में कायम दास-संस्कृति का एक ख़ास गुण है. यह संस्कृति अवदान को निरस्त कर देना चाहती है भले ही अवदानों को ऐसे निरस्त न किया जा सकता हो. ऐसी बातें बहुतों को कविता से भिन्न लगती हैं और लगेंगी. ऐसे लोगों के सामने हम कुछ कर नहीं सकते. हम लाचार हैं. हम उनसे प्यार करते हैं और करते रहेंगे लेकिन काव्यमय बातें पंकज के प्रसंग में शोभा नहीं देंगी. उन पर बात करना अपनी पॉलिटिक्स तै कर लेना है पार्टनर. उन पर संघर्ष,यथार्थ और मृत्यु के शिल्प में ही बात संभव है. आखिर उनके जैसा मृत्युबोध किस समकालीन कवि में है ?

  5. कुछ संयोग ही ऐसा है कि पंकज की कविताएं इधर पढ़ने को नहीं मिल रही हैं, हालांकि सबद और अन्य जगहों पर उनकी आलोनात्मक टिप्पणियां उनकी ऊर्जा के संपर्क में बनाए रखती हैं। अपने समय के कम ही कवि हैं जिनकी पंक्तियां दिमाग पर छप जाती हैं। पंकज की कई पंक्तियां मुझे जुबानी याद हैं। वे मुक्तिबोध की तरह असहज और अटपटे हैं, हालांकि बीच-बीच में मजे भी लेते चलने की कोई मनाही नहीं है। भाषा उनके यहां ट्रेन की तरह धड़धड़ाती हुई नहीं निकलती। बहुत आटिर्कुलेट लिखते हैं। पता नहीं यह उनकी कविता का गुण है या अवगुण। अगर लंबे समय तक लिख पाते हैं तो निश्चित ही इसे उनका गुण माना जाएगा। उनकी बहुत अच्छी कविताओं में से एक आपने यहां प्रकाशित की है, इसके लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद।

  6. pankaj jab kahte hain ki ek adrishya hamla hai hamare snayu-tantr par…kavita wahan se khulti hai aur unhen chunki in jan-virodhi adrishya marak shaktiyon ki pahchaan hai,we kavita me ise uski bhayawah wyapti me darj karte hain…aise kai naam aur karm jo is kavita ke bahar prayah prasanshit hain,umeed aur sapnon ke saudagar mane jate hain, kavita unhen prashnankit karte hue kafka ki us umeed ke paksh men khadi hoti hai,jo bahusankhy logon ko naseeb nahin…

  7. इतनी टिप्पणियों के बाद यह कविता मेरे समझने के लिए और खुल गयी है और मुझे अब इस कविता आर पार सब कुछ दिख रहा है. आपको सुधरने की कोई ज़रूरत नहीं शिरीष जी. “नाम” चीन आलोचक जी का वह इंटरव्यू मैने भी पूरा देखा. अब आपकी किताब भी मैने हासिल कर ली है और “संगत” और “संगतकार” का अर्थ भी मैने सुलझा लिया है. आप लोगों के साहित्य लोक में क्यों बड़े लोग ऐसे हो जाते हैं.? आप तो और बिगड़िए ……खूब बिगड़िए …….आपका बिगड़ जाना ही अच्छा है. आपका क्या, सबका बिगड़ जाना अच्छा है !

  8. रक्तचाप के नतीजे में
    तुम्हारे साथ क्या होगा
    यह इस पर निर्भर है
    कि तुम्हारे वजूद का कौन-सा हिस्सा
    सबसे कमज़ोर है।

    कहीं गहरे तक झकझोरती कविता। आज ब्लॉग पर आने को सार्थक करती। पंकज जी को और प्रस्तुत कराने के लिए शिशिर जी को साधुवाद। व्योमेश जी को भी सार्थक और सारगर्भित टिप्पडी के लिए। भाई जिन्हें यह बातें कविता से भिन्न लगती हों उन्हें लगने दीजिये एक दिन वे अपनी मौत ख़ुद मर जायेंगे। रही बात हम पाठकों की तो हमारी नज़र में तो यही कविता है हमारे जीवन से गहरे गहरे जुडी हुई और हमारे समय के विद्रूप को पूरी इमानदारी से उघाड़ती हुई। अगर यह कविता से भिन्न कुछ है तो फ़िर कविता को पुनर्पारिभाषित करना होगा।

  9. पंकज भाई,
    तुम कितना सह सकते हो / इससे तय होती है / तुम्हारे जीवन की मियाद…

    क्या एक कविता यहीं ख़त्म नहीं हो जाती ?
    बाद के ढेर सारे राजनैतिक सन्दर्भ कविता को बोझिल ही बनाते हैं और इस जद्दोजेहद में कविता कब अनुपस्थित हो जाती है पता ही नहीं चलता .
    क्या लाइन ब्रेक्स को हटाकर ”सोनभद्र के सज्जन…….अमेरिकी निजाम की अदालत है” तक के लंबे अंश को कविता की कसौटी पर कसा जा सकता है ?
    शायद तब वह एक अच्छे निबंध का बीच का हिस्सा मालूम पड़े.
    एक बात और क्या इतिहास के मूल्यांकन का यह पर्याप्त आधार है कि-
    ”मेरे एक मित्र ने कहा:/रक्तचाप का गिरना बुरी बात है / लेकिन इसके बढ़ जाने में कोई हरज नहीं / क्योंकि सारे बड़े फ़ैसले / उच्च रक्तचाप के / दौरान ही लिए जाते है/

    क्या यह अंश बाद के हिस्से की अर्थवत्ता को संदिग्ध नहीं बना देता?
    इस कविता पर टिप्पणी करते व्योमेश भी कविता से इतर ढेर सारी बातें कहते दिखाई दे रहे हैं, मित्रधर्म और आलोचना के बीच की किसी धुंधली सी जगह पर से कही गई इन बातों में व्यक्तिगत सहानुभूति का स्वर तीव्र हो उठा है… इस कविता के सन्दर्भ में मृत्युबोध की बातें…?

    महेश

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