अनुनाद

अनुनाद

एक कविता `माँ` की छवि के विरुद्ध

नवरात्र के अनुष्ठानों के बीच माँ की महिमा के शोरोगुल में स्त्री को घर और बाहर, कदम-कदम पर अपमानित करने का अनुष्ठान भी उत्साह के साथ चलता रहता है। इस दौरान मुझे ध्यान आया कि माँ की महिमा का गुणगान हमारे हिन्दी और उर्दू कवियों का भी प्यारा शगल है। माँ की बेबसी और कुर्बानी का गान मुशायरे में वाहवाही का पक्का फोर्म्युला है। …और हमारी बौद्धिक हिन्दी कविता भी अक्सर यही काम किया करती है और `बेचारी, त्यागमयी` माँ को याद करते हुए उसकी पुरुषों के लिए इस सुविधाजनक छवि की रक्षा में तत्पर रहा करती है।
लेकिन मनमोहन की यह कविता अपवाद की तरह है-

इतने दिनों बाद पता चलता है
——————————

हल्के उजाले की तरह
अचानक कमरे से गुज़रती थी वह स्त्री

कई बार पानी की तरह हिलती थी देर तक

यह एक पुरानी बात हुई

वह एक छवि थी
जो तुम्हें तुम्हारी छवि दे देती थी
और इस तरह तुमसे ख़ुद को वापिस ले लेती थी

अब इतने दिनों बाद पता चलता है
कि वह माँ का प्यार नहीं
एक स्त्री का सन्ताप था

जिसे वह छवि जो तुम देखते थे
तुम्हें ठीक-ठीक नहीं बताती थी

उसे भी उस वक़्त कहाँ पता चला होगा
कि यह सिर्फ़ उसका शिशु नहीं हैजो देखता है

और इसे एक दिन पता चल जाएगा
कि आखिर किस्सा क्या था

0 thoughts on “एक कविता `माँ` की छवि के विरुद्ध”

  1. भाई धीरेश के माध्यम से यह कविता पढ़ने को मिली। न बताते तो एक अच्छी रचना पढ़ने से महरूम रह जाता। आपको भी धीरेश के साथ-साथ बधाई।

Leave a Reply to Lalit Pandey Cancel Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top