रंग
यह काल की अविराम घड़ी का तेज है
या कुछ और
सृष्टि में रंगों का बढ़ता जा रहा है तेज
बेस्वाद टमाटर होता जा रहा है
कुछ और लाल
कुछ और चटकदार
उदास
निस्तेज सिकुड़ा सिकुड़ा
हमारा दुख भी
दिखता है जगमग
छोटे रंगीन परदे पर
रंगो की बढ़ती जा रही हैं
लपलपाती इच्छाएं
खोती जा रही है उनकी आब
उनकी दीप्ति
उनकी छुवन और
उनका ठाठ
रंगलहर
जो उठाती है ह्रदय में ज्वार
नहीं है उस परवल में
जो आपके घर की टोकरी में चमक रहा है
नहीं है वह रस और स्वाद
जो बरसों बरस आपकी जीभ की स्मृति में मचलता रहा है
परवल पर चमकती पॉलिश की परत
उस सेल्सगर्ल की मुदित खोखल मुस्कान से
कितनी मिलती जुलती है
जो काउंटर पर बेच रही है
नेलपॉलिश
इस अलौकिक और अंतहीन रंगयात्रा में
सबकुछ होता जा रहा है गड्ड मड्ड
हत्यारा दिखता है महानायक
निरंकुश अफसर महान शब्दशिल्पी
बलात्कारी स्त्री विमर्श का प्रवक्ता
सिर्फ़ मनुष्यता का रंग होता जा रहा है
स्याह और मलिन
मेरी आंखों के नीचे बढ़ते हुए
काले गोल धब्बों की तरह !
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बहुत अच्छी लगी यह कविता !
घुघूती बासूती
अच्छा कविता है विनोद भाई…..