अनुनाद

अनुनाद

कपिल देव की एक कविता

कपिल देव हिन्दी के सुपरिचित आलोचक-समीक्षक हैं। उन्होंने हमें ये कविता भेजी है, जिसके बारे में उनका कहना है कि ये कहीं भी छपने वाली उनकी पहली कविता है. अनुनाद पर स्वागत है कपिल जी !

यानी मैं


मुनाफाखोर रक्तपाती इतिहासों के
सदियों पुराने
जर्जर पृष्ठों से छिटक कर
इक्कीसवीं सदी की बिलासी वैचारिकता की गर्दन पर
नख-दंत की तरह धंसा हुआ
मैं एक अनवरत इनकार हूं-
सृष्टि का आदि अव्यय !
जिसे
नष्ट करने के अभियानों का इतिहास ही दरअसल
सभ्यताओं का इतिहास है

मैं एक औजार हूं
पिछली सदी से बंद पड़े
कारखानों के
कबाड़ में से झांकता हुआ
साबुत

तोरण-द्वार की तरह सजने वाली कविता के खिलाफ
उबलता हुआ एक प्रतिवाद हूं मैं
जो
समझौतापरस्त
चालाक और दुनियादार हाथों का रूमाल बनने से
इनकार करता है।

मैं अपने समय की सुचिक्कणता पर थूकता हूं
व्यक्तिवादी अस्मिताओं की चोंच में
दाना डाल रहे ‘थिंक-टैंकों’ की आंखो का कांइयापन
मेरे रक्तचाप को बढ़ा देता है
मैं अपने ही ‘पन’ के साथ जीना चाहता हूं।

मुझे जन्म देने वाली सदी को लेकर बहस छेड़ दी गई है
अफवाह है कि मैं
मनुष्यता की कोख में अनादि काल से छिपा
एक अदृश्य विकार हूं

मैं इतिहास का अपवाद हूं
जिसे
अवांछित घोषित करने के लिए
संविधान में संशोधन की घोषणा की जा चुकी है

गुस्सा और असहमति और प्रश्नाकुलता और असंतोष का
उबलता हुआ ज्वार हूं मैं
एक अचरज!
एक कलछौंह-
शीत-ताप नियंत्रित इक्कीसवीं सदी के समृद्ध गालों पर

मेरे बध का दिन मुकर्रर किया जा रहा है
प्रचारित कर दिया गया है कि
मेरी खदबदाहट
आधुनिकता की ड्रेनेज से गिरता हुआ बदबूदार झाग है

बुद्धिजीवियों के बीच मैं एक तकलीफदेह एजेंडा हूं
एक असुविधा
…..संस्कृति के जननायकों की पीठ पर
मची खुजली

मैं
बीसवीं सदी के अधबने सपनों को
बहुराष्ट्रीय राजमार्गों पर
फेंक कर भागती हुई
इक्कीसवीं सदी की
भविष्य-भीत पीढ़ी के अपराधी-इरादों का
चश्मदीद गवाह हूं

साक्षी हूं मैं
इस सदी के रक्तिम सूर्योदय
और
उधारी सम्पन्नताओं के मंच पर आयोजित
वसन्तोत्सव का
जहां भविष्य का स्वामी
वृहस्पति
सुविधाओं की चैपड़ पर हमारी निष्ठाओं का
दांव लगा रहा है
और लाल सलाम की गद्दी पर बैठा हुआ
बिना चेहरे वाला कामरेड
इक्कीसवीं सदी के नराधमों की रहनुमाई में
हंसने और
खामोंश रहने का प्राणायाम सीख रहा है

मैं एक ‘विटनेस बाक्स’ हूं,
गूंगा और अशक्त
जिसमें खड़ी हो कर
यह सदी
अपनी सफाई में
झूठ की प्रौद्योगिकी का हलफनामा दायर कर रही है

मैं एक मुश्किल हूं- विचित्र
पता किया जा रहा है
मेरे बारे में
पूछा जा रहा है दिगन्तों से कि
मेरा गुस्सा,मेरी खदबदाहट और मेरा
सतत इनकार
‘ग्लात्सनोत्स’ के किस अध्याय के किस पृष्ठ पर रह गई
प्रूफ की अशुद्धि का खामियाजा है

जेड श्रेणी की सुरक्षा से ‘फूलप्रूफ
बख्तरबंद टैंकों पर बैठा
इक्कीसवीं सदी का महा नायक
पूछ रहा है
अपने खुफिया एजेंटों से कि
इस चक्रवाती सांस्कृतिक
रमहल्ले मे कब,
कैसे
और
कहां से आ गया
मैं
यानी
दनदनाता हुआ
अवांछित
सुच्चा
इनकार!

***

0 thoughts on “कपिल देव की एक कविता”

  1. कविता को सिर्फ़ सुंदर कह कर मैं कवि के भीतर पनप रहे उस गुस्से की आग को जो चारों ओर व्याप्त होती गई भ्रष्टता और लम्पटता का पर्दाफ़ाश कर रही है, कम नहीं करना चाहता। उसे महसूस करना चाह्ता हूं। शिरीष भाई सच तुम्हारा बहुत बहुत आभार जो कविता से रूबरू होने का अवसर दिया।

  2. पिछ्ले दिनों अनिल जनविजय् जी का कविता कोश खंगाल रहा था . नामवर सिंह तथा अन्य कई गैर कवियों की सुन्दर कवितायें उस् में दिखीं. खयाल आया कि एक संकलन कोई मेहनत कर के निकाले गद्यकारों की कविताओं का; तो "कवि के गद्य " की तरह खूब पसन्द किया जायेगा. पढा जायेगा. और बिकेगा भी.और अगर कोई मुझे ऐसी कविताओं की लिस्ट तय्यार कर्ने को कहे तो कपिल जी की इस कविता को सब से ऊपर रखूंगा .

  3. समस्या ये हे कि जब बी कोई रचना लगती है तो हम वाह कहते हैं और बहुत अच्छी तब भी और अद्भुत लगे तब भी….! तो समझ में नऋी आ रहा कि इस अद्भुत रचना के लियेकौन सा शब्द प्रयोग करूँ..!!!

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