अल मर्कोवित्ज़ एक ‘श्रमजीवी’ हैं जो बतौर मुद्रक, स्वास्थ्य-कार्यकर्ता, बावर्ची, माली, टैक्सी-ड्राइवर और फैक्ट्री-श्रमिक काम कर चुके हैं. उनका ‘एक्टिविस्ट’ जहाँ एक ओर रंगभेद, परमाणु ऊर्जा, अमेरिकी साम्राज्यवाद-आतंकवाद और युद्ध विरोधी संघर्षों में सक्रिय रहता है, वहीं दूसरी ओर मज़दूरों को संगठित करने का काम भी करता है. मर्कोवित्ज़ का ‘कवि’ श्रमजीवी वर्ग के जीवनानुभवों से उपजा यथार्थपरक साहित्य रचता है; इसके द्वारा अमेरिकी समाज में व्याप्त उपभोक्तावाद की मारू संस्कृति का विकल्प प्रस्तुत करता है. ये ‘कवि’ श्रमजीवी वर्ग के साहित्य को बढ़ावा देने के लिए प्रकाशक बनकर ‘पार्टिज़न प्रेस’ की नींव रखता है और यही ‘कवि’ मुख्यधारा की साहित्यिक पत्रिकाओं के ‘एलीटिज़्म‘ के खिलाफ प्रगतिशील राजनैतिक चेतना की आवाज़ बनने के लिए ‘ब्लू कॉलर रिव्यू‘ पत्रिका की स्थापना कर एक सम्पादक भी बन जाता है. पूँजीवाद की शक्तिपीठ में, जहाँ ‘बाँयें’चलना महापातक हो और ‘मैक्कार्थिज़्म‘ का दमनचक्र याद्दाश्त से पूरी तरह मिटा न हो, यह कोई आसान काम नहीं है, ज़ाहिर है.
पार्टिज़न प्रेस ने, जिसका स्लोगन है ‘पोएट्री दैट टेक्स साइड्स’, आर्थिक दिक्कतों से जूझते हुए श्रमजीवी साहित्य की कई पुस्तिकाएँ (चैपबुक्स) प्रकाशित की हैं. ‘ब्लू कॉलर रिव्यू’ एक पूर्णतः अव्यवसायिक त्रैमासिक पत्रिका है जिसकी प्रसार संख्या 600 के आस पास है. साहित्यिक मुख्यधारा की सतत उपेक्षा और आर्थिक अड़चनों के बावजूद अगर यह पत्रिका पिछले बारह सालों से टिकी है तो इसके पीछे सम्पादक मर्कोवित्ज़ का खुर्राट ‘श्रमजीवी’ है जो अपने घर के बेसमेंट में स्वयं छापखाना चलाता है.
जर्जर कगार
और आने वाले खौफ़नाक दिनों के
अँधेरे असगुनी तटों के बीच यहाँ
युगान्तर की इस अद्भुत घड़ी
इस दुर्लभ क्षण में
सम्भावना की बारीक नोंक पर
उम्मीद भय से
साझेदारी अलगाव से
और आपदाएँ पुनर्जन्म से जूझ रही हैं.
योद्धा का पंथ
यह घड़ी है आतिशबाज़ी की
भोंपुओं के चिल्लाने की
कविताई की.
एक नयी सुबह की पहली किरण से
उन चेहरों को दमकने दो-भले ज़रा सा
जो यहाँ नहीं आ पाए
इस लम्बी रात के गुज़रते हुए.
आगे जाना है बहुत
मगर काफी दूर तो आ ही चुके हैं.
टूटने दो
पैट्रिअट कानूनों2 और
‘समर्पण’ और युद्ध के यातना-गृहों
का दुःस्वप्न
बहने दो इन्साफ़ को
उस पानी के रेले की तरह
जो रोका न जा सके
धोकर निर्मल कर दे हमें
हत्यारों और झूठों,
संशयी साम्राज्यवादियों
और लम्पटों से.
और छोड़ जाए अपने पीछे
एक नयी सरज़मीं जिस पर बने
हमारे सपनों का कल.
आपको नही लगता की इस समय यह कविता हमारे देश की परिस्थितियों पर भी बिलकुल सटीक बैठ रही ………….आज के भयावह समय में हम कहाँ हैं ???
इस मनुष्य का जो 'बॉयोडेटा' है उस बॉयोडेटा वाला कोई मनुष्य मेरी भाषा में कवि, मुद्रक, प्रकाशक हो यह बहुत दुर्लभ हो गया है। हिन्दी का पूरा परिदृश्य मध्यवर्गीय एलीट के नियंत्रण में है – चाहे उसकी वैचारिक मुद्रा कुछ भी हो। दो साल यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हुए हो रहे हैं, खुद भी तेजी से वही होता जा रहा हूँ – पूरे बत्तीस बरस की मेहनत, आवारगी और पाँच-सात हजार महीने में मस्त-बेफिक्र-'सक्रिय' रहने की तरकीबें हाथ से छूट रही हैं। उधर दोस्त 'पॉवर' की भाषा बोलने लगे हैं।यारों की खुशी के लिये अलीबाबा और चालीस चोर खेलना फिलहाल मुल्तवी है। पर डियर भारत भूषण ईधर कोई बेसमेंट में किताबें नहीं छापता – फालतू कामों में वक़्त गंवाने से अपना पढना लिखना डिस्टर्ब होता है!
क्या 'पेटी बुर्जुआ' (या आपके शब्दों में 'मध्यवर्गीय एलीट') की पकड़ हालिया सालों में मज़बूत हुई है? या सूरत हमेशा से ही ऐसी रही है?
इसे मेरा फैसिनेशन भी कहा जा सकता है; पर इस आदमी में, जो स्वयं के शब्दों में 'मिडल-एज्ड जॉबलेस मिसफिट' है, मुझे नागपुर की झुलसा देने वाली गर्मी में 'नया खून' प्रेस के टीन की छत के नीचे तेज़ बुखार में काम करते मुक्तिबोध (सन्दर्भ: हरिशंकर परसाई का संस्मरणात्मक लेख) झलक-झलक जाते हैं.
महीने भर पहले ईमेल पर अपना पता बदलने की सूचना दी थी ताकि ब्लू कॉलर रिव्यू का अगला अंक हासिल हो जाए, पर कोई जवाब नहीं आया. इस पोस्ट की लिंक ईमेल से भेजी थी,फिर भी कोई उत्तर नहीं. इस सर्वहारा अक्खड़पन पे बलिहारी जाने को मन करता है!
और भाई गिरिराज मस्त-बेफिक्र-'सक्रिय' रहने की तरकीबें अपनी हथेली से भी कब की छू-मंतर हो चुकीं, वरना दो हफ्तों पहले इस आदमी के शहर में जाकर इस से बिना मिले वापिस आना न हुआ होता.
पर मुक्तिबोध के नियंत्रण में क्या था? वे तो स्वयं मरण-शैय्या पर कैननाईज होना शुरू होते हैं. मेरे ख्याल से इंदिरा गांधी और इमर्जेंसी के साथ भारत के मध्यवर्गीय एलीट का व्यक्तित्व-चरित्र बदल गया. अस्सी का दशक हिंदी में मध्यवर्ग के नियंत्रण के कंसोलीडेट होने का समय है. उसकी नीयत पर शक करना अब शुरू हुआ है. हालाँकि शक करने वाले तर्क अभी खुद अपने बारे में निर्मम नहीं. नब्बे के बाद से धीरे धीरे यह बात टेकन फॉर ग्रांटेड हो गई है. ज्यादातर लेखक एक ही तरह की यूनिवर्सिटी/प्रिंट कल्चर से निकले हैं और जिनका कैननाईजेशन हुआ है वो यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले, हिंदी मीडिया में काम करने वाले नहीं भी हो तो जीवन में श्रम नहीं है.
गिरिराज जी और भारत भूषण जी आप दोनों के सम्वाद का सुख लेते हुए अल-मर्कोवित्ज़ की कविता ही भूल गया था लेकिन यह बताइये कि अब भी क्या ऐसे activists मौज़ूद नहीं हैं ? जो शौकिया थे वे ही इलीट हुए है अन्यथा सूदूर क्षेत्रों मे देखिये नई पीढ़ी में संक्रमण हो चुका है ।मध्यवर्गीय एलीट के चरित्र परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव तो उसी वर्ग की नई पौद पर पड़ा है वर्ना अभी आदिवासी क्षेत्रों मे रहकर भी लोग लिख रहे हैं ।मुक्तिबोध जी के समय से लेकर अब तक स्थितियाँ बहुत बदल चुकी हैं और चुनौतियाँ भी बिलकुल नई हैं । लेकिन (गिरिराज जी की बात से सहमत होते हुए) इस समय भी एलीट्स का class culture वही है बकौल अल-मर्कोवित्ज़ "हमेशा दूर की सीमाओं पर अपने सिपाहियों की मौजूदगी को हम पूजते है….बशर्ते वे चुप रहे और मरें -शरद कोकास दुर्ग,छ.ग.
शरदजी. करने वाले लोग काम कर रहे हैं. इसका उलट तो मैं नहीं कह रहा पर हिंदी में साहित्य की मुख्यधारा में वे नहीं हैं. साहित्य में क्या बड़ा है, क्या महत्त्वपूर्ण है यह तय करना वाला मध्यवर्ग है. उसकी नीयत पर शक भी किया जा सकता है, किसी हद तक है ही – लेकिन लेखक कितना ही ख़राब हो वो पूरी तरह अपने वर्ग/जाति को कभी रेप्रेजेंट/ओन नहीं करता, इसलिए मुझे उस मध्यवर्गीय एलीट की सीमा को लेकर अधिक चिंता है उसकी नीयत को लेकर उतनी नहीं.
शरदजी. करने वाले लोग काम कर रहे हैं. इसका उलट तो मैं नहीं कह रहा पर हिंदी में साहित्य की मुख्यधारा में वे नहीं हैं. साहित्य में क्या बड़ा है, क्या महत्त्वपूर्ण है यह तय करना वाला मध्यवर्ग है. उसकी नीयत पर शक भी किया जा सकता है, किसी हद तक है ही – लेकिन लेखक कितना ही ख़राब हो वो पूरी तरह अपने वर्ग/जाति को कभी रेप्रेजेंट/ओन नहीं करता, इसलिए मुझे उस मध्यवर्गीय एलीट की सीमा को लेकर अधिक चिंता है उसकी नीयत को लेकर उतनी नहीं.