शैलेय के कविता संकलन पर लिखना मेरे लिये समीक्षा से ज्यादा संस्मरण लिखना होगा। यह कवि और इसकी कवितायें लगभग 18 साल से मेरी जिन्दगी में हैं। यह आँकड़ा मेरी मौजूदा उम्र का आधा है और पाठक समझ सकते हैं कि मेरे लिये यह मसला कितना निजी हो सकता है।
इस संकलन का नाम किसी को चौंकाऊ लग सकता है, पर संकलन में इसी नाम की एक छोटी लेकिन वृहद अर्थच्छाया वाली कविता के कारण यह तुरंत ही सहज लगने लगता है। जहाँ तक मुझे मालूम हुआ है कि संकलन का यह विचित्र किंतु अत्यंत सार्थक नामकरण भूमिका लेखक कवि वीरेन डंगवाल ने किया है। `या´ जो दुनिया की हर नकारात्मक-सकारात्मक, संगत-विसंगत, मृत-जीवित, सुप्त-जागृत और ऐसी कई अनगिन वस्तुओं के बीच आकर अंतत: नाउम्मीदी और उम्मीद के बीच का `या´ बन जाता है। ये दो जीवनधुरियों के बीच के उस अनोखे संतुलन के बारे में बताता है, जिससे शैलेय की कविता लगातार संवाद करती है। इस तरह शैलेय उन विरल कवियों में स्थान पाते हैं, जिनके यहाँ जीवन और कविता के बीच का नकली कलावादी रिश्ता सिरे से गायब है। उनके लिये जीवन और कविता में कोई फर्क नहीं। मेरी निगाह में शैलेय के यहाँ यह दोनों ही एक जैसे विचित्र और सच्चे हैं। सबूत के तौर पर संकलन का अत्यन्त भावुक लेकिन वास्तविक और ठोस काव्यात्मक समर्पण ही देख लीजिये- `बाबू जी को, जिन्हें मेरा बिखराव लील गया।´ शैलेय को मैंने उनके सजग लेकिन उग्र वामपंथी तेवरों से अब तक की हिंदी मास्टरी तक आते-आते देखा है। मैंने उस बिखराव को देखा है, जिसने उनके बाबू जी को लील लिया और यह भी देखा है कि यह उनका अकेले का बिखराव नहीं है- इससे सिर्फ उनका नहीं, बल्कि उनके समानधर्मा हजारों-हजारों युवाओं के जीवन का सबसे दारुण समर्पण बनता है।
मैं 17 साल का था जब मैंने शैलेय को पहली बार `जनसत्ता´ में पढ़ा। वहाँ उनकी तीन कवितायें थीं पर `गुहार´ मुझे हमेशा याद रही, जिसमें हिंदुओं-मुसलमानों-सिखों आदि की अकबकायी हिंसक दुनिया में एक बेदाग कोमल बच्चा जन्मा है और उसकी माँ गुहार लगा रही है कि कोई बचा ले उसके इस बच्चे को हिंदू, सिख या मुसलमान होने से। मैंने बहुत कम उम्र में सन् 84 का दंगा देखा था और उसमें घायल भी हुआ था और 92 में जब ये कविता छपी, बाबरी मिस्जद पर चढ़ाई का अभियान अपने चरम पर था। मैं तुरंत उस गुहार लगाती माँ के साथ हो लिया। आज जब मैं खुद कवि कहलाता हूँ तो लगता है कि कविता शायद ऐसे ही प्रवेश करती है।
मैं कोशिश करता हूँ कि शैलेय के जीवन की निजता से बाहर जा सकूँ, लेकिन पाता हूँ कि यह तो दरअसल हमारे समूचे सामाजिक जीवन की वास्तविकता है, जिसके तथाकथित कर्णधार वे अच्छे लोग हैं, जिनसे शैलेय की कविता कुछ यूँ संबोधित होती है :-
तुमने कहा – मैं नहीं बोलता हूँ झूठ
नहीं करता हूं चोरी
नहीं की है मैंने किसी की हत्या
तुमने दिलाया विश्वास
कि दुनिया
निश्चिंत रहे तुम्हारी तरफ से
किंतु
इतिहास के अट्ठास में
सर्वाधिक उपहास भी तुम्हारा ही होगा
तुम जो
झूठों, चोरों और हत्यारों से
बचाव की जुगत में ही लगे हुए हो
झूठों, चोरों और हत्यारों को
कोई शिकायत नहीं है तुमसे
निरापद हैं वे और
आश्वस्त
सचमुच तुम कितने अच्छे हो
कितने चालाक….कायर…और कितने खतरनाक।
शैलेय की कविता बहुत सीधे और सरल ढंग से अपनी बात कहना शुरू करती है, जो बहुत जल्द ही आखिर तक आते वक्रोक्ति में बदल जाती है। या, पाँव, गुलाबी जल के सोते वाले बादल, पेड़, इतिहास, अपशकुन, मजदूर दिवस, जिन्दगी, सूरज आदि अनेकानेक ऐसी कवितायें हैं, जहाँ हमारी निगाह बार-बार ठहरती है और हम इस कवि की अंतर्दृष्टि से बँधने लगते हैं। कई रूपकों में व्यक्त होने के साथ ही शैलेय की कविता में व्यंग्य की ताकत भी उसके सही अनुपात में इस्तेमाल हुई है और भाषा को एक अलग रंग देती है। इन कविताओं का गद्य खूबसूरत है, लेकिन अधिकांश कवितायें आकार में छोटी हैं और दो पेज से ज्यादा की तो कोई भी नहीं। जाहिर सी बात है कि शैलेय मितकथन में यकीन रखते हैं और इस जोखिम भरे मोड़ पर सचेत रहना चाहिये कि उनकी यह सावधानी कहीं किसी रूढ़ि में न बदल जाये।
मैं कहना चाहता हूँ कि हमारे मौजूदा समय का अंधेरा अपने बारे में कुछ लम्बे आख्यानों की उम्मीद कर रहा है और हर समर्थ कवि को इस तरफ कदम बढ़ाने चाहिये। छोटी कविताओं में अक्सर एक बड़ी बात कहने की हिकमत छुपी होती है, इससे मुझे इनकार नहीं। लेकिन हर दौर में ऐसे क्षण आते हैं जब हमें हर चीज का काव्यात्मक सरलीकरण करना छोड़, उसकी जटिलताओं को समझने की ओर चलना पड़ता है। निराला ने ये किया। मुक्तिबोधीय जटिल काव्य संस्कार से कौन परिचित नहीं……नागार्जुन, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, चन्द्रकांत देवताले, विष्णु खरे, आलोकधन्वा, लीलाधर जगूड़ी, वीरेन डंगवाल आदि तक सबने अपने समय को विस्तार में समझने और समझाने के जटिल और विस्तृत प्रयास किये हैं।
शैलेय अपनी उम्र के पाँचवे दशक में हैं, जब उनका अनुभव संसार भी अपने पूरे विस्तार पर है। मैंने कुछ पत्रिकाओं में देखा है कि अपने इस अनुभव संसार को वे कहानी के स्तर पर व्यक्त करने लगे हैं- यहाँ मैं कहूँगा कि उन्हें कविता में भी ऐसी धरती पर कदम अब रख लेने चाहिये। शैलेय को नहीं भूलना चाहिए कि शुरूआत में उनके हमसफ़र रहे देवीप्रसाद मिश्र, एकांत श्रीवास्तव, कुमारअम्बुज, बोधिसत्व, नीलेश रघुवंशी, कात्यायनी, अनामिका, मोहन डहेरिया आदि कवि काफी आगे चले गए हैं और अब उन्हें हर हाल में उन तक पहुंचना ही है।
हमारे इस भीषण बाजारू समय में भी शैलेय ने अपने इस संकलन से कुछ विशिष्ट जीवन तथा काव्यमूल्यों में आस्था दिखाई है। उनके कविता संकलन का हिंदी संसार में स्वागत है और आने वाले कवि कर्म के प्रति उत्सुकता भी।
या (काव्य संकलन)
लेखक : शैलेय
प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन, सी-56
यू.जी.एफ.-4, शालीमार गार्डन, गाजियाबाद(उ0प्र0)।
***
(कवि के संकलन की ढाई -तीन पृष्ठ की लाजवाब भूमिका अग्रज वीरेन डंगवाल ने लिखी है, जिसे खोज कर पढ़ा जाना चाहिए। आगे अवसर मिला तो अनुनाद पर उसे लगाऊंगा। यह भूमिका शैलेय के कवि सामर्थ्य को तो जगमगाती ही है, लेकिन उससे बढ़ कर वह दो पीढियों के बीच का निहायत निजी, आत्मीय और गुनगुना संवाद भी बन जाती है, जिसकी आज के समय में सबसे ज़्यादा कमी है और जिसे सार्वजनिक करना आज सबसे ज़्यादा ज़रूरी है।)
कवि को प्राप्त सम्मान –
1. परम्परा सम्मान – 2009, निर्णायक – नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, नित्यानंद तिवारी एवं अन्य/ नामवर सिंह के हाथों।
2. शब्दसाधक सम्मान- २००९, संजीव के हाथों।
3. आचार्य निरंजननाथ सम्मान – २००९, विष्णु खरे की अध्यक्षता में।***
कविता सीधे सादे ढंग से गहरा कटाक्ष है ..पूरी तरह से तिलमिला देने वाला .आप बहुत ही सुंदर रचनाओं से मिलवाते हैं . . शेलेय के बारे में इतनी जानकारी देने का शुक्रिया शिरीष जी….
प्रज्ञा की बात से सहमत… व्यंग है कविता के कर्म में और हाँ कंटेंट भी सलीके से संभाला है…
साहसिक लेख के लिये बधाई, हालाँकि जटिलता और विस्तार पर आपसे बहुत कुछ सुनने की हसरत है.
आत्मीय और गुनगुने संवाद की सचमुच कमी है ………..शैलेय की कहानियां मैंने इधर खूब पढ़ी है और उनके कहन की शैली को
पसंद भी करती हूँ, पर कविता में जो बात शैलेय कह देते हैं ओ ज्यादा दूर तक जाती है और देर तक सोचने को विवश करती ,''या ''
का निसंदेह रूप से हिंदी समाज में स्वागत होगा और समाज की साँस में घुली नाउम्मीदी से उम्मीद की ओर चलते हुए शैलेय
अपनी निजता को सामाजिकता में घोल सकेंगे .
बहुत आत्मीय गद्य लिखा है,प्यारे। और शैलेय हो या कोई और महानता एक लेखक से एक पंक्ति, एक कविता, एक कृति दूर होती है – जिस दिन वो लिख ली गई, रेस में आगे दौड़ रहे सब घोड़े ठगे रह जाते हैं। यूँ भी, आगे दौड़ने वाले सब बेहतर कहाँ होते हैं?
हिन्दी में मनोहर श्याम जोशी से बड़ी प्रतिभा हुई है कोई? उनकी पहली मेजर किताब 47 का होने पर आई थी, सारामागो ने तो लिखना ही उम्र के पाँचवें दशक में शुरु किया। पर एक बड़ा लोचा है इसमें – क्या अपन जियेंगे इतना लम्बा? हिन्दी के 'मूर्धन्यों' जैसे जो पठ्ठे सब के सब
जबरदस्त हैल्थ – काँशस हैं।
शिरीष भाई, अक्सर ब्लॉग संचालक यह सोचकर पोस्ट करते हैं कि पोस्ट छोटी हो, रोचक हो, ज्यादा लम्बी और जटिल न हो. आपके यहाँ अक्सर लम्बे आलोचनातमक लेख भी छपे जो महत्वपूर्ण हैं. सो आपसे वाकई यह अपेक्षा है कि वीरेन जी की लिखी भूमिका पढने को मिल जाएगी.
….कौन कितना आगे चला गया है और किसे किस तक पहुंचना है, यह बड़ी अंधी दौड़ या मंजिल होगी.
बहुत सुन्दर लिखा है. एक दोस्त कवि पर इसी शैली में लिखा जाना चाहिए.
अंतिम बात बेतरह खटक रही है, कोई आगे निकल गया है , कोई पीछे छूट रहा हैऔर किसी को कहीं पहुँचना है…..
यह क्या है शिरीष ?
आखिर हम किसी एक जगह क्यों पहुँचना चहते हैं?
हर लेखक की अपनी अलग गति होती है, तदानुसार एक अलग गंतव्य भी. उसे अपने हिसाब से चलने दीजिए, हो सकता है वह किसी ऐसी जगह की ओर अग्रसर हो जिस के बारे हम लोगों ने या कथित आगे निकले हुओं ने सोचा भी न हो……
या फिर पहुँचने से आप का क्या तात्पर्य है, खुलासा करेंगे?
आगे निकलने या पीछे छूटने की बात पर कवि कू-सेंग के शब्दों में बस इतना ही कहना है दोस्तो कि "एक तरक़ीब थी जो काम कर गई!"
टिप्पणियों के लिए शुक्रिया!
aapne shailey ji par bahut achchhaa likhaa hai, shirish bhaai ! ham jaison ko saarthak aur roshan aalochanaa kee raah bhi dikhaayi !
—pankaj chaturvedi
kanpur
ई-पत्रिका के रुप में अनुनाद पर पुरानी पोस्ट को खोजना और पढ़ना बहुत आसान हो गया है। ये आपके लम्बे परिश्रम से ही संभव हो पाया है। बहुत अच्छा लग रहा है 2009 में प्रकाशित पोस्ट को पढ़ कर।