अनुनाद के सहलेखक पंकज चतुर्वेदी नए कवियों और पाठकों के मार्गदर्शन के लिए “दहलीज़” नामक एक स्तम्भ चला रहे हैं लेकिन इधर कुछ दीगर व्यस्तताओं के चलते उन्होंने इस स्तम्भ का काम फिलहाल स्थगित कर दिया है। इस कविता का अनुवाद मैंने उनके इसी स्तम्भ के लिए किया था। स्तम्भ उनका है इसलिए मैं ख़ुद-ब-ख़ुद इस कविता को “दहलीज़” के लेबल से नहीं छाप सकता। इसे स्तम्भ से बाहर यहाँ छाप रहा हूँ तो बस इस नीयत और शुभकामना के साथ कि पंकज भाई दुबारा अपनी उस दहलीज़ तक लौट आयें !
आइये मेरे साथ आप भी बोलिए आमीन और पढ़िये निकानोर पारा की यह अद्भुत छोटी कविता !
लिखो जैसा तुम चाहो
चाहे जिस भी तरह तुम लिखो !
बहुत -सा ख़ून बह चुका है पुल के नीचे से
इस बात पर यक़ीन करने में
कि बस एक ही राह है, जो सही है !
कविता में तुम्हें हर चीज़ का अख़्तियार है
लेकिन शर्त बस इतनी है
कि तुम्हें एक कोरे कागज़ को बेहतर बनाना है !
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कि तुम्हें एक कोरे कागज़ को बेहतर बनाना है ।
बहुत सुंदर, नये कवियों को इससे अच्छी सीख और क्या होगी ।
मूल कविता तो मुझे पता नही लेकिन मुझे लगता है कि अंतिम पंक्तियों का अनुवाद कुछ और प्रभावोत्पादक हो सकता था । इस अच्छी कविता की प्रस्तुति के लिये धन्यवाद ..और पंकज भाई ऐसे कौन से काम में उलझ गये है कि नही आ पा रहे है । 13-14-15 नवम्बर को भिलाई मे मुक्तिबोध स्मृति फिल्म एवं कला उत्सव है सुना था कि उसमे आ रहे है ।
वाह!
प्रेरक कविता.
कवि का परिचय देते तो अच्छा रहता.
बढ़िया कविता,दहलीज के लिए बिलकुल उपयुक्त.शायद अब पंकज जी का आलेख इस पर हमें मिले.
सच लिखते समय यह बोध बेहद ज़रूरी है कि एक पेड यूं ही न कट जाये
अच्छी शिक्षा… ख्याल रखूँगा… ऐसी एक कविता शायद पाश की पढ़ी थी…
टूटी हुई सी लिख रहा हूँ… मुआफी से साथ
"लानत है उन कवियों को
जो करते हैं कागजों जा गर्भपात…"
''शर्त यह है की काग़ज को बेहतर बनायें '' और यहीं से शुरू होती है वास्तविक यात्रा ……..
बहुत अछ्छी कविता और बहुत प्यारी दुआ