अनुनाद

लेकिन यानी इसलिए – व्योमेश शुक्ल की एक कविता


दहलीज़-७ के ‘फॉलो-थ्रू’ में व्योमेश शुक्ल की कविता का ज़िक्र हुआ था. यह पोस्ट उसी ‘फॉलो-थ्रू’ का ‘फॉलो-थ्रू’ है.



लेकिन यानी इसलिए

(क्योंकि यह एक पुराने शहर में हो रहा है या सभी शहरों में, लेकिन हो रहा है)
या
(क्योंकि यह सभी शहरों में हो रहा है इसलिए इस शहर में भी हो रहा है यानी हो रहा है)

बाएँ से चलने के नियम से ऊबे लोग दाहिने चलने की मुक्ति चाहते हैं बाएँ से काफ़ी शिकायत है सबको इस पुराने नियम से होकर वहाँ नहीं पहुँचा जा सकता जहाँ पहुँचना अब ज़रूरी है लोग लगातार एक दूसरे के दाहिने जाते हुए आगे निकलते जा रहे हैं और इस तरह लगातार और दाहिने जा रहे हैं इस तरह सामने से आने वालों के लिए भी अपने बाएँ से आना नामुमकिन होता जा रहा है इस दृश्य को देखकर आसानी से यह राय बनायी जा सकती है कि इस देश में दाएँ से चलने का नियम है. हो सकता है कि बाएँ चलने का नियम कब का ख़तम कर दिया हो और कुछ लोग अपने ग़लतफ़हमी अकेलेपन और बदगुमानी में यह मानकर चल रहे हों कि बहुसंख्यक जनता आत्मघाती ग़लती करती हुई दाएँ चलती जा रही है ऐसे विचित्र ऊहापोह भरे माहौल का लाभ उठाने के मक़सद से ही शायद एकल दिशा मार्ग बनवा दिये गए हैं जिन पर चलते हुए कोई इस गफ़लत में भी रास्ता तय कर सकता है कि वह अपने बाएँ से चल रहा है जबकि वह बिल्कुल दाहिने से चल रहा है और ग़ौर करें तो पाएंगे कि ट्रैफिक पुलिस भी आपको दाहिने भेजने के इशारे करती रहती है और जिन चौराहों पर ट्रैफिक पुलिस नहीं है वहाँ वह दाहिने चलने की स्वच्छंदता उपलब्ध कराने के लिए नहीं है.
शायद एक सर्वग्रासी दाहिनापन आदतों लक्ष्यों पर्यावरणों अमीरों ग़रीबों में रोग बनकर फैला हुआ है जिसकी वजह से मेरी पृथ्वी साढे तेईस डिग्री दाहिने झुक गई है और सड़क पर रिक्शा खींच रहा बिहार टैक्सी चला रहा उत्तर प्रदेश और मुम्बई – जो जितना धूप हो उतना चमचमाने वाली कार है – सब, दाहिने की ढलान पर लुढ़कते जा रहे हैं नदियों का जल दाहिने बहता हुआ बाढ़ ला रहा है और बाएँ अकाल पड़ा हुआ है सबसे कमज़ोर आदमी को लगता है सबसे दाहिने ही शरण है ट्रैफिक जाम की मुश्किल पर ठण्डे शरीर ठण्डे दिमाग से विचार करने वाले दाहिनेपन की विकरालता और फैलाव को समझ नहीं पा रहे हैं कन्नी काटकर निकल जाने वाली धोखेबाज़ अवधारणा भी मुख्यधारा हो चुके दाहिनेपन से कतराने की कोशिश में उसी की गोद में गिर जा रही है.

0 thoughts on “लेकिन यानी इसलिए – व्योमेश शुक्ल की एक कविता”

  1. भैया ये दाहिने-बायें तो सब समझ में आया पर ये कविता कौन से एंगल से कविता है और कविता को ऐसा ही होना है तो पंकज जी दहलीज़ में क्या सीखा रहे हैं?

  2. भाई तल्ख़ ज़ुबान जी एक वाक्य में सुन लीजिए ये कविता बायें एंगल से कविता है और इसे मैं पहले खुद भी अपनी टिप्पणी के साथ अनुनाद में छाप चुका हूँ. ये दुबारा अनुनाद में लग रही है और आगे भी अनेक बार लगती रहेगी. तशरीफ़ लाने का शुक्रिया.

  3. hum to har jagah baye angel se hi jhankte hai fir bhi, jo pragya ne kahaa humne bhi maan liya…
    भैया हमें रहना यहीं है .. काहे पंगा लें . कविता बहुते अच्छी है….

  4. yahi nahi unke hal men aaye sangrah kee sabhi kavitayen behad achhi hain. mujhe lagta hai ki ek achhe kavi ko nahak irshya ka shikaar banane ki koshish ki hi jati hai. yh pravirtti kisi kavi ya kavitapremi ki nahi ho sakti. behtar ho ki kavita par baat ho, agar napasand hai to uski kami bina kisi purvagrah ke saamne layi jaye, nishchy hi kavi ko khud aisi alochna ka intzar rahta hoga. is post ke liye bharat ji ko dhanyvaad

  5. धीरेश भाई,

    पूरे सम्मान के साथ कहता हूं कि आप, स्पष्ट रूप से बताएं कि यह जो पोस्ट लगी है वो पद्य है या गद्य ??
    अगर यह पद्य है तो क्या विनोद कुमार शुक्ल के सभी उपन्यासों को महाकाव्य कहना अनुचित होगा !!

    विनोद कुमार शुक्ल का प्रभाव पद्य और गद्य दोनों में खूब बढ़ा है। तुर्रा ये कि नामवर सिंह हो या विष्णु खरे सभी को विनोद कुमार का शिल्पवाद मोहित कर लेता है। विनोद कुमार सामयिक लेखकों में अतिसम्माननीय नाम हैं। लेकिन ऐसा क्या है कि वो गद्य और पद्य के बीच का फर्क मिटा देंगे।
    तल्ख जबान की जबान जिस तरह बंद करवाई गई उसके बाद ज्यादा कहने की गुंजाईश नहीं बचती। मैं कोई बहस नहीं चाहता। जैसे शिरिष जी ने अपने स्पष्ट विचार रखे उसी तरह मैं आप लोग के विचार जानना चाहता हूँ।

    मैं हाल-फिलहाल के दौर की कविताओं से ज्यादा परिचित नहीं हूं। इस तरह की कविताओं का चलन दूसरी भाषाओं समेत हिन्दी में बढ़ा है तो हमें बताएं। इसमें नाराजगी होने जैसा क्या है ? हो सकता है कविता को लेकर हमारा संस्कारजन्य सोच हमें वस्तु सत्य को समझने से रोक रही हो।

    धीरेश भाई, आपने न जाने किस सज्जन को लक्ष्य करके कहा है कि कहा है कि नए कवि को नाहक ईष्या का शिकार बनाया जाता है। वो सज्जन तो जवाब देंगे नहीं। मैं यह कहना चाहुंगा कि अगर मैं कवि होता या हिन्दी विभाग का छात्र होता और आलोचक बनने के लिए हाथ-पैर मार रहा होता तो मुझे व्योमेश से जलन जरूर होती। वो हमारी ही उम्र के होंगे लेकिन इसी उम्र में राजकमल से पहला संग्रह। विष्णु खरे का…….। और न जाने कैसी पुस्तिका वगैरह और कोई लेक्चर भी…… सुना कि आपके लीलाधर नामवर ने भी उनकी प्रतिभा को पहचान लिया है…….।
    इस मामले में हिंदी का इतिहास बहुत ही खराब रहा है। हिन्दी पट्टी में प्रतिभा का ऐसा सम्मान कम ही होता है !! जिनका होता है उसके पीछे की ठोस वजहंे जगजाहिर होती हैं। जहां निराला,मुक्तिबोध,,धूमिल गुजर चुके हों वहां कोई यह भी नहीं कह सकता कि ऐसी प्रतिभा पहले नहीं हुई थी। आप तो जानते हैं कि अपवाद का होना ही हम सब के लिए आशा के दीपक समान होता है।

    अतः ऐसी स्थिति में किसी को जलन हो तो स्वाभाविक है। हां पूर्वाग्रह रखने के लिए पूर्वपरिचय की जरूरत होती है। या फिर जातीय,नस्लीय,धार्मिक पुर्वाग्रहों जैसी कोई बात हो। व्योमेश के मामले में ऐसा कुछ नहीं प्रतीत होता। आपने कहा है कि कवि को अपनी आलोचना का इंतजार रहता होगा !! हालांकि कवियों का इतिहास इसके विपरीत जाता है।

    व्योमेश का आलोचना को लेकर क्या एप्रोच है इससे हमारे कविता चर्चा का कोई सीधा संबंध नहीं है। क्योंकि यहां व्योमेश की उपस्थिति नहीं है। न ही उनसे कोई संवाद है।

    मैं फिर से कह दूं कि मैं बहस की दावत नहीं दे रहा। मैं सिर्फ स्पष्ट रूप से सुनना चाहता हूं कि क्या यह गद्य कविता है। है तो इसकी सनद रहे।

  6. व्योमेश नब्बे बाद के बदलावों से उपजी विराट बेचैनियों के कवि हैं.उन की पीढी के बहुत से कवि इन्ही बेचैनियों की देन हैं.व्योम की विशेषता ये है के उनकी कविता में केवल यह हाहाकार नहीं है ki ये क्या हो रहा है. यह आकुलता भी है के ये क्यों हो रहा है.इसी लिए वे इन तब्दीलियों के इतिहास और भूगोल की यात्राओं में रमते हैं.
    फिर भी इस कविता को मैं उन की सर्वश्रेष्ठ कविताओं में नहीं रखना चाहूँगा.यहाँ जैसे एक विचार कविता में बदलने की कशमकश में है.विचार से संवेदना तक की यात्रा में जो पारदर्शी तरलता होनी चाहिए , उस की कमी लगती है. दायें बाएँ के मुहावरे का जरूरत से कुछ ज्यादा इस्तेमाल शायद इसी कारण है. गद्य -कविता के फॉर्म का इस्तेमाल भी शायद इसी कशमकश की दे न है. समस्या इस फॉर्म के साथ नहीं है, शब्दों में शायद उस प्रवाह की कमी है जो गद्य को कविता में पुनराविष्कृत करता है.
    सोचना चाहिए ki ऐसा क्यों है.क्या सचमुच बाएँ अकाल पडा हुआ है और सब से कमजोर आदमी को लगता है KI सब से दाहिने ही शरण है ?मुझे लगता है , यहाँ कविता की संवेदना पर मुहावरा हावी हो रहा है.
    व्योम की कविताओं पर सोचना हमेशा चुनौतीपूर्ण और उत्तेजक होता है. अगर इस कविता के सन्दर्भ को समझ ने में मुझ से गलती हो रही है तो मित्रो से मार्गदर्शन अपेक्षित है.

  7. प्रिय रंग !

    तल्ख़ ज़ुबान की ज़ुबान किसी ने बंद नही करवाई. मैने जो जवाब दिया उसमें एक खीझ है – क्योंकि उनकी पहचान खुली नहीं है. जैसे आप रंगनाथ है – खुले तौर पर रंगनाथ हैं और खुल कर अपनी बात कहते हैं – आपका कहा रंगनाथ का कहा होता. आइंस्टाइन की ज़ुबान दिखा देने से कोई तल्ख़ ज़ुबान नहीं बनता – वे अपना असली नाम लायें, उनका स्वागत है. वैसे अब मैने कमेंट मॉडरेशन हटा दिया है, वे जो भी है अपनी टिप्पणी लगा सकते हैं. सिर्फ़ मेरी कविता की तारीफ़ करने से वे मेरे प्रिय नहीं हो जाएँगे – मैने इसलिए जवाब दिया. आपने बहस की शुरूआत करके अच्छा किया – परिणाम आशुतोष जी की टिप्पणी के रूप में सामने है.

  8. मैंने पूछा है कि क्या यह गद्य…. कविता है ? जिसका अर्थ था कि, लोग मुझे बताएं कि यह पोस्ट गद्य है या पद्य है ? प्रश्न सीधा है और सरल भी ?
    रही बात आशुतोष जी ने व्योमेश के अब तक के काव्य अवदान के बारे में जो टिप्पणी की है… उसका इस प्रश्न से कोई संबंध नहीं है।
    आशुतोष जी ने गद्य-कविता नामक फार्म का जिक्र किया है ! यह क्या बला है मुझे कोई बताएगा ?
    इसे लाने का श्रेय किस कवि को और किस काल के कवि को जाता है यह भी बताएं तो बेहतर।

    वैसे आशुतोष जी ने इस तथाकथित कविता के बारे में काबिलेगौर बातें कही है, मसलन

    "…विचार से संवेदना तक की यात्रा में जो पारदर्शी तरलता होनी चाहिए,उस की कमी लगती है…"

    "….दायें बाएँ के मुहावरे का जरूरत से कुछ ज्यादा इस्तेमाल शायद इसी कारण है"

    "… शब्दों में शायद उस प्रवाह की कमी है जो गद्य को कविता में पुनराविष्कृत करता है…"

    "….मुझे लगता है , यहाँ कविता की संवेदना पर मुहावरा हावी हो रहा है…"

  9. रंगनाथ भाई, अपने कहा कि आशुतोष जी ने कई काबिलेगौर बातें कही हैं और अपने उन्हें बिन्दुवार गिनाया भी है. मेरा यही निवेदन है कि असहमति की पूरी गुंजाइश के बावजूद काबिलेगौर बात कही जाय और मित्रों (जाहिर है कि कोई एक विचार है जो अशोक कुमार पाण्डेय और हम सब बहुत सरों को मित्र बनाता है ) से यह अपेक्षा गलत नहीं है. तल्ख़ जुबान मुझे नहीं पता कि कौन हैं पर जो अनुमान है वो अपने ही एक वरिष्ठ प्यारे लेखक का होता है और उनसे भी यह अपेक्षा की ही जाने चाहिए कि वो असल रूप में आयें और रचना पर बात करें न कि एक किसी वाक्य में उसे उड़ाकर चल दें.
    आशुतोष जी ने वाकई बात पूरी गंभीरता से कही है. पर मुझे लगता है कि ये गद्य है या पद्य, ये बहस इस दौर में बहुत बेमानी है. अरसे से श्रेष्ठ कविता एक तरह के गद्य में ही लिखी जां रही है. कबीर की कविता को तो साही कविता ही नहीं मानते. मुक्तिबोध में भी बेहद अनगढ़पन है. सवाल ये है कि किसी रचना में सार क्या है और इस कम से कम इस कविता में जो बात है, उस पर चर्चा जरूरी है. इस कविता (या जो भी इसे आप नाम दें) में कई सवालों के जवाब मौजूद लगते हैं. मुझे ये कविता अच्छी लगती है.
    और अंत में इसी की एक पंक्ति – `कन्नी काट कर निकल जाने वाली धोखेबाज अवधारणा भी मुख्यधारा हो चुके दाहिनेपन से कतराने की कोशिश में उसी की गोद में गिर जा रही है.`

  10. धीरेश भाई आप ने तल्ख जबान के बारे में जो इशारा किया है और शिरीष जी ने उसके बारे में जो टिप्पणी की है उसके बाद मुझे लगता है कि इस शख्स की वजह से मेरा स्टैण्ड किल होता दिख रहा है। तल्ख जबान के प्रोफाइल में तो उन्हें तकनीकी क्षेत्र का आदमी बताया गया है ??
    जिस आधार पर आपने हम सब एक हैं का नारा लगाया है उससे तल्ख जबान के बारे में मामला रहस्यमय होता दिख रहा है। खैर,उस मामले को आप ही जाने और तल्ख जबान जाने। इसलिए प्लीज मेरी टिप्पणी को तल्ख जबान के कहे से अलग करके देखें।

  11. दूसरा स्पष्टीकरण, मेरे काव्यात्मक गद्यांश को कविता कहने पर आपत्ति जताए जाने को लोग व्योमेश की कविता पर आपत्ति मान रहे हैं क्या ?
    जिसकी मैंने दो-चार कविताएं ही पढ़ी हो उसकी कविता पर मैं क्यों ऊँगली उठाऊँ ?
    मैंने आशुतोष जी के इसलिए कोट किया कि, शिरीष जी ने कहा कि मेरे प्रश्नों का जवाब का परिणाम आशुतोष जी की टिप्पणी के रूप में सामने है !!
    अतः मैंने जरूरी समझा कि आशुतोष जी कि व्योमेश के पिछले किए और इस गद्यांश के मूल्यांकन को अलग-अलग करूं जिससे भाई लोग को भ्रम न हो।
    मैंने तो साफ पूछा है कि क्या हिन्दी के अन्य कवि या कवि समूह या दूसरी भाषाओं के अन्य कवि भी ऐसी कविता लिख रहे हैं। जहां तक मुझे याद है मैने बहुत पहले एक साईकिल,बच्चा और न जाने क्या-क्या वाले गद्य पर कविता का शीर्षक देखा था। तब मैं ब्लागर नहीं होता था। न ही कमेंटर होता था। मैं तो मई 2009 से इस दुनिया से जुड़ा हूं।
    ऐसा भी नहीं है कि व्योमेश मेरा मित्र या शत्रु हो कि कोई मेरी नियत पर शक करे।
    न ही मैं हिन्दी का छात्र हूं कि कल को व्योमेश किसी साक्षत्कार में मेरा प्रतिद्वंद्वी बनेगा !!

  12. आज मैं पहली बार इस ब्‍लॉग पर आया कि देखें नया क्‍या लिखा जा रहा है… यहां तो दाएं-बाएं का बचकानापन निराश करता है… इससे बेहतर तो शिरीष की कविता- बनारस से निकला आदमी- ही थी। वहां कम से कम संवेदना तो थी। पॉलिटिकली करेक्‍ट कविता लिखने के चक्‍कर में फॉर्म की उपेक्षा करना ठीक नहीं है… इससे बेहतर होता व्‍योमेश एक निबंध या लेख लिख डालते। और बाकी लोग रंगनाथ जी का जवाब देने से क्‍यों कतरा रहे हैं भाई… बता ही दीजिए कि ये कविता है या गद्य… रंगनाथ इतनी शिद्दत से पूछ रहे हैं और आप लोग घालमेल किए जा रहे हैं…

  13. तीसरा स्पष्टीकरण,मैं दरोगा आलोचक नहीं हूं जो लेखकों को यह बताता चले कि वह क्या लिखे। न ही मैं किसी तथाकथित मार्क्सवादी पार्टी का कार्ड होल्डर हूं कि मुझे पार्टी महासचिव से अपनी लाइन के सही या गलत होने का प्रमाणपत्र लेना पड़े। मैं कुल मिला कर यही करता हूं कि रचनाकार जो भी रच कर सामने रखे उसे समझने की कोशिश करूं और अपनी राय रखुं। गर मेरी राय किसी दल या समूह के खिलाफ जाती है तो इससे मेरी राय गलत नहीं हो जाती है। मैं समझता हूं कि किसी बहस में किसी दूसरे की नियत पर सवाल खड़ा करने से बेहतर है कि अपनी बात रखी जाए।

    बात बोलेगी/हम नहीं/भेद खोलेगी/ बात ही……

  14. कुछ उन लोगों से जिनका आगे कहे से साबका होगा…..
    जैसा कि धीरेश भाई ने व्योमेश को कोट किया है-"कन्नी काट कर निकल जाने वाली धोखेबाज अवधारणा भी मुख्यधारा हो चुके दाहिनेपन से कतराने की कोशिश में उसी की गोद में गिर जा रही है."

    मैं पूरी तरह सहमत हूं इस कोट से। लेकिन व्योमेश भी लिखना भूल गए और धीरेश भाई भी बताना भूल गए कि इसी देश में कुछ लोग अपने सर पर अपनी नारेबाज अवधारणाओं के साथ बाम गांव के मुखिया बने घुमते थे। कालांतर में इन्हीं लोगों ने इनकी बेमुठ की तलवार से सिंगुर-नंदीग्राम में जाकर इस कदर खौफनाक ताण्डव दिखाया कि महाश्वेता देवी को वो और नरेन्द्र मोदी एक लगने लगे। सुमित सरकार को बिमार हालत में धरना-प्रदर्शन करना पड़ा और सालोंसाल से उनके झण्डा बरदार बने नास्तिक बुद्धिजीवियों को गोपालम गोपालम करमे हुए किसी जेलनुमा भवन में दुबक जाना पड़ा। जिस साप्रदायिकता विरोध के बल्लम से ये हर किसी को धमकाते फिरते थे, सच्चर कमेटी की रिर्पोट ने उसी बल्लम को इन्हीं की अंतड़ियों में घुसेड़ दिया।
    तुरत फुरत अपने तथाकथित लाल मांझे से किसी की पतंग को कन्नी से काटने की कोशिश करने वाले इन बावरिया गिरोह के हवाबाजी की हवा निकल चुकी है। सब जान चुके हैं कि ये तो गुब्बारा साहब थे जो लट्ठा भर फैले थे और असल कद इनका दो अंगुल भी न था।
    (यहां जिस कन्नी काटना को प्रयोग किया गया है उसका अर्थ कोई भी बनारसी पतंगबाज आसानी से बता देगा)
    किसी ने कुछ दिन पहले शिरीष जी को अपनी तथाकथित ज्यादा लाल तलवार से धाराशायी करने की कोशिश की थी। उसके पहले भी ऐसी हरकते हुई होंगी। मुझे समझ नहीं आता कि जो असहमत हो उसका नग्न राजनीतिक चीर हरण क्यों किया जाने लगता है। नेट की दुनिया में ही लाल सूरज के पीले प्रकाश लोग भटक रह है जो अपने को एक दूसरे से ज्यादा लाल मानते हैं। जब बात कविता कहानी को हो रही हो तो उसी पर करिए ना !! किसकी क्या सोच है उसका स्टैण्ड से उभरेगी न कि आप के प्रमाणप़़त्रों से। प्रमाणपत्र देने-लेने वाले तो बहुत आए और बहुत गए। गर ये दस्तूर जारी रखना है तो शिरीष कुमार मौर्य को इस ब्लाग से यह कथन हटा देना चाहिए कि यह कविता का ब्लाग है। या यह भी जोड़ देना चाहिए कि यहां पर प्रतिबद्धता प्रमाणपत्र बनाए और बांटे जाते हैं। और यह सारा काम आन लाइन होता है।
    हो सकता है कि कल को शिरीष जी कहें कि आप लोग बहस को लाईन पर लाएं। मैं उनसे अभी से कह दूं कि पहले वो स्पष्ट करें कि यह एक सामाजिक ब्लाग है या कि कोई घरेलू सतनामी अखाड़ा जहां कोई भी अपना टूटा कान दिखा कर साबित कर दे कि वो भी उसी अखाड़े की मिट्टी में जोर आजमाईश करवइया पहलवान है….इसलिए उसे को बिना लड़े हर दंगल में बिना उतरे भारत केशरी का पट्टा और एक खास रंग का लंगोटा सम्मान रूप में लेने का विशेषाधिकार है।……या फिर यारों की चैपाल है जहाँ किसी अपरिचित का प्रवेश उन सब को रक्षाबंधन के गुलाबी धागे में बंधा भाई-भाई बना दे ?……….
    सभी पाठक सोचें की दो दलों में कबड्डी हो रही हो,मान लो गुलाबी कच्छा वाले और केसरिया लंगोट वाले दल, अब गर कोई कच्छा वाला खिलाड़ी अपने बाकि साथियों से काई असहमति जताए तो उसे भाई लोग लगें केसरिया लंगोटा वालों के पाले में खदड़ दें !!
    आप सब सोंचे कि ऐसा करना कितना हिंसक कृत्य है कि उसे बिना जाने-सुने विपक्षी पाले में ढकेल दें और भाई लबड्डी-लबड्डी बोलते लंगोट वालों के पाले में घुसें और उस पहले से चिन्हित असहमति की आवाज को डेड-आउट कर सकें। और फिर वह अपने कंधे पर अपनी लाश लिए रघुवीर सहाय की कविता गाता फिरे कि,

    निकल गली से तब हत्यारा
    आया उसने नाम पुकारा
    हाथ तौलकर चाकू मारा
    छूटा लोहू का फव्वारा
    कहा नहीं था उसने आखिर उसकी हत्या होगी।
    ……
    ……
    सभी जानते थे यह उस दिन उसकी हत्या होगी।
    ….
    लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी
    ….
    लगे बुलाने उन्हें जिन्हें संशय था हत्या होगी
    …..
    इस मुद्दे पर अभी इतना ही। अब आगे कविता पर बात होगी।

  15. मैं भाषा से खेलना नहीं चाहता
    सिर्फ उसे बरतना चाहता हूँ – शिरीष कुमार

    ऊपर लिखी दो पंक्तियों को पढ़ कर मैंने निम्न "उपन्यास" लिखा है।

    भाषा से खेलने का नकार (निगेशन) कवि तुम्हें क्यों करना पड़ा ? भाषा तो कवि का ओढ़ना बिछौना होती है फिर तुमने ऐसा क्यों कहा कि तुम भाषा से खेलेगो नहीं। मैं कवि से नहीं पुछूंगा कि भाई कौन है जो भाषा से खेल रहा है और तुम हो कि अपनी सादा मासूमियत के साथ बड़े ही मद्धिम स्वर में कह रहे हो कि मैं उसे सिर्फ बरतना चाहता हूँ !!, कवि तुम किसी प्रश्न का उत्तर मत दो, क्यांेकि कवि तो सृजन करता है। उसे सवाल-जवाब से क्या लेना ? उसे जो कहना था उसने कविता में कह दिया। कवि तुम तो कवि हो, और हो सकता है कि किसी विषमशेर के निर्द्रेशों के अनुसार तुमने दनिया भर का ज्ञान न घोंटा हो !! तुमने जीवन को किताबों में उतारे जाने के पूर्व ही उसके मौलिक-अनगढ़-असल-प्राकृत रूप में देखा हो। हो सकता हो कि तुमने कवि बनने से पहले दुनिया भर की पोथी न पढ़ी हो। और ये भी हो सकता हो कि तुम किसी कामरेड माओ की तरह खुल कर कह दो कि जनता मेरी शिक्षक है। लेकिन कवि तुम उस ग्रंथ गंगा में डूबकी न मारो तो लोग कहगें कि तुम सौ गुणे दो सौ मील लम्बे-चैड़े कवि नहीं बन पाओगे !! तुम चिंता मत करना तुम्हारी तरह ही एक कवि पहले हुआ था। हालांकि वो बनारस से निकल नहीं पाया था लेकिन तुमने आज जो भाषा के बारे में दबे-ढके संकोची स्वर में कहा वैसे ही उसने तनिक उद्दण्ड स्वर में रोटी के बारे में कहा था, कि एक आदमी रोटी बेलता है/ और एक आदमी रोटी से खेलता है…….कवि तब तो सिर्फ रोटी खतरे में थी। चालाक बहरूपिए उससे खेेलते रहते थे। अब लोग रोटी से भी खेलते हैं और भाषा से भी…..और चाहते हैं कि हम उनके इस तमाशे में भोंपु बन जाएं और वो जिस चीज का जो नाम रख दे ंहम उसे वही पुकारें….. !!
    कवि आज भाषा कुलीन, कोमलांगी, कुमारी के हाथों की सहलाहट की गर्मी में आनंदित होता सफेद झबरे बालों वाल पिल्ला बनती जा रही है। अब उस पिल्ले के पास दांत तो हैं लेकिन वो किसी को काटने के काम नहीं आता। वो भौंकेगा। आगंुतक के आने की सूचना भर देगां। अफसोस उसमें काटने की ताकत खत्म हो गयी है। क्योंकि दुनिया में शीत युद्ध खत्म हो चुका है। दो विश्व युद्धों को झेल चुकी दुनिया शांति चाहती है। पुराने कवि ने तो पहले ही कहा था कि
    पुंजीवादी दिमाग……. परिवर्तन तो चाहता है/लेकिन कुछ इस तरह कि/चीजों की शालीनता बनी रहे…..
    कवि तुम्हें पीड़ा है कि भाषा को खिलौना बनने से तुम रोक नहीं सकते, है ना ? अपने आप को बेबस और असहाय पाते हो, है ना ? तुम्हें रात को भयावह सपने आते होंगे उस वक्त के जब कवि और उसकी भाषा नृपतियांे,भूपतियों के यौन-उत्तेजक बुटी बन कर जीती थी। या जब कवि और उसकी भाषा अपने पालक के पैर की जूती बन कर जीती थी।
    तुम यही सोचते होगे कि काव्य प्रतिभा तो उन सब में भी थी। लेकिन उन सब ने भाषा को अपना गंड़तरा बना लिया। और अब के समय में जब कविता किसी राजमहल के अस्तबल मंे बंधा घोड़ा मात्र नहीं रह गई। भाषा से काम लेने की, अपने मन की कहने की आजादी मिल गई तो न जाने किन लोगों ने उस भाषा से खेलना शुरू कर दिया ? न जाने तुम्हारे क्या आशय या सारोकार रहे हांेगे ? कि तुम चीह्न रहे हो कि कुछ लोग भाषा से खेल रहे हैं। और तुम संपूर्ण संभव मानवीय कातरता के साथ कहते हो कि मै तो बस भाषा को बरतना चाहता हूं। कवि विश्वास जानो कि तुम्हारी पक्तियां पढ़ते वक्त तुम्हारे लिखे शब्द न जाने कैसे रूपांतरित हो गए थे, तुमने जो लिखा उसे मैंने यूं पढ़ा कि जैसे किसी युवा ने प्रेमिका से कहा हो कि,

    मैं तुम्हे बेचना नहीं चाहता प्यारी
    सिर्फ तुम्हें प्यार करना चाहता हूं

    कवि धीरज रखो। भाषा से खेलने वाले,रोटी से खेलने वाले, और प्रेमिका को बेचने वाले रहंेगे। उनसे संघर्ष भी रहेगा। बस तुम साहस मत खोना। अपनी संवेदना मत लुटने देना। किसी गंथागार में अपनी मौलिकता की सांस घुटने मत देना। और हमें बताते रहना कि,
    कभी कविता का निष्फल या असफल हो जाना भी मनुष्यता का आभास देता है।
    कवि तुम्हारे इस उद्घाटन के बाद कोई ऊबा हुआ सुखी ये न कह सकेगा कि तुम्हारे या दूसरे किसी हकीकत के अंधेरे में कर्मरत कवि की कविता में अनगढ़पन क्यों है ? अब वो समझ जाएंग कि कभी-कभी अनगढ़पन ही मानवीयता का बोध कराता है। सब जानते हैं अनगढ़ जब रचा गया अंधेरे में उसके ही समय में तमाम गढ़े हुए रूप पूरी अमानवीयता के साथ गढ़न में व्यस्त थे। स्वयं आदमी का जीवन टूट रहा हो तो किसी अन्य की अक्षुणता से क्या हासिल ??
    कवि हर हाल में याद रखना कविता सबसे मजबूत ढाल और सबसे धारदार हथियार होती है। बहरूपियों की कविता के कवच को भेदने के काम एक खरी कविता ही कर सकती है।

  16. एक कवि ने बहुत पहले कहा था कि,

    तुमने जहां लिखा है प्यार/वहां लिख दो सड़क/फर्क नहीं पड़ता।/मेरे युग का मुहावरा है/फर्क नही पड़ता।

    उस कवि की पंक्तियो को आज मैंने चरितार्थ होते देखा। उसी आधार पर मैंने एक महाकाव्य लिखा है जो निम्न है,

    जो था गद्य/उसे लिखा पद्य/किसी को फर्क नहीं पड़ना था/न ही किसी को पड़ा/ समय की तरह /बात आगे बढ़ चुकी थी इसलिए/इस घालमेल के पक्ष में/ लोकतांत्रिक ढंग से/ आलोचना के बैलेट में/ गिरे वोटों की गिनती से/ जिसे चाहे जो/स्थापित कर देंगे हम/ आप किसी चीज को/ जो चाहे कह दें/ इस उत्तरआधुनिक होने को/ तत्पर दुनिया में / किसी को /फर्क नहीं पड़ता/ कविता,कहानी,उपन्यास/आलोचना,समीक्षा,ब्लर्ब/प्रयोग करें किसी के लिए/कोई भी शब्द/फर्क नहीं पड़ता/आज जब सारी प्रतिबद्धतांए/विचारधाराएं/यातायात के नियमों में/व्याख्यायित होने लगी हैं/ऐसे समय में भी/ किसी को भी/फर्क नहीं पड़ता कि/ उत्तरआधुनिकता/तोड़ के सारे यातायात नियम/कविता को/कर रही है बांए बाजु ही से ओवर टेक/ किसी को फर्क नहीं पड़ना था/ न ही किसी को पड़़ा

  17. धीरेश भाई,

    आप सोचते होंगे कि जब आप कह ही रहें कि मैं अपनी सुविधा के अनुसार उस तथाकथित कविता को गद्य य पद्य जो भी मान लूं और फिर उसके कथ्य की तरफ ध्यान दूं। तो मुझे क्या आपत्ति है ??

    भाई आप को पता होगा कि हमें बार-बार बताया जा रहा है कि उत्तर आधुनिक समय में सत्य/असत्य का भेद मिट चुका है। दुख/सुख का भेद मिट चुका है। हाशिए और केन्द्र का भेद मिट चुका है। ऐसे बहुत से भेद मिट चुके हैं। और सबसे मजेदार बात यह कि कई ज्ञानी तो यह भी कहते हैं कि अब बांए और दांए का भेद मिट चुका है। लेकिन मैं फिलहाल अभी अर्थों के वायवीय होते जाने के दर्शन का कायल नहीं हुआ हूं।

    भाई आप ही बताएं कि कविता और कहानी नामक शब्द पहले से ही एक निश्चित अर्थ रखते हैं। माना कि आप ने छूट दे दी है कि मैं अपनी सुविधा अनुसार उनका नाम चुन सकता हूं। इसका एक ही अर्थ है कि अब कविता और कहानी की विभेदक रेखा मिट चुकी है। यानि के अब शब्दों के अर्थ उनसे मुक्त हो चुके हैं ? या कर दिए गए हैं ? ठीक है आप के कहे को मान लूं तो फिर मेरे पास सुविधा है कि मैं बांए को दांया मान लूं या दांए को बांया !! या फिर मैं ये कह दूं कि लंका से बीएचयू जाते वक्त जो बांए से चल रहे होते हैं उन्हें बीएययू से लंका लौैटते हुए लोग दांए पटरी में दिखाई देते हैं। और जब वो बीएचयू से लौट रहे होंगे तो उन्हंे लंका से जाते हुए लोग दांए पटरी में नजर आएंगे। इतना ही नहीं किसी शब्द के अपने मनमाने अर्थ में प्रयोग की छूट के बाद किसी शब्द के अर्थ का निर्धारण कैसे होगा ? और ये कौन करेगा ?

    अपनी सुविधा और जरूरत के हिसाब से गाय को बैल और बैल को गाय कहने वाले किस आंतरिक गुण की बात करना चाहते हैं ? क्या वो नहीं जानते कि किसी चीज को गाय कहना या बैल कहना / कविता कहना/कहानी कहना उसके आंतरिक गुणों पर ही निर्धारित किया गया होगा।

    वरना सालों साल से लोग कुछ चीजों को कविता क्यों कहते आ रहें हैं ? आप ही बताएं की प्रेमचंद की कविताओं आप को कैसी लगती है ? या फिर निराला की कहानियां आप को कैसी लगती हैं ?

  18. भाई आप ने उत्तर-आधुनिकता की सैद्धांतिकी को जिस लापरवाह तरीके से प्रयुक्त किया है उसे मुझे गहरा दुख हुआ। आप ने तो हमेशा खुद को वामपंथी बताने की कोशिश की है। जरा मुझे बताएं कि किसी वामपंथी ने ऐसी छूट मांगी थी कि आप चीजों के मनमाने अर्थ रख दें। जब चाहे तब अपनी सुविधा के अनुसार। आप जो समझाना चाहते हैं कि अब के जमाने में गद्य-पद्य का कोई भेद नहीं रहा !!

    अशोक वाजपेयी अपने जनसत्ताई लेखों में ऐसे कई भेदों के मिट जाने की लगातार सूचना देते रहते हैं। इसलिए मुझे आप के सैद्धांतिकी के श्रोत को लेकर भी शंका है। आपने मुक्तिबोध के अनगढ़पन की बात बताई है जिससे अशोक वाजपेयी अक्सर बताते रहते हैं। आपने कबीर के बारे में साही के विचार बताएं है। आप कबीर के बारे में रामचंद्र शुक्ल के विचार बताना भूल गए हैं। मुझे नहीं पता कि साही के कबीर के बारे में क्या विचार थे। साही ने किन कारणों से कबीर का कवि नहीं माना लेकिन शुक्ल जी को कबीर से क्या समस्या थी यह अब जग जाहिर बात है। और भाई जो बात आप मुझे इन उदाहरणों से समझाना चाहते हैं उसको मैं यूं भी कह सकता हूं कि जिन कारणों से लोगों को मुक्तिबोध के अनगढ़पन में अत्यधिक रूचि रहती है। ंसंभवतः उन्हीं कारणों से वो कुछ लोगों को पसंद करते हैं। जिस कारण से शुक्ल जी कबीर को नापसंद करते हैं ठीक वैसे ही कारणों से कुछ लोग किसी को महान बता रहे हों !!

    भाई बहुमत मानता है कि कविता गद्य से पुरानी चीज है। गद्य को काव्यात्तकता से मुक्त कराना,शुष्क गद्य की पैरवी करना तो बांए बाजु के लोगों ने शुरू किया। जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, शुरूआत तो हर लेखक कविता लेखन से ही करता है। संजोग है कि मार्क्स,माओ,राम विलास,साही,नामवर सभी कविता पर हाथ आजमा चुके हैं। बांए बाजू ने ही गद्य में इस तरह के काव्यात्मकता को कमजोरी माना है। गोर्कि ने इससे बचने की सलाह दी है। विज्ञजन को यह पता होगा नही ंतो मैं लेखन कला कौशल में से वह अंश ढूढं कर कोट कर सकता हूं।

    इस गद्यांश को विज्ञ लोग जो भी माने मेरी नजर में यह काव्यात्मक गद्य वर्तमान हिन्दी लेखन में प्रबल होते रोमांसवाद का प्रत्यक्ष उदाहरण है। विनोद कुमार शुक्ल के प्रभाव में लिखे इस गद्य का सारा चमत्कार इसके भाषाई कौतुक मंे है। राजनीतिक मुहावरों के समझदार प्रयोग से कोई लेखन ऊँचा दर्जा हासिल कर लेगा इसमें मुझे गहरा संदेह है। और लेफ्ट-राइट करने से किसी का वास्तवीक सत्य जाहिर नहीं हो जाता।

    गर ऐसा होता तो कोई यह भी कह सकता कि भारतीय पुलिस हमेशा लेफ्ट-राइट-लेफ्ट करके परेड करती है। उसका आखिरी कदम लेफ्ट पर थमता है तो यह वस्तुतः लेफ्ट की जीत है। वैसे व्यावहारिक जीवन में लेफ्ट हैण्ड के प्रयोग-दुष्प्रयोग को लेकर संभवतः कवि धूमिल (मुझे उम्मीद है उनकी प्रतिबद्धता पर किसी को कोई शक नहीं होगा) जनता का ध्यान दिलाया था। उम्मीद है जनता उससे परिचित होगी।

    मैं यह भी स्पष्ट कर दूं मैं मानता हूं कि विनोद कुमार शुक्ल हमारे समय के बहुत बड़े लेखक हैं। जिस तरह अज्ञेय बड़े लेखक हैं इसे भी मैं मानता हूं। लेकन इनके लिखे का जो अर्थ ये लोग बताते फिरेंगे उससे असहमत होने का मुझे पूरा हक है। किसी लेखक को ईमानदारी से अपनी पसंद की चीजें लिखनी चाहिए। उसका भाष्य करना जिसका काम है वो करता रहे। लेकिन गर कोई रोमांसवादी-शिल्पवादी खुद को वामपंथी घोषित करे तो मुझे आपत्ति होगी। मैं इस पर अपनी आपत्ति दर्त कराऊँगा। इस देश में रोमांटिक क्रांतिकारियों की कई पीढ़ियां आई और गईं। नौजवानी के स्वाभाविक ऊबाल को किसी पोषक विचारधारा का खाद-पानी मिल जाए तो उसका रूमान एक महानता की चादर ओढ़े नजर आने लगता है। संभवतः इन्हीं कारणों से इस देश के भूतपूर्व लोगों की सूची बनाई जाए तो जिस सूची में सर्वाधिक लोगों का नाम होगा वो होगी, भूतपूर्व मार्क्सवादीयों की सूची।

    खुद से खुद को प्रमाणपत्र देना अलग बात है और वास्तव में उस चरित्र को प्राप्त करना अलग बात है। कुछ लोग सांप्रदायिकता से लड़ने को ही वामपंथ समझते हैं। शायद उन्हंे नहंी पता कि इस देश में सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में चैंपियन लोग आज कल नंदीग्राम में डटे हुए हैं !!

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